जाति आधारित नामांकन पर अमेरिका के शीर्ष न्यायालय के आदेश के परिप्रेक्ष्य में नौकरी एवं शिक्षा दोनों में आरक्षण की भारतीय व्यवस्था महत्त्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करती है। बता रहे हैं टी टी राम मोहन
अमेरिका के उच्चतम न्यायालय ने जून में बहुमत से निर्णय सुनाया कि विद्यालय जातिगत आधार पर दाखिला नहीं ले सकते हैं। कई लोगों को लगता है कि न्यायालय का निर्णय अफर्मेटिव ऐक्शन (वंचित लोगों को अवसर देना) के माध्यम से अतीत में हुईं गलतियां सुधारने के प्रयासों के लिए बड़ा झटका है।
कुछ लोगों ने न्यायालय के निर्णय की व्याख्या दूसरे ढंग से की है। उनका मानना है कि अमेरिका का शीर्ष न्यायालय शैक्षणिक संस्थानों में अफर्मेटिव ऐक्शन को अनुचित मानता है। कुछ अन्य लोगों को लगता है कि न्यायालय का निर्णय उनकी इस सोच को उचित ठहराता है कि कार्यस्थल सहित किसी भी क्षेत्र में अफर्मेटिव ऐक्शन की अवधारणा अनुचित है। वास्तव में ये दोनों ही व्याख्या तर्कसंगत नहीं हैं।
न्यायालय ने जाति आधारित अफर्मेटिव ऐक्शन के उचित और अनुचित पहलुओं पर विचार नहीं किया है। न्यायालय ने बस इतना कहा कि जाति आधारित अफर्मेटिव ऐक्शन असंवैधानिक है, अर्थात संविधान में अफर्मेटिव ऐक्शन का कोई प्रावधान नहीं है।
मुख्य न्यायाधीश सी जे रॉबर्ट्स ने न्यायालय के उन तर्कों का उल्लेख किया है जिनके आधार पर निर्णय सुनाया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिका के संविधान में निहित प्रावधान और उच्चतम न्यायालय का आदेश कॉलेजों में अफर्मेटिव ऐक्शन में जाति को आधार बनाने की बहुत सीमित अनुमति देते हैं।
न्यायालय का आदेश अमेरिका संविधान में समान सुरक्षा खंड पर आधारित है। इससे पहले भी न्यायालय कह चुका है कि समान सुरक्षा खंड ‘जाति, रंग या राष्ट्रीयता’ पर विचार नहीं करता है और ‘सार्वभौम’ रूप से लागू होता है। वृहत स्तर पर जाति आधारित अफर्मेटिव ऐक्शन की समीक्षा दो मानकों पर की जानी चाहिए।
पहली बात, यह प्रावधान ‘अतिआवश्यक सरकारी हितों’ को बढ़ावा देना चाहिए। दूसरी बात, इसका दायरा सीमित रखा जाना चाहिए, अर्थात यह निश्चित रूप से उन्हीं हितों के संबंध में लागू होना चाहिए, न कि अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इसका उपयोग किया जाना चाहिए।
न्यायालय ने विश्वविद्यालयों को केवल एक उद्देश्य के लिए जाति आधारित नामांकन व्यवस्था की अनुमति दी है। वह उद्देश्य है जातिगत विविधता वाले छात्र समागम को बढ़ावा देना। कॉलेज किसी जाति के लिए सीटें आरक्षित नहीं कर सकते हैं। प्रत्येक छात्र के मामले में कॉलेज को इस बात का अवश्य आकलन करना चाहिए कि अमुक छात्र के नामांकन से छात्रों के बीच विविधता लाने में कितनी मदद मिलेगी। इस सीमित अफर्मेटिव ऐक्शन को भी बाद में इस शर्त के साथ बांध दिया गया कि कभी न कभी जाति आधारित नामांकन व्यवस्था समाप्त की जाएगी।
