यह बात पूरी तरह स्वीकार्य है कि भारत को अपने नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने और बुनियादी ढांचे में सुधार करने के लिए बहुत भारी निवेश की आवश्यकता है।
निवेश की आवश्यकता आने वाले वर्षों में और बढ़ेगी क्योंकि बहुत बड़ी तादाद में लोग शहरी इलाकों का रुख करेंगे और शहरीकरण की प्रक्रिया भी तेज होगी। एक अनुमान के मुताबिक 2019 से 2035 के बीच दुनिया में जो 20 सबसे तेजी से विकसित होने वाले शहर होंगे उनमें से 17 भारत के होंगे। यह एक बहुत बड़ा अवसर है। बढ़ता शहरीकरण दीर्घकालिक आर्थिक वृद्धि का टिकाऊ जरिया बन सकता है।
शहरी इलाकों में कम निवेश की एक बड़ी वजह है नगर निकायों में संसाधनों की अत्यंत सीमित उपलब्धता। बहरहाल, सही नीतिगत हस्तक्षेप से हालात को बदला जा सकता है। जैसा कि इस समाचार पत्र ने सोमवार को एक रिपोर्ट में लिखा, केंद्र सरकार म्युनिसिपल बॉन्ड पर काफी अधिक जोर दे रही है।
सरकार ने अच्छी रेटिंग वाले 30 शहरों को चिह्नित किया है। सूरत और विशाखापत्तनम से भी आशा है कि वे जल्दी ही बॉन्ड बाजार का रुख करेंगे। बड़े शहरों की बात करें तो चेन्नई इस वर्ष बॉन्ड बाजार से पैसे जुटा सकता है। चिह्नित शहरों के नगर निकायों के बारे में जानकारी है कि वे ज्यादातर काम कर चुके हैं या वैसा करने की कोशिश कर रहे हैं। वे संपत्ति कर को तार्किक बना रहे हैं और बही खातों को दुरुस्त कर रहे हैं। वे राजस्व जुटाने वाली परियोजनाओं की भी पहचान कर रहे हैं।
उदाहरण के लिए सूरत और विशाखापत्तनम मौजूदा परियोजनाओं का विस्तार करके निश्चित राजस्व तैयार करके फंड जुटाने की योजना बना रहे हैं। ऐसा लगता नहीं है कि इन बॉन्ड इश्यूज को किसी कठिनाई का सामना करना होगा। व्यापक स्तर पर देखें तो जहां केंद्र सरकार की सराहना की जानी चाहिए कि वह म्युनिसिपल बॉन्ड बाजार के दायरे और उसकी गहराई का विस्तार करने का प्रयास कर रही है और साथ ही जी20 के एजेंडे में टिकाऊ शहरी बुनियादी ढांचे को धन मुहैया कराने को भी आगे बढ़ा रही है। हालांकि ये अभी शुरुआती कदम हैं और काफी कुछ और करने की आवश्यकता है।
म्युनिसिपल बॉन्ड के जरिये धन जुटाने पर ध्यान इसलिए भी नहीं जा रहा है कि सार्वजनिक पटल पर इसे लेकर अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। भारतीय रिजर्व बैंक ने नगर निकायों से संबंधित आंकड़ों को एकत्रित किया और 2022 में अपनी तरह की पहली रिपोर्ट प्रकाशित की जो अच्छी बात है। वह इसे सालाना कार्यक्रम बनाना चाहता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि रिजर्व बैंक के आम सरकारी कर्ज के आकलन में केंद्र और राज्यों के कर्ज का हिसाब रखा जाता है। वह स्थानीय निकायों को बाहर रखता है क्योंकि उनके समेकित आंकड़े उपलब्ध नहीं होते। अब केंद्रीय बैंक इस अंतर को पाटना चाहता है जिससे सरकार की वित्तीय स्थिति को लेकर बेहतर तस्वीर सामने आएगी। रिजर्व बैंक के सैंपल में 201 नगर निकायों को शामिल किया गया जिससे पता चला कि 2017-18 में कर राजस्व प्राप्तियां सकल घरेलू उत्पाद की केवल 0.61 फीसदी थीं जबकि अनुमान था कि 2019 तक ये बढ़कर 0.72 फीसदी तक हो जाएंगी। नगर निगम सरकार के अन्य दो स्तरों से मिलने वाले अनुदान पर बहुत हद तक निर्भर करते हैं। स्थानीय निकायों को संवैधानिक समर्थन के बावजूद कुल राजस्व संग्रह में कोई खास बदलाव नहीं आया है।
नगर निकायों की आर्थिकी से जुड़ा एक और पहलू यह है कि उनकी संयुक्त उधारी सकल घरेलू उत्पाद की करीब 0.05 फीसदी है। इससे बाजार से फंड जुटाने की गुंजाइश बढ़ जाती है। बहरहाल, यह बात ध्यान दी जानी चाहिए कि कर्ज बढ़ाने के कुछ संभावित खतरे भी हैं। नगर निकायों को सुधार की जरूरत है और साथ ही राजस्व के सही स्रोतों की आवश्यकता है ताकि कर्ज अदायगी समय पर हो। कुल मिलाकर जहां बड़ी तादाद में नगर निकाय प्रतिभूति बाजार नियामक द्वारा तय शर्तों का पालन नहीं करते, वहीं समुचित सुधार के साथ बॉन्ड बाजार में भागीदारी बढ़ाना निश्चित रूप से शहरी भारत के निर्माण में मददगार साबित होगा।