मैरिएट पिंटो तटवर्ती कर्नाटक के मंगलूर की रहने वाली हैं। वह 2005 में पीएसीएल (पूर्व में पर्ल एग्रोटेक) की योजनाओं से जुड़ी थीं। दिसंबर 2007 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद निवासी छैलबिहारी से 15,000 रुपये में राजस्थान की किसी जगह 1,001 वर्ग गज भूमि खरीदी थी। पिंटो और छैलबिहारी दोनों दिल्ली में मौजूद नहीं थे जहां इस सौदे के कागजात पर दस्तखत किए गए। नोएडा में रहने वाले पीएसीएल के वरिष्ठï सहायक अधिकारी सुरेश सिन्हा के पास पिंटू की पावर ऑफ अटॉर्नी थी जबकि छैलबिहारी के बदले किसी मनोज कुमार ने सौदे पर दस्तखत किए। कुमार ने तमिलनाडु के पेराम्बलूर निवासी रजीना बेगम को भी 15,000 रुपये में मध्य प्रदेश में 0.084 एकड़ भूखंड खरीदने में मदद की। पिंटो और बेगम पीएसीएल के उन 19,284 ग्राहकों में शामिल हैं जिन्होंने अपने नाम भूखंड पंजीकृत करवाया। इसके अलावा, पीएसीएल के 1.2 करोड़ से अधिक ग्राहकों को भूखंड तो आवंटित किया गया लेकिन सेल डीड नहीं बनाई गई। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) को 11 अगस्त को दिए गए बयान के अनुसार, उसके 4.63 करोड़ ग्राहकों को अभी तक भूखंड आवंटित नहीं किया गया है। इसके 11 दिन बाद सेबी के पूर्णकालिक सदस्य प्रशांत सरन ने पीएसीएल से परिचालन बंद करने और तीन महीने के भीतर निवेशकों का पैसा लौटाने के लिए कहा। इस मामले में निवेशकों को करीब 49,100 करोड़ रुपये लौटाने हैं और यह रकम सहारा समूह द्वारा निवेशकों के 24,000 करोड़ रुपये के बकाये के मुकाबले दोगुनी है। कंपनी ने ईमेल के जरिये बिजनेस स्टैंडर्ड की ओर से भेजी प्रश्नावली का कोई जवाब नहीं दिया। हालांकि जांच की खबर आने के बाद पीएसीएल के ग्रुप सीईओ ज्योति नारायण ने जुलाई में कहा था कि यह कंपनी एक रियल एस्टेट डेवलपर है और निवेशकों द्वारा जमा कराई गई रकम को दोगुना या तिगुना करने संबंधी किसी सामूहिक निवेश योजना से उसका कोई ताल्लुक नहीं है। लेकिन निवेशकों को पैसा लौटाने के लिए कहे जाने के बाद पीएसीएल के अधिकारी टेलीविजन चैनलों पर बोल रहे थे कि कंपनी सेबी के आदेश के खिलाफ प्रतिभूति अपील न्यायाधिकरण (सैट) में अपील करने की योजना बना रही है। उन्होंने कहा था कि किसी भी सूरत में निवेशकों के हितों की रक्षा की जाएगी। पीएसीएल ने ग्राहकों को भूखंड खरीदने के लिए दो प्रमुख योजनाओं की पेशकश की थी: नकद भुगतान योजना और किस्तों में भुगतान की योजना। पीएसीएल का कहना है कि वह निवेशकों से गैरविकसित क्षेत्र के भूखंड में निवेश की पेशकश करती है। उसके बाद कंपनी उन भूखंडों को विकसित करती है। विकसित भूमि की कीमत बढ़ जाने पर पीएसीएल ग्राहक को उसे हासिल करने में मदद करती है। यदि कोई ग्राहक भूखंड को कब्जे में न लेकर उसे बेचना चाहता है तो कंपनी उसे बेचने का विकल्प मुहैया कराती है। आमतौर पर पीएसीएल के अधिकांश ग्राहक इसी विकल्प को चुनते हैं और इसलिए बाजार नियामक ने इसे सामूहिक रकम जुटाने की योजना करार दिया है। सेबी ने कुसुमलता अग्रहरि (500 ग्राहकों के नमूने में से एक) के मामले पर गौर करने के बाद पाया कि ग्राहक को आवंटन पत्र जारी होने से पहले तक भूखंड की जगह के बारे में जानकारी नहीं दी गई थी। कुसुमलता के मामले में आवंटन चार साल बाद किया गया था। इतना ही नहीं, बल्कि यह भी देखा गया कि भूखंड के अवंटन के बाद भी पीएसीएल चाहे तो उसकी जगह में बदलाव कर सकती थी। भूखंड आवंटन पत्र में भी कहा गया था कि मूल टाइटल डीड पीएसीएल के पास रहेगी और ग्राहकों को केवल सेल डीड की प्रमाणित प्रति दी जाएगी। उस पत्र के एक अन्य महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद में कहा गया था कि भूमि की जगह में बदलाव करने और किसी अन्य जगह भूखंड आवंटित करने का अधिकार पीएसीएल के पास सुरक्षित है। सरन ने अपने आदेश में कहा, 'रियल एस्टेट क्षेत्र के विशुद्ध लेनदेन में इस प्रकार के अधिकारों को कभी नहीं देखा गया। भूखंड की जगह में बदलाव का अधिकार पीएसीएल के पास होने का मतलब है कि ग्राहकों को निर्धारित रिटर्न के साथ बाहर निकलने के लिए मजबूर करना। ऐसे में ग्राहकों को भूखंड बरकरार रखने की इजाजत नहीं दी गई है जिसके लिए उसने भुगतान किया है।' इस मामले का एक जटिल पहलू है भूमि पर कब्जा जैसा कंपनी दावा करती है। उसने 2005-06 और 2011-12 के बीच 3,03,000 एकड़ से अधिक भूमि खरीदी। हालांकि कंपनी ने अपने नाम पर केवल 17 फीसदी यानी करीब 53,890 एकड़ भूमि ही खरीदी। जबकि सबसे अधिक 70 फीसदी यानी करीब 2,14,000 एकड़ भूमि जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी के जरिये हासिल की गई और शेष भूमि की खरीद सहायक कंपनियों के जरिये की गई। पीएसीएल ने सेबी को भेजे अपने जवाब में इन सहायक कंपनियों का खुलासा किया है जो उसके प्रबंधन या मित्रों के नियंत्रण मेंं हैं। कई मामलों में देखा गया कि सहायक कंपनियों का संचालन पीएसीएल के उन एजेंटों द्वारा किया जा रहा था जो कारोबार में अच्छे मुकाम तक पहुंच चुके थे। इस मामले से अवगत लोगों के अनुसार, पीएसीएल ने 12 रैंकों के आधार पर अपने 33 लाख ग्राहकों को पदानुक्रम में रखा है। 12 रैंक वाला एजेंट सबसे ऊंचे स्तर पर होता है और उसके नीचे 60 से 70 हजार एजेंट होते हैं। इन बड़े एजेंटों को उनके द्वारा जुटाई गई रकम के अनुसार भूमि रखने का अधिकार दिया गया है। पीएसीएल अपने एजेंटों को अच्छा भुगतान करती है। सेबी ने पाया कि जुटाई गई कुल रकम में से करीब 20 फीसदी रकम का इस्तेमाल एजेंटों के भुगतान में किया जाता है। बाजार नियामक के अनुसार, पीएसीएल अपने एजेंटों को बतौर कमीशन अब तक 8,500 करोड़ रुपये से अधिक का भुगतान कर चुकी है। पीएसीएल के बहीखाते में दर्ज कई हजार करोड़ रुपये के लिए विवाद अब भी जारी है। क्या ग्राहकों के भुगतान के लिए पीएसीएल के पास पर्याप्त भूमि बैंक मौजूद है? हालांकि पीएसीएल ने दिल्ली, चंडीगढ़ और लुधियाना जैसे शहरों में वाणिज्यिक और रिहायशी संपत्तियों को विकसित किया है लेकिन उसके भूमि बैंक का एक बड़ा हिस्सा गैरविकसित इलाकों में हैं जैसे राजस्थान में भारत-पाकिस्तान की सीमा के समीप दूरदराज के क्षेत्रों में। सेबी को सौंपी अपनी पांच वर्षीय रिफंड योजना में कंपनी ने कहा है कि उसके पास करीब 11,706.96 करोड़ रुपये मूल्य की भूमि है जिसमें कृषि योग्य भूमि की कीमत करीब 7,322.11 करोड़ रुपये है जबकि वाणिज्यिक भूमि की कीमत करीब 4,384.84 करोड़ रुपये है। इससे न केवल 4.63 करोड़ ग्राहकों की जमा 29,420 करोड़ रुपये की रकम लौटाई जा सकती है बल्कि उन 1.22 करोड़ ग्राहकों को भी संतुष्टï किया जा सकता है जिन्हें भूमि तो आवंटित कर दी गई है लेकिन सेल डीड नहीं बनाई गई है। सेबी के आदेश में कहा गया है, 'पीएसीएल ने उन भूखंडों की विस्तृत जानकारी नहीं दी है जिन पर दावा किया गया है। इस पर गौर करने से उसका प्रस्ताव गंभीर और उचित नहीं दिखता है।' पिंटू जैसे लोगों को भूमि आवंटित होने के बावजूद कब्जा नहीं दिया गया। सेबी को कंपनी के दावों में कई खामियां दिखीं। नियामक ने कहा कि बिक्रेताओं द्वारा भूमि खरीद की तिथि और सेल डीड की तिथि काफी करीब पाई गईं। सरन ने 22 अगस्त को जारी अपने आदेश में कहा है, 'उदाहरण के लिए, पिंटू के मामले में भूमि की खरीद 18 जून 