केवल नरेंद्र मोदी को सत्ता से बाहर करने के उद्देश्य से बना गठबंधन अर्थव्यवस्था रूपी पोत को सही दिशा में खेने का सही उपाय नहीं है। बता रहे हैं आर जगन्नाथन
जिस किसी व्यक्ति ने यह कहा था कि अच्छी राजनीति से अच्छी आर्थिकी तैयार होती है या इसका उलटा होता है, उसे अपने मस्तिष्क की जांच करानी चाहिए। दुनिया में कहीं भी आपको न अच्छी राजनीति नजर आएगी और न ही अच्छी आर्थिकी।
अब से मई 2024 के बीच विधानसभाओं और लोकसभा चुनाव में भारतीय मतदाताओं के समक्ष कई राजनीतिक विकल्प होंगे। हमारी चिंता यह होनी चाहिए कि हम ऐसे खराब राजनेताओं को चुन सकते हैं जो अर्थव्यवस्था की हालत और खस्ता कर दें। हमारी अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर यही है कि केंद्र में यथास्थिति बनी रहे।
इस इंडिया का पूरा नाम है- इंडियन नैशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस
विपक्षी दलों ने अपने गठजोड़ को इंडिया नाम दिया है और यह चिंतित करने वाली बात है क्योंकि अक्सर वैचारिक रूप से पूरी तरह दिवालिया हो जाने वाले ही देशभक्ति की शरण लेते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि सत्ताधारी दल ऐसी जुमलेबाजी से मुक्त है। चिंता की असली वजह यह है कि इस इंडिया का पूरा नाम है- इंडियन नैशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस। यहां डेवलपमेंटल और इन्क्लूसिव यानी विकासात्मक और समावेशी शब्द का इस्तेमाल बताता है कि करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल योग्य-अयोग्य सभी नागरिकों को नि:शुल्क तोहफे देने में किया जाएगा।
हमने देखा कि गैर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) दल पुरानी पेंशन योजना को चुन रहे हैं जो सरकारी नौकरियों से सेवानिवृत्त होने वाले कर्मचारियों को तयशुदा पेंशन देती है जबकि नई पेंशन योजना में कर्मचारियों को तयशुदा योगदान करना होता है। नई पेंशन योजना में पेंशन जीवन भर की नौकरी में एकत्रित राशि पर आधारित होती है, न कि राज्य सरकार द्वारा दी जाती है।
हमने देखा है कि कैसे कर्नाटक में सत्ता में आने की जद्दोजहद में कांग्रेस ने मतदाताओं को पांच गारंटी दीं। इन गारंटियों की बदौलत करदाताओं को सालाना 50,000 करोड़ रुपये से 60,000 करोड़ रुपये का बोझ उठाना पड़ सकता है। इन पांच गारंटियों में परिवार की महिला मुखिया को 2,000 रुपये प्रति माह देना, हर महीने 200 यूनिट मुफ्त बिजली, स्नातक युवाओं को प्रतिमाह 3,000 रुपये बेरोजगारी भत्ता और प्रति माह परिवार के प्रति सदस्य 10 किलो मुफ्त चावल देना शामिल था।
अब चावल के बदले नकद राशि देने की बात कही गई है क्योंकि चावल की उपलब्धता पर्याप्त नहीं है। सरकार में कांग्रेस के दूसरे नंबर के नेता डी के शिवकुमार ने पहले ही कहा है कि ये योजनाएं विकास कार्यक्रमों के आवंटन पर असर डालेंगी। संक्षेप में कुछ लोगों को नि:शुल्क चीजें देने की कीमत सार्वजनिक बेहतरी को चुकानी होगी।
इंडिया गठबंधन के किसी दल ने आर्थिक मोर्चे पर सुधार को लेकर कोई टिप्पणी नहीं
अब जबकि कांग्रेस का ऐसी गारंटियों पर लगभग एकाधिकार सा है तो वह उसे अन्य राज्यों में भी अपनाएगी। ऐसे में आम चुनाव के पहले इंडिया गठबंधन के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में भी ये नजर आएंगे। सबसे दिक्कतदेह बात यह है कि इंडिया गठबंधन के किसी दल ने आर्थिक मोर्चे पर सुधार को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की। एकमात्र राजनेता जिसने ऐसे राजकोषीय अविवेक को रेखांकित किया है वह हैं नरेंद्र मोदी।
