प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सेंट्रल विस्टा में जो बदलाव करा रहे हैं उसकी काफी आलोचना की जा रही है और कहा जा रहा है कि यह भी हमारे गणराज्य और 2014 के पहले के अतीत के प्रतीकों में बदलाव के उनके एजेंडे का ही हिस्सा है। हमें इस धारणा पर पुनर्विचार करना होगा कि राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्यपथ कर देना महज प्रतीकात्मक कदम है। बल्कि यह पूरी तरह राजनीतिक कदम है। वर्षों से और खासकर 2019 में मोदी की दोबारा जीत के बाद से उनके आलोचक इस बात से खीझते रहते हैं कि मोदी पर कोई भी आरोप टिकता नहीं है।मैं इससे पहले भी एक बार इस बात का जिक्र कर चुका हूं कि अमेरिकी मुहावरे का प्रयोग करें तो मोदी को टेफ्लॉन कोटेड कहा जा सकता है। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि मोदी टाइटेनियम जैसी सख्त धातु से बने हैं। नए सेंट्रल विस्टा की आलोचना में बहुत दम नहीं है। क्योंकि इससे पहले नोटबंदी, कोविड कुप्रबंधन, आर्थिक वृद्धि में पांच वर्ष तक ठहराव जैसी बातें भी उनकी छवि को धक्का नहीं पहुंचा सकीं। अगर आप मोदी विरोधी हैं तो उनका मुकाबला रखने की कोई उम्मीद रखने के लिए आपको समझना होगा कि वह कहां से आते हैं। पहली बात, वह वहां से नहीं आते जहां से उनके सर्वाधिक मुखर आलोचक आते हैं। वह किसी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक या बौद्धिक शक्ति वाली पृष्ठभूमि से नहीं आते। उनके सीवी में किसी बड़े स्कूल या कॉलेज का जिक्र नहीं है, कोई विशिष्ट विरासत नहीं है, किसी लेखकीय रचना या छात्रवृत्ति का जिक्र भी नहीं है।मोदी को नापसंद करने वाले जिस बात को परवरिश के रूप में देखते हैं उसकी भरपाई वे इस रूप में करते हैं कि वह भारत पर शासन करने वाले शायद सर्वाधिक पूर्णकालिक राजनेता हैं। यह दावा करना कठिन है और कई लोग उनकी इस बात से असहमत भी होंगे। लेकिन अगर आप हमारे पिछले सभी प्रधानमंत्रियों के प्रदर्शन पर नजर डालें तो आप केवल इंदिरा गांधी को उनके करीब रख पाएंगे। हालांकि हम दलील दे सकते हैं कि मोदी उनसे भी अधिक सक्रिय राजनेता हैं। अपने कई कदमों और सत्ता के व्यवहार को लेकर अपने रुख में वह इंदिरा गांधी जैसे नजर आते हैं। हमें नहीं पता कि उन्होंने कभी उनके तौर तरीकों का अध्ययन किया है या फिर क्या वह उनसे प्रेरणा लेते हैं लेकिन यह बात ध्यान रहे कि नेहरू-गांधी परिवार में वह सबसे कम हमलावर इंदिरा गांधी पर ही रहते हैं।यहां तक कि आपातकाल पर हमला करते हुए भी वह वंशवाद का जिक्र करते हैं, इंदिरा गांधी का नहीं। नेहरू, राजीव, सोनिया, राहुल आदि हमेशा उनके निशाने पर रहते हैं। वह कभी इंदिरा गांधी के खिलाफ बोलते हुए नहीं नजर आते। ऐसे में एक कल्पना यह की जा सकती है कि शायद उन्होंने इंदिरा गांधी की शासन शैली का करीबी अध्ययन किया हो और सत्ता तथा शासन की उनकी शैली के प्रशंसक हों। राजपथ का सौंदर्यीकरण कर उसका नाम कर्तव्यपथ रखना इसकी पुष्टि करता है। आइए समझते हैं कैसे। मोदी ने कर्तव्यपथ नाम रखने का निर्णय क्यों लिया जबकि हम सभी जानते और मानते हैं कि एक संवैधानिक लोकतंत्र में यह राज्य या सरकार का दायित्व है कि वह नागरिकों के अधिकारों के बारे में विचार करे। कर्तव्य पर जोर देना दरअसल गेंद को नागरिकों के पाले में डाल देता है। भले ही जॉन एफ केनेडी ने बतौर अमेरिकी राष्ट्रपति अपने कार्यकाल में इस जुमले को अमर कर दिया हो कि ‘यह मत पूछो कि तुमने देश के लिए क्या किया…’ लेकिन यह केवल एक