सरकार द्वारा चीनी टायर के आयात के फैसले से घरेलू टायर बाजार में कोई हलचल नहीं है।
सरकारी इंटरप्राइजेज एमएमटीसी ने इस साल के अप्रैल महीने से बस व ट्रक के लिए चीन से टायर आयात करने का फैसला किया है।एमएमटीसी इन टायरों की सप्लाई राज्य सरकार के परिवहन निगम व अन्य बड़े ट्रांसपोटर्स को करने की योजना बना रही है।बताया जाता है कि चीनी टायर के उत्पादन में भारतीय टायर के मुकाबले काफी कम लागत आती है। इन्हीं कारणों से एमएसटीसी ने चीनी टायर को आयात करने का मन बनाया है।
जेके टायर के एमडी एएस मेहता कहते हैं, ‘घरेलू बाजार में किसी बड़े वाहन के टायर, टयूब व फ्लैप को बनाने में 19,500 रुपये से लेकर 20,000 रुपये तक का खर्च होता है जबकि चीन में यह लागत यहां के मुकाबले 10 फीसदी तक कम होती है। जाहिर है चीन से आयात होने वाले टायर की कीमत खुदरा बाजार के घरेलू टायर के मुकाबले 1000 से 1500 रुपये कम होगी।’
गौरतलब है कि घरेलू बाजार के व्यावसायिक वाहनों में 2007 के अप्रैल महीने से लेकर इस साल के जनवरी महीने के दौरान 10 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। लिहाजा हर कंपनी चाह रही है कि इनकी कीमत को पुराने स्तर पर कायम रखा जाए। ऐसे में बड़े वाहनों में चीन के टायर के इस्तेमाल से उसकी लागत में कमी आएगी।
मेहता कहते हैं, ‘टायर की लागत में बढ़ोतरी के बावजूद अगर हमारा ग्राहक हमें टायर की कीमत को कम करने के लिए कहता है और हम ऐसा करने से इनकार कर देते हैं तो ऐसे में वह तुरंत चीन से आयातित टायर को अपने वाहन में फिट करवा लेता है। और उसका नतीजा हम सब देख चुके है। एक बार ग्राहक को इस बात का अहसास हो जाता है कि जिस ट्रक को वह चला रहा है उसमें चीन से आयात किया गया टायर शामिल है तो फिर वह देसी टायर को अपनाने से मना कर देता है।’
हालांकि ऑटो कंपनियों की दलील है कि यहां के टायर निर्माताओं की क्षमता अधिक नहीं है। उसके जवाब में टायर निर्माता कहते हैं कि उनकी उत्पादन क्षमता काफी अधिक है। यहां तक कि उन्हें टायरों का निर्यात करना पड़ता है। मेहता पूछते हैं कि टायर उत्पादन की घरेलू क्षमता बहुत अधिक है ऐसे में चीन से आयात करने की जरूरत ही कहां है।
उनके मुताबिक देश में हर महीने 9.5 लाख टायर की जरूरत होती है जबकि भारतीय टायर निर्माता प्रतिमाह 11 लाख टायर का उत्पादन करते हैं। खपत के मुकाबले होने वाले अधिक उत्पादन का निर्यात किया जाता है। टायर उत्पादन के मामले में भले ही कोई कमी न हो लेकिन कुछ विशेष प्रकार के टायरों की वाकई में कमी है। रेडियल टायर के मामले में भारतीय टायर निर्माताओं की क्षमता कम है। गौरतलब है कि दिल्ली परिवहन निगम की सभी बसों में रेडियल टायरों का इस्तेमाल किया जाता है।
मेहता इस बात को स्वीकारते हैं कि रेडियल टायरों के उत्पादन को बढ़ाने में समय लगेगा। देश में सिर्फ जेके टायर कंपनी ही रेडियल टायर का निर्माण करती है। एमएमटीसी द्वारा चीन से टायर आयात करने के फैसले के पीछे यह भी एक कारण माना जा रहा है।
गत साल जुलाई महीने में चीन के टायर, टयूब व फ्लैप पर 135 अमेरिकी डॉलर की एंटी डंपिंग डयूटी लगाई गई थी। लेकिन इससे चीन से होने वाले आयात में कोई कमी नहीं आई है। फिलहाल देश के 5 फीसदी व्यावसायिक वाहन चीन के टायर पर चल रहे हैं तो एक फीसदी कारों के बीच भी चीनी टायर ने अपनी जगह बना ली है। इस साल जनवरी महीने में व्यावसायिक वाहनों के लिए चीन से 40 हजार टायरों का आयात किया गया था।
जानकारों का कहना है कि चीन से टायरों के बढ़ते आयात बाजार के हालात के लिए ठीक नही हैं। टायर के मामले में चीन की लींगलांग, वेस्टलेक, च्योयांग, किंगराइडर, एमट्रैक, पेनजर जैसी कंपनियां भारतीय बाजार में मुख्य रूप से टायर का आयात कर रही है। विशेषज्ञ इस बात को जानने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं कि किस तरह चीन भारत के मुकाबले कम लागत में टायर का उत्पादन कर रहा है। यह बात घरेलू बाजार के लिए एक पहेली बनी हुई है।
अपोलो टायर के कॉरपोरेट मार्केटिंग के प्रमुख सुमन सरकार कहते हैं, ‘यह हमारे लिए रहस्य की चीज है। चीन व भारत दोनों ही देश के टायर निर्माता विश्व के एक ही बाजार से समान कीमत पर कच्चे माल की खरीदारी करते हैं। हो सकता है कि चीन की सरकार वहां के टायर निर्माताओं को उत्पादन की लागत पर अलग से छूट दे रही हो तभी वे लागत एक समान होने के बावजूद भारतीय उत्पादकों से कम कीमत पर टायर को बेच रहे हैं।’
इन सबके बावजूद घरेलू बाजार में टायर के मुख्य उत्पादक चीनी टायर के आयात के फैसले से कतई चिंतित नहीं है। जानकारों का कहना है कि एक तो चीनी टायर का गुणवत्ता भारतीय टायर के मुकाबले कमजोर है। दूसरी बात है कि आयातित टायर को बेचने पर बहुत ही कम मुनाफा होगा। उनका कहना है कि इस कारोबार में बहुत ही कम मुनाफा है। जो उद्योग पहले से ही बहुत ही कम मुनाफे के स्तर पर निर्माण कर रही हो उसके माल को बेचने पर बहुत मुनाफा की उम्मीद नहीं की जा सकती है।