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भारत के लिए पश्चिम एशिया की सुरक्षा कितनी अहम

इजरायल-हमास युद्ध (Israel-Hamas war) की शुरुआत हुए अब सात महीने हो चुके हैं लेकिन अब भी इसका कोई अंत नहीं दिख रहा है।

Last Updated- May 03, 2024 | 11:04 PM IST
Israel-Iran

इस क्षेत्र में भारत के अपने हित भी जुड़े हैं, इसके बावजूद इसकी नीति के लक्ष्य इस क्षेत्र की दीर्घकालिक स्थिरता पर केंद्रित नहीं हैं। बता रहे हैं श्याम सरन

इजरायल-हमास युद्ध (Israel-Hamas war) की शुरुआत हुए अब सात महीने हो चुके हैं लेकिन अब भी इसका कोई अंत नहीं दिख रहा है। इसकी वजह यह है कि इजरायल के नेता बेंजामिन नेतन्याहू का राजनीतिक अस्तित्व संभवतः युद्ध की निरंतरता और इसका विस्तार क्षेत्रीय संघर्ष के रूप में होने पर निर्भर करता है।

दमिश्क में 1 अप्रैल को ईरानी वाणिज्य दूतावास पर हवाई बमबारी और इसके परिसर में मौजूद ईरान के रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स के कई वरिष्ठ अधिकारियों की हत्या ईरान के प्रतिशोध को भड़काने का एक सुनियोजित और निंदनीय प्रयास था।

हालांकि अमेरिका के हस्तक्षेप और ईरान के संयम बरतने के साथ ही हालात और बिगड़ने न देने के मकसद से नियंत्रण बनाने की कोशिश की गई। लेकिन गाजा में इजरायल की फिलिस्तीनियों पर बढ़ती बर्बरता और कब्जे वाले वेस्ट बैंक में रह रहे फिलिस्तीनियों पर इजरायल के बढ़ते हमले पर से ध्यान हट गया है।

इन क्षेत्रों में इजरायल की अवैध बस्तियों का विस्तार हो रहा है जो भविष्य में फिलिस्तीन का क्षेत्र बन सकता था। इन बस्तियों का उन्मादी विस्तार और अपने पूर्वजों की जमीन पर रहने वाले फिलिस्तीनियों का विस्थापन और उनकी जबरन निकासी जैसा मुद्दा किसी भी दो स्वतंत्र राष्ट्र वाले समाधान को असंभव बना देता है।

गाजा युद्ध के बाद इसके फिर से चर्चा में आने के बावजूद किसी तरह के संघर्ष विराम को कोई भी गंभीर विश्लेषक इसे यथार्थवादी संभावना नहीं मानेगा, खासतौर पर 7 अक्टूबर को इजरायल पर हुए हमास के आतंकवादी हमले के बाद और गाजा में पैदा हुई मानवीय संकट की स्थिति के बाद, जिसके लिए इजरायल सीधे जिम्मेदार है।

दो राष्ट्र-राज्य जैसे सिद्धांत के व्यावहारिक समाधान के लिए इजरायल और फिलिस्तीनियों के बीच जरूरी न्यूनतम पारस्परिक आत्मविश्वास और भरोसा भी खत्म हो गया है। अब 1993 के ओस्लो समझौते के दौर में वापस लौटना भी मुमकिन नहीं है जिसके तहत बेहद अलग परिस्थितियों में नतीजे की कल्पना की गई थी।

दरअसल इससे जुड़े मुख्य पक्षों, इजरायल और फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन ने पूरी गंभीरता से इसको लेकर कभी पहल नहीं की थी। फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन का नेतृत्व तब मशहूर नेता यासिर अराफात कर रहे थे।

शीत युद्ध की समाप्ति के बाद एकध्रुवीय दौर में अपनी असीमित शक्ति के बावजूद अमेरिका इस मुद्दे का कोई समाधान निकालने में विफल रहा जब इसके लिए वह समय उपयुक्त था। कोई भी रणनीतिक अवसर कभी भी बैठे बिठाए नहीं मिल सकता है जिसे अपनी इच्छानुसार चुना जा सके।

अमेरिका के नजरिये में 11 सितंबर, 2001 को हुए आतंकी हमले के बाद बदलाव आया। इसके बाद, इस्लाम विरोधी भावना व्यापक हो गई और यह अब भी बनी हुई है। ओस्लो समझौते के मुताबिक इजरायल को अपने हिस्से का योगदान देने को लेकर अब कोई दबाव नहीं है।

दो स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य के प्रस्ताव से जुड़े समाधान की बात कब की खत्म हो चुकी है। अमेरिका, अरब देशों और भारत सहित संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने वाले अंतरराष्ट्रीय समुदाय के द्वारा इसे मौजूदा संघर्ष के समाधान के रूप में पेश करना सही नहीं है, खासतौर पर इस बात से वाकिफ होते हुए कि जिन परिस्थितियों में ऐसी साहसिक और यथार्थवादी पहल की गई थी वे अब नहीं हैं।

अमेरिका को 1990 के दशक की शुरुआत में जो ताकत हासिल थी अब वैसी स्थिति नहीं है। इजरायल के साथ ही इसका मानना है कि फिलिस्तीन के मुद्दे पर एक कठिन और जटिल राजनीतिक समाधान की मांग करने के बजाय, अपने सुरक्षा प्रबंधन की बात करना भविष्य के लिए अधिक यथार्थवादी रास्ता हो सकता है।