2007 को हुई थी और महज छह महीने बाद यानी 8 दिसंबर 2007 को उसे ग्राहक के नाम कर दिया गया था। इससे पता चलता है कि पीएसीएल ने भूमि खरीदने के लिए रकम जुटाई और उस भूमि के विकास के लिए उसने कुछ भी नहीं किया।' साथ ही, पिंटो का 1,001 वर्ग गज का भूखंड 140 बीघा के बड़े भूखंड का हिस्सा है, जबकि बेगम का 0.084 हेक्टेयर का भूखंड 5.016 हेक्टेयर के भूखंड का हिस्सा है। इस प्रकार पीएसीएल ने अपने ग्राहकों को बड़े भूखंड का एक छोटा हिस्सा दिया जिसकी खसरा संख्या एक ही था। सरन ने कहा है, 'निर्धारित संपत्ति में केवल उसकी चौहदी और क्रम संख्या दी गई है। इससे यह स्पष्टï नहीं होता है कि वास्तव में ग्राहक को कौन सा प्लॉट दिया गया है। सेल डीड में उस भूखंड का कोई नक्शा या अन्य पहचान चिह्नïों का उल्लेख नहीं किया गया है। ये बातें पीएसीएल की ओर से दी सौंपी गई जानकारी के विपरीत है जिसमें कहा गया है कि सेल डीड में प्लॉट का उचित उल्लेख किया गया है।' सेबी ने सबसे पहले 1983 में पीएसीएल और उसी समूह की कंपनी पीजीएफ सहित सामूहिक निवेश योजनाओं पर अंकुश लगाया था। पीएसीएल और पीजीएफ दोनों निर्मल सिंह भांगू द्वारा प्रवर्तित कंपनियां हैं। पीजीएफ अपेक्षाकृत अधिक पुरानी और बड़ी कंपनी थी। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा सेबी के आदेश को बरकरार रखे जाने पर इसने घुटने टेक दिया। जबकि पीएसीएल राजस्थान उच्च न्यायालय को यह समझाने में सफल रही कि वह कोई सामूहिक निवेश योजना नहीं चला रही थी। उसके बाद एक लंबा अरसा गुजर जाने के बाद सेबी ने उसके खिलाफ कोई कार्रवाई की है। बिडंबना है कि पीएसीएल जैसी कंपनियां सेबी के दिशानिर्देशों की खामियों का फायदा उठाकर फल-फूल रही हैं। सेबी की इस पहल को धर्मवीर सिंह के नेतृत्व में ग्वालियर के कुछ लोगों द्वारा 2011 में दायर जनहित याचिका से काफी मदद मिली है। याचिका में विभिन्न योजनाओं का हवाला देते हुए शिकायत की गई थी कि लोगों से लुभावने वादे के साथ रकम जुटाई जा रही है। इस पर मार्च 2011 में न्यायालय ने सरकार को कार्रवाई रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया। इसके बाद मई से जून 2011 में ग्वालियर के कलेक्टर द्वारा कई आदेश जारी किए गए और छापे मारे गए। इसके तहत पीएसीएल सहित कई कंपनियों के दफ्तरों में छापा मारा गया और उन्हें सील कर दिया गया। इससे पीएसीएल मीडिया की सुर्खियों में आ गई। कंपनी के वास्तविक आकार और परिचालन संबंधी जानकारी सुर्खियों में तब आई जब खबरें आ रही थीं कि उसका भूमि बैंक बेंगलूर शहर से भी बड़ा है। इससे सेबी को सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का मौका मिला। अंतत: फरवरी 2013 में एक अपील याचिका पर हुई सुनवाई में सेबी की जीत हुई जिसके तहत उसने पीएसीएल को सामूहिक निवेश योजना कानून के दायरे में लाने की कोशिश की। इससे कंपनी और बाजार नियामक के बीच 18 महीने की लंबी लड़ाई छिड़ गई। सेबी द्वारा निजी तौर पर सुनवाई करने से बार-बार इनकार किए जाने, दस्तावेजों की जांच, सुनवाई की तिथियों में बदलाव, वकीलों की गैरमौजूदगी और कुछ गवाहों के बीमार पडऩे से यह मामला लंबा खिंचता गया। सेबी ने 22 अगस्त को अपना आदेश जारी करने से पहले कंपनी और उसके निदेशकों को ये सारे मौके दिए। बहरहाल, इस मामले पर गौर करने से लगता है कि बाजार नियामक और पिंटो जैसे निवेशकों के साथ लड़ाई और लंबी खिंच सकती है क्योंकि पीएसीएल सबसे पहले प्रतिभूति एवं अपीलीय न्यायाधिकरण में सेबी के आदेश को चुनौती दे सकती है और उसके बाद मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच सकता है।