न्यायालय ने आदेश दिया कि यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलाइना और हार्वर्ड कॉलेज इन मानदंडों पर विफल रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि उन्होंने जाति आधारित नामांकन के लिए अपरिवर्तनशील कोटा तय कर दिए हैं। ये कोटा किसी खास जाति के लिए लागू किए गए, न कि उचित उद्देश्य के लिए और इसके लिए कोई वाजिब आधार भी नहीं दिया गया। न्यायालय ने अफर्मेटिव ऐक्शन के लिए एक समय सीमा निर्धारित करने का आग्रह किया था मगर तब से पिछले 20 वर्षों से यह व्यवस्था चली आ रही है।
सैद्धांतिक रूप में अमेरिकी संसद कोटा के संबंध में जाति आधारित अफर्मेटिव ऐक्शन की व्यवस्था के लिए संविधान में संशोधन कर सकती है। मगर अमेरिका में वर्तमान सामाजिक स्थिति को देखते हुए ऐसा करना काफी चुनौतीपूर्ण कदम होगा। हालांकि, एक रुचिकर प्रश्न भी है जिस पर अवश्य विचार किया जा सकता है।
क्या वंचित समूहों के लिए शिक्षण संस्थानों में अफर्मेटिव ऐक्शन सामाजिक स्तर पर परिणाम में सुधार ला सकता है? क्या केवल इस प्रावधान से ही अधिक सामाजिक बदलाव आ सकते हैं? अधिकांश लोगों का उत्तर हां में होगा।
अमेरिका के अर्थशास्त्री ग्रेगरी क्लार्क की पुस्तक ‘द सन अल्सो राइजेज’ के अनुसार इसकी संभावना कम लगती है। पुस्तक में एक विवादित सिद्धांत दिया गया है जिसमें कहा गया है कि किसी व्यक्ति का सामाजिक दर्जा काफी हद तक उसका जीन निर्धारित करता है। इस तरह, इस सिद्धांत के अनुसार प्रकृति प्रायः अन्य दूसरे कारकों पर हावी हो जाती है। यहां पर डॉ. क्लार्क के शोध के साथ न्याय कर पाना संभव नहीं होगा। अधिक से अधिक उनके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा की जा सकती है।
डॉ. क्लार्क का अनुमान है कि विभिन्न समाज में सामाजिक बदलाव कम हुए हैं और यह स्थिति लगातार बनी हुई है। इसमें अमेरिका भी शामिल है, जिसे ‘संभावनाओं का देश’ कहा जाता है। समाज में बदलाव का निर्धारण सामाजिक स्थिति में पीढ़ीगत सह-संबंधों का इस्तेमाल कर किया जा सकता है।
अगर आपसी संबंध शून्य है तो इसका अर्थ है कि बदलाव अधिक हुआ है (संतान अपने माता-पिता से काफी बेहतर कर सकते हैं)। अगर आपसी संबंध 1 रहता है तो बदलाव नदारद रहता है और माता-पिता की सामाजिक स्थिति ही संतान की स्थिति का निर्धारण करती है। डॉ. क्लार्क विभिन्न समाज में सह-संबंध 0.75 तक रहने का अनुमान लगाते हैं। किसी व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का पता काफी हद तक उसके माता-पिता की स्थिति के आधार पर लगाया जा सकता है।
यह तर्क गले नहीं उतरता है क्योंकि यह इस धारणा के विपरीत जाता है कि कोई भी कठिन परिश्रम, शिक्षा, बेहतर पोषण आदि के दम पर शीर्ष सफलता अर्जित कर सकता है। एक अच्छा समाज वह होता है जहां सभी को शिक्षा पाने के आवश्यक अवसर प्रदान कर सफलता अर्जित करने के मौके दिए जाते हैं।
