डिजिटल दुनिया में प्रतिस्पर्धा का प्रबंधन करना आसान नहीं है। इन क्षेत्रों में पारंपरिक आर्थिक सिद्धांत भी काम नहीं करते। विस्तार से बता रहे हैं अजय कुमार
डिजिटल क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा को हल करना सरकारों और नियामकों के लिए एक बड़ी चुनौती है। भौतिक दुनिया में जहां नेटवर्क प्रभाव सीमित होता है, वहीं डिजिटल उत्पाद और सेवाएं अक्सर मजबूत नेटवर्क प्रभाव प्रदर्शित करते हैं।
साधारण शब्दों में कहें तो नेटवर्क प्रभाव तब उत्पन्न होता है जब हर नया उपयोगकर्ता अन्य सभी लोगों के लिए पेशकश का मूल्यवर्द्धन करता है। दूरसंचार इसका शानदार उदाहरण है।
नेटवर्क प्रतिस्पर्धा और किफायत के पारंपरिक अर्थशास्त्र को धता बताते हैं। इसके बजाय वे ऐसा परिदृश्य रचते हैं जहां सब कुछ विजेता का होता है। इससे एकाधिकार की परिस्थिति पैदा होती है। नेटवर्क उद्योग के इस गुण को पहचानते हुए ही करीब 100 वर्ष पहले एटीऐंडटी ने टेलीफोनी को एक स्वाभाविक एकाधिकार के रूप में परिभाषित किया था।
गूगल सर्च, माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस, ऐंड्रॉइड ओएस, गूगल और ऐपल प्ले स्टोर, व्हाट्सऐप और फेसबुक आदि नेटवर्क अर्थव्यवस्था के उत्पादों का उदाहरण हैं जो लगभग एकाधिकार जैसी स्थिति रचते हैं।
पारंपरिक आर्थिक सिद्धांत कहते हैं कि प्रतिस्पर्धा से कीमतों में कमी आती है और गुणवत्ता में सुधार होता है इसलिए उपभोक्ताओं के लिए यही बेहतर है। एक नेटवर्क अर्थव्यवस्था में जब नेटवर्क से बहुत अधिक उपयोगकर्ता जुड़ जाते हैं तो हर उपयोगकर्ता के मूल्य में वृद्धि होती है और समग्र रूप से सामाजिक कल्याण में सुधार होता है।
बहरहाल ताकत चुनिंदा मुनाफा कमाने वाली संस्थाओं के पास केंद्रित रहती है जिससे जोखिम उत्पन्न होता है। इसमें राजनीतिक और सामाजिक ढांचे को अस्थिर करने की संभावना भी होती है।
ऐतिहासिक रूप से देखें तो नेटवर्क प्रभाव को टेलीफोन, टेलीग्राफ, रेलवे और डाक सेवाओं जैसी तकनीकों में चिह्नित किया गया लेकिन ये मिलकर अर्थव्यवस्था का बहुत छोटा हिस्सा तैयार करते थे। डिजिटलीकरण ने सकल घरेलू उत्पाद में नेटवर्क अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी में इजाफा किया है। यह रुझान लगातार बढ़ रहा है।
नेटवर्क का विस्तार होने तथा भारी उपयोगकर्ता आधार हासिल करने के बाद उनकी पेशकश सार्वजनिक प्रकृति की हो जाती है, भले ही उन पर निजी नियंत्रण होता है। इसके अहम नीतिगत प्रभाव होते हैं। इसके परिणामस्वरूप नेटवर्क प्रभाव की आर्थिक हकीकत को समझना अनिवार्य हो गया है।
वित्तीय मामलों पर संसद की स्थायी समिति तथा कंपनी मामलों के मंत्रालय द्वारा गठित डिजिटल प्रतिस्पर्धा कानून संबंधी समिति दोनों ने एक कानून की अनुशंसा की है जो प्रमुख डिजिटल कंपनियों के बीच बढ़ते गैर-प्रतिस्पर्धी व्यवहार से उपजी चुनौतियों से निपटने की कोशिश कर सके।
उदाहरण के लिए उत्पादों को मौजूदा नेटवर्कों से जोड़ना या उनमें शामिल करना, खुद को प्राथमिकता देना, किसी तीसरे पक्ष के उत्पादों को रोकना, डेटा का एकाधिकार के लिए इस्तेमाल करना, ई-कॉमर्स में भारी छूट, विशिष्ट गठजोड़ तथा प्रतिस्पर्धा विरोधी विज्ञापन नीतियां।
उनका कहना सही है कि ऐसा व्यवहार प्रमुख कंपनियों के दबदबे को बल देता है और वर्तमान कंपनियों के पक्ष में ध्रुवीकरण करता है। डिजिटल क्षेत्र की तेज प्रकृति को देखते हुए उन्हें लगा कि बाद में कदम उठाना अपर्याप्त है और उन्होंने पहले कदम उठाने की वकालत की।
एक मसौदा विधेयक टिप्पणियों के लिए पेश किया गया। इस विधेयक तथा यूरोपीय संघ के डिजिटल मार्केट्स ऐक्ट, 2022 में कुछ समानताएं हैं। यूरोपीय संघ ने प्रमुख ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों को निगरानी की जिम्मेदारी दी है और ऐसे नियमन प्रस्तावित किए हैं जो खुद को प्राथमिकता देने, तीसरे पक्ष की पहुंच को बाधित करने और प्लेटफॉर्म के अन्य उत्पादों के साथ काम करना सुनिश्चित करने जैसे व्यवहार को रोक सकें।