हमने दुनिया के अन्य हिस्से में लंबे समय से चले रहे संघर्षों में इसे देखा है। दमनकारी राज्य सत्ता के उपकरणों के माध्यम से प्रबंधित होने वाले संघर्ष को राजनीतिक संघर्ष के बजाय, सुरक्षा चुनौती के रूप में देखना आसान लग सकता है, लेकिन यह अदूरदर्शिता है। जमीनी स्तर पर यही एक उपयुक्त रास्ता लग सकता है।

दूसरी ओर अरब देशों का भी इस नजरिये को बढ़ावा देने में मिलीभगत है। इजरायल ने अब तक मिस्र और जॉर्डन, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और बहरीन सहित महत्त्वपूर्ण खाड़ी और पश्चिम एशियाई देशों के साथ अपने संबंधों को लेकर कोई कीमत नहीं चुकाई है।

ऐसा तब है जब इन सभी देशों में लोग इजरायली फौजों द्वारा गाजा और वेस्ट बैंक में अपने फिलिस्तीनी भाइयों पर किए जा रहे अमानवीय हमले को लेकर काफी उत्तेजित हो रहे हैं। हालांकि भारत में फिलिस्तीनियों के प्रति सहानुभूति का भाव है और यह भारत की आजादी के बाद से ही लगातार मजबूत रहा है लेकिन अब इसे हतोत्साहित किया जा रहा है।

भारत को उम्मीद है कि यह इजरायल और अरब देशों के साथ अपने पारस्परिक लाभदायक संबंधों को सफलतापूर्वक बनाए रखने में सक्षम होगा। अब तक इसे किसी भी पक्ष को चुनने के लिए मजबूर नहीं किया गया है। पश्चिम एशिया में भारत के दांव को देखते हुए, इसकी वर्तमान नीति सबसे अनुकूल प्रतीत हो सकती है।

तेल संपदा से भरपूर देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाकर भारत अपनी ऊर्जा सुरक्षा को सुनिश्चित कर रहा है। इसके साथ ही यह इस क्षेत्र में रहने और काम करने वाले लगभग 60 लाख भारतीयों के कल्याण को भी ध्यान में रख रहा है। इससे एक विस्तारित भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए आर्थिक और व्यावसायिक मौके भी बन रहे हैं।

इजरायल के साथ मजबूत साझेदारी के चलते भारत की रक्षा क्षमता में मजबूती आ रही है और यह अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से निपटने में मददगार साबित हो रहा है। इजरायल-हमास युद्ध और फिलिस्तीनियों के लिए चीन के खुले समर्थन के बाद अब हालात ऐसे हैं कि चीन के प्रति इजरायल खुले तौर पर आक्रामक हो गया है। इसने पश्चिम एशिया क्षेत्र और उसके बाहर दोनों जगह चीन का मुकाबला करने को लेकर भारत के साथ संवाद शुरू कर दिया है।

चीन और इसकी दुनिया भर की गतिविधियों पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित करने के लिए एक नया इजरायली थिंक टैंक स्थापित किया गया है। इससे भारत के लिए इस क्षेत्र में और इससे बाहर भी मौके तैयार हो रहे हैं। भारत ने ईरान के साथ अच्छे संबंध बनाए रखे हैं लेकिन यह अमेरिका द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर ही है।

उदाहरण के तौर पर तेल खरीद मामले को ही देखा जा सकता है। हालांकि यह समय के साथ कम हो गया है। यह बात अमेरिका के प्रतिबंधों के बावजूद रूस से तेल खरीद जारी रखने और इसका विस्तार करने के संकेत से भी स्पष्ट होती है।

पश्चिम एशिया भारत के लिए रणनीतिक तौर पर अहम है। इस क्षेत्र में किसी भी तरह की राजनीतिक अशांति, सशस्त्र संघर्ष या ऊर्जा आपूर्ति में बाधा का भारत पर बड़ा प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इसमें फिलिस्तीन का जटिल मुद्दा भी शामिल है।

इस क्षेत्र के सभी प्रमुख पक्षों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखना महत्त्वपूर्ण है और भारत ने पूरी कुशलता के साथ ऐसे संबंधों पर आगे बढ़ने की पहल की है। लेकिन भारत वास्तव में इस क्षेत्र में दीर्घकालिक शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने में कोई महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालने में सक्षम नहीं रहा है जिससे इसके अपने हितों की रक्षा भी हो सकती है।

भारत ने विभिन्न देशों के साथ संतुलित दूरी और निकटता की रणनीति अपनाई है और इसका द्विपक्षीय संबंधों का एक नेटवर्क सबसे ज्यादा अहम है जो एक सुसंगत क्षेत्रीय रणनीति के लिहाज से मजबूत पक्ष है। ऐसी क्षेत्रीय रणनीति के बिना, भारत की पश्चिम एशिया नीति प्रतिक्रियावादी बनी रहेगी जो उभरती आकस्मिक परिस्थितियों से निपटने के बजाय क्षेत्र की सुरक्षा और आर्थिक ढांचे को आकार देने पर केंद्रित होगी।

(लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में मानद फेलो हैं)

First Published - May 3, 2024 | 10:00 PM IST

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