मगर दुख की बात है कि इस संबंध में जो साक्ष्य हैं वे निराश करने वाले हैं। लोगों को शिक्षा एवं स्वास्थ्य उपलब्ध कराने में नॉर्डिक देश (डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे और स्वीडन) अमेरिका से काफी आगे हैं। मगर नॉर्डिक देशों में हुए सामाजिक बदलाव बहुत अधिक नहीं माने जा सकते हैं।
डॉ. क्लार्क बताते हैं कि यद्यपि, सामाजिक बदलाव अधिक नहीं हुए हैं मगर सामाजिक ढांचे में निचले स्तर पर रहने वाले लोगों की स्थिति कालांतर में सुधरती है। मगर यह गति काफी धीमी है यानी इसमें लगभग 300 वर्ष तक लग जाते हैं। यदि हम यह स्वीकार कर लें कि दयालु एवं समावेशी समाज में वंचित समूह लगातार कई पीढ़ियों तक समान अवस्था में नहीं रहते हैं तो सार्वजनिक नीति से जुड़ा विषय उठेगा। यह पूछा जाएगा कि आखिर यह कैसे संभव होता है? इसका एक उत्तर है प्रगतिशील कराधान के माध्यम से जुटाए संसाधन का पुनर्वितरण, जैसा कि नॉर्डिक देशों में होता है। मगर कुछ दूसरे देशों ने इस पुनर्वितरण का प्रबंधित किया है।
उच्च न्यूनतम वेतन से मदद मिल सकती है मगर मुक्त बाजार के पुरोधाओं इसके (न्यूनतम वेतन) विरोधी रहे हैं। इसका एक विकल्प अफर्मेटिव ऐक्शन का भारतीय प्रारूप हो सकता है। भारतीय संविधान में आरंभ में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए जाति आरक्षण व्यवस्था दी गई थी और बाद में इसमें संशोधन कर अन्य पिछड़ी जातियों एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए वर्ग आधारित आरक्षण शामिल किए गए। ये आरक्षण केवल सरकारी संस्थानों में लागू होते हैं।
यदि हम सभी सामाजिक समूहों के लिए उच्च स्तर पर प्रतिनिधित्व चाहते हैं तो नौकरी में आरक्षण देने के अतिरिक्त दूसरा कोई विकल्प नहीं है। इसका स्पष्ट अर्थ शिक्षा में भी आरक्षण देना है क्योंकि पहले तो हमें लोगों को नौकरियों के लिए आवश्यक खूबियों से लैस करना होगा। नौकरियों में आरक्षण के बाद शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था करने से उत्कृष्ट रोजगारों का सृजन स्वतः नहीं भी हो सकता है।
डॉ. क्लार्क के अध्ययन के परिप्रेक्ष्य में अफर्मेटिव ऐक्शन का भारतीय भारतीय प्रारूप अच्छा विकल्प लगता है। भारत में शिक्षा के साथ नौकरियों में भी आरक्षण है। चूंकि, सामाजिक बदलाव की गति धीमी है, इसलिए आरक्षण समाप्त करने की कोई समय सीमा तय नहीं करना एक समझदारी वाला कदम है। ऐसा लगता है कि हमारे संविधान निर्माताओं को पहले से भान था कि वंचित एवं पिछड़े लोगों का सर्वांगीण विकास इतनी सरलता से संभव नहीं हो पाएगा।
हमारी तुलना में अमेरिका का अफर्मेटिव ऐक्शन बेहद कमजोर है। शिक्षा में अफर्मेटिव ऐक्शन कमजोर रहा है (और अब और कमजोर हो जाएगा) और नौकरियों में अफर्मेटिव ऐक्शन अब भी अधिक प्रभावशाली नहीं लग रहा है। भारत में एक बड़ा प्रश्न यह रहेगा कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण आवश्यक सामाजिक बदलाव एवं विविधता लाने के लिए पर्याप्त है या निजी क्षेत्र में भी आरक्षण लागू करने की आवश्यकता है।