ऐसे नियमन के प्रस्ताव ने इन चिंताओं को जन्म दिया है कि कहीं नियामकीय माहौल प्रतिबंधात्मक लाइसेंस और इंस्पेक्टर राज की तरह न हो जाए, यानी कहीं इस क्षेत्र की स्वायत्तता पर बुरा असर न पड़े। सरकार ने 20वीं सदी में दूरसंचार क्षेत्र के नेटवर्क प्रभाव को पहचाना और इस क्षेत्र का नियमन किया ताकि निजी एकाधिकार कायम न हो तथा कई कारोबारी बाजार में नजर आएं।
जो उपाय किए गए उनमें लाइसेंसिंग, क्षेत्रों का बंटवारा और कीमतों का नियमन आदि शामिल थे। वैश्विक स्तर पर नियमन का खाका तय करने वाला अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ भी सरकारों के नेतृत्व वाला है। कुछ उपाय मसलन साझा मानक और परस्पर संचालन आदि जहां लाभदायक थे, वहीं अन्य मानक इस क्षेत्र में एकाधिकार का उभार रोकने में नाकाम रहे।
भारत का अनुभव जानकारीपरक है। शुरुआत में हमारे यहां दूरसंचार क्षेत्र में सरकार का एकाधिकार था। 1994 में इस क्षेत्र को निजी क्षेत्र के लिए खोला गया लेकिन समय के साथ इसमें दो कंपनियों का दबदबा कायम हो गया। अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, संयुक्त अरब अमीरात और सिंगापुर में भी यही हाल है।
नियमन के कारण इस क्षेत्र में नवाचार में कमी आई और 100 वर्ष से अस्तित्व में होने के बाद भी टेलीफोन कॉल महंगी रहीं और इन तक पहुंच कम। विनियमित कीमतों के कारण तयशुदा प्रतिफल मिलने लगा और उसमें इजाफा हुआ।
कंपनियों ने नवाचार के बजाय अपने कारोबार को बचाने को प्राथमिकता दी और नई कंपनियों के लिए अवरोध खड़े किए। इंटरनेट का मामला इससे एकदम उलट रहा। वह सबसे बड़े नेटवर्क प्रभाव वाला क्षेत्र है। इसे गैर लाभकारी निजी उपक्रम के रूप में विकसित किया गया था। इसने न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप के साथ ओपन नेटवर्क को प्राथमिकता दी।
टीसीपी, आईपी जैसे खुले मानकों के साथ इसके संचालन फ्रेमवर्क में कई अंशधारक मसलन उद्योग, अकादमिया, सरकार और नागरिक समाज शामिल हैं। अंशधारकों का कोई पदानुक्रम नहीं है और सरकार सहित सभी समान स्तर पर मौजूद हैं। अपने 30 साल से अधिक के इतिहास में इंटरनेट ने कई नवाचार किए हैं। उसने डिजिटल अर्थव्यवस्था में इसकी बदौलत तेज वृद्धि आई।
एकाधिकार के बावजूद इंटरनेट ने वैश्विक अर्थव्यवस्था और सामाजिक प्रगति को गति दी है। जब कुछ अंशधारक निर्णय प्रक्रिया पर दबाव बनाते हैं तो बहु अंशधारक व्यवस्था उन्हें बेअसर करती है।
किसी नेटवर्क अर्थव्यवस्था के लिए नेटवर्क प्रभाव अनिवार्य हैं और इन संदर्भों में पारंपरिक अर्थशास्त्र विफल हो जाएगा। दूसरा, सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार खासकर उदार लोकतांत्रिक देशों में ऐसा एकाधिकार कोई हल नहीं है क्योंकि वे नवाचार और किफायती संसाधन उपयोग में पीछे रहते हैं। इससे उपभोक्ता कल्याण में कमी आती है।
सरकार संचालित नियमन एकाधिकार को रोक पाने में नाकाम रहते हैं क्योंकि वर्तमान कंपनियां नियमन को प्रभावित करने लगती हैं। सरकार के संचालन में निर्णय प्रक्रिया परिपूर्ण नहीं हो पाती क्योंकि वे अनदेखे अवसरों की समझ नहीं रखतीं। एकाधिकार रोकने के लिए नियमन जरूरी हैं लेकिन उपभोक्ता कल्याण और नवाचार भी आवश्यक है।
कहते हैं कि हर समस्या में ही उसका हल छिपा होता है। इंटरनेट का संचालन मॉडल ही नेटवर्क अर्थव्यवस्था की चुनौतियों को हल करने का वैकल्पिक मॉडल सुझाता है। इसी प्रकार सरकारें नेटवर्क अर्थव्यवस्था के उत्पादों के संचालन के लिए सांविधिक प्रणाली बना सकती हैं। उसमें सभी अंशधारक समान होंगे।
निगरानी करते हुए सरकारें सीधे हल सुझाने से बच सकती हैं। हालांकि राष्ट्रीय सुरक्षा, संप्रभुता या जनहित के मामलों को देखते हुए वे कुछ अधिकार अपने पास रख सकती हैं। ऐसा रुख न्यूनतम सरकार अधिकतम शासन के विचार के अनुरूप भी होगा और डिजिटल नेटवर्क अर्थव्यवस्था में आमूलचूल बदलाव का अवसर देगा।
(लेखक भारत के पूर्व रक्षा सचिव और आईआईटी कानपुर के विशिष्ट अतिथि प्राध्यापक हैं)