2004 से 2014 तक जब कांग्रेस (जो अतीत में सुधारवादी दल रहा है) के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार में था तब एक भी सुधार को अपनाने का प्रयास नहीं किया गया। संप्रग के कार्यकाल में जो सामाजिक सुरक्षा योजना बनी उसे उन कर प्राप्तियों से पूरा किया गया जिनमें संप्रग की कोई भूमिका नहीं थी। बल्कि यह राशि अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के सुधारों और वैश्विक वृद्धि में तेजी की बदौलत हासिल हुई थी। तेजी का दौर खत्म होते ही नेताओं का सच सामने आ गया।
इसके विपरीत 2014-24 इकलौता ऐसा दशक रहा जहां सरकार ने निरंतर सुधारों का प्रयास किया और किसी आंतरिक या बाहरी कारक के दबाव के बिना। यह तब हुआ जबकि 2014 और 2015 में दो बार सूखा पड़ा तथा 2020-22 में कोविड संकट उफान पर था। इसका अर्थ यह नहीं है कि मोदी के अधीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने सबकुछ सही किया। नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था के उस हिस्से को नुकसान पहुंचाया जो नकदी का इस्तेमाल करता है। हालांकि इसकी वजह से आगे चलकर डिजिटल इकॉनमी ने जबरदस्त जोर पकड़ा।
ऋणशोधन अक्षमता और दिवालिया संहिता हो, वस्तु एवं सेवा कर या गरीबों को सब्सिडी देने की व्यवस्था में लीकेज दूर करना, कॉर्पोरेट कर दरों में कटौती, रक्षा आपूर्ति की घरेलू खरीद पर जोर देना या उत्पादकता संबद्ध प्रोत्साहन की मदद से विनिर्माण को बढ़ाना, किसी भी सरकार के कार्यकाल में हमने इतने सुधार होते नहीं देखे।
अगर इंडिया गठबंधन में शामिल दलों ने 2019-20 में पश्चिमोत्तर भारत के अमीर किसानों की मदद से अगर कृषि सुधारों को नुकसान नहीं पहुंचाया होता तो वे भी भारतीय सुधारों की कहानी में एक अहम कड़ी होते। भारत को सुधारों की जरूरत है लेकिन इंडिया के नाम से बना राजनीतिक गठजोड़ शायद इसका उपयुक्त माध्यम नहीं है।
इसकी दो वजह हैं। हालांकि कांग्रेस पार्टी को सन 1991 में कुछ सुधार करने का श्रेय प्राप्त है लेकिन संप्रग के दूसरे कार्यकाल में वह कोई ठोस सुधार नहीं कर पाई। 2009 में बड़े अंतर से जीतने के बाद भी वह ऐसा नहीं कर पाया। अभी कम ही लोग मान रहे हैं कि 2024 में वह 100 सीट का आंकड़ा पार कर सकेगा। यानी क्षेत्रीय दल यह तय करेंगे कि केंद्र में क्या होगा। उन दलों में से किसी को अपने राज्यों के बाहर सुधार के लिए नहीं जाना जाता। अगर वे सुधार करना चाहें तो एक संवैधानिक बदलाव पर जोर दे सकते हैं जिसकी बदौलत सुधारों का बोझ राज्यों और स्थानीय निकायों पर आ जाएगा और उन्हें वित्तीय शक्तियां भी हासिल होंगी लेकिन लगता नहीं कि ऐसा किया जाएगा।
अब तक भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन बेहतर
कुल मिलाकर यह एक कमजोर गठबंधन है और इसके मूल में जो दल है वह और भी कमजोर है। इसका नतीजा यह कि राजकोषीय और सुधार के मोर्चे पर इसे कई समस्याएं होंगी। भारत के लिए तमाम खराब नतीजों में सबसे खराब यही होगा कि भाजपा सत्ता में बनी रहे। यह भी संभव है कि उसे पूर्ण बहुमत न मिले। अब तक भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन बेहतर है लेकिन एक खराब चुनाव नतीजे उसे दोबारा बेपटरी कर देगा। हम 2010 के बाद ऐसा देख
चुके हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए राजग इंडिया गठजोड़ से बेहतर साबित होगा। उम्मीद करनी चाहिए कि 2024 में राजनीतिक यथास्थिति बरकरार रहेगी। बिना उसके सुधारों के मोर्चे पर कोई प्रगति नहीं होगी बल्कि इसके उलट हमें कुछ विपरीत हालात का ही सामना करना पड़ सकता है। इस विषय पर अंतहीन बहस हो सकती है कि मोदी के नेतृत्व में लोकतंत्र को क्षति पहुंची या नहीं लेकिन बिना आर्थिक वृद्धि और प्रगति के भी लोकतंत्र नहीं हो सकता।
(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)