आकर्षक मुहावरा था। परंतु मोदी के मामले में यह उनकी राजनीति के केंद्र में है। अगर उनके आलोचकों ने इस बात पर ध्यान दिया होता कि सत्ता में आने के बाद से और खासकर दोबारा चुनाव जीतने के बाद से वह क्या कुछ लिखते और कहते रहे हैं तो उन्होंने देखा होता कि कैसे उनका जोर अधिकारों से कर्तव्यों की ओर बढ़ा है। दो अक्टूबर, 2019 को महात्मा गांधी की वर्षगांठ के अवसर पर उन्होंने न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखे लेख में अपनी बात एकदम साफ कर दी थी। इन पंक्तियों पर गौर कीजिए:‘जब दुनिया ने अधिकारों की बात की तो गांधी ने कर्तव्यों पर जोर दिया। उन्होंने यंग इंडिया में लिखा: कर्तव्य अधिकारों का वास्तविक स्रोत है। अगर हम सभी अपने कर्तव्यों को पूरा करें तो अधिकार चाहने की जरूरत ही नहीं होगी।’ इसके बाद मोदी ने गांधी द्वारा हरिजन में लिखी बात का हवाला दिया: ‘जो व्यक्ति अपने कर्तव्यों को भलीभांति पूरा करता है उसके पास अधिकार स्वत: आ जाते हैं।’यहां तीन बातें हैं। पहली बात, गांधी को शायद इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्यपथ कर दिया गया। दूसरी बात, यह प्रेरणा सीधे श्रीमती गांधी से ली गई है और हम बताएंगे कैसे। तीसरी बात, उनके अधिकांश आलोचक उनसे इतने अधिक नाराज हैं कि वे शायद उनकी लिखी बातों पर भी ध्यान न दें। चाहे उन्होंने न्यूयॉर्क टाइम्स में ही क्यों न लिखा हो। इस बात के महज सात सप्ताह बाद संविधान दिवस के अवसर पर संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए उन्होंने फिर कहा, ‘अधिकार और जिम्मेदारियां साथ-साथ चलती हैं। महात्मा गांधी ने इस बात को अच्छे से समझाया था। इस बात पर विचार करें कि हम अपने संविधान में उल्लिखित कर्तव्यों का पालन कैसे कर सकते हैं।’ निश्चित तौर पर कोई उन्हें यह याद दिलाने का साहस नहीं करेगा कि वह जिन कर्तव्यों की बात कर रहे हैं उन्हें आपातकाल के दौरान लोकसभा के अवैध छठे वर्ष में शामिल किया गया था। आपको लगता है कि कांग्रेस यह साहस करेगी? सरकार के कर्तव्यों की जगह नागरिक के कर्तव्यों की बात कहकर मोदी सारा दारोमदार नागरिकों पर डालना चाह रहे हैं। वह ऐसा करके संवैधानिक राज्य की परिभाषा भी बदल रहे हैं। वह महात्मा गांधी की तरह यह कह रहे हैं कि कर्तव्य के साथ अधिकार स्वयं आ जाएंगे।इस बात को बेहतर ढंग से समझने के लिए आपको संविधान का 42वां संशोधन गूगल करना होगा। इसे इंदिरा गांधी ने 1 सितंबर, 1976 को अंजाम दिया था जो एक छठे वर्ष में चल रही एक अवैध लोकसभा का कार्यकाल था। आपातकाल के दौरान इसकी अवधि बढ़ाई गई थी। हम दशकों से यही बात करते आ रहे हैं कि इस संशोधन के जरिये संविधान की उद्देशिका में समाजवादी और पंथ निरपेक्ष शब्द जोड़े गए थे। जबकि हम सभी जानते हैं कि हम बहुत पहले से समाजवादी और पंथ निरपेक्ष हैं। असली बात कहीं और थी। बयालीसवें संशोधन को मिनी संविधान कहने की एक वजह है। इसमें 48 प्रमुख अनुच्छेदों और सातवीं अनुसूची को संशोधित करने का प्रयास किया गया। इसके अलावा इसमें चार अनुच्छेदों को प्रतिस्थापित करने तथा 13 अनुच्छेदों में नए उपखंड जोड़ने का प्रयास किया गया। लब्बोलुआब यह कि इसने भारत को विकेंद्रीकृत शासन व्यवस्था से संसद की संप्रभुता की व्यवस्था की ओर उन्मुख किया, पारित कानूनों की कानूनी निगरानी समाप्त की और प्रधानमंत्री को असीमित संप्रभु अधिकार दिए। जनता सरकार ने 43वें और 44वें संशोधन के जरिये इनमें से काफी बातों को समाप्त कर दिया। मिनर्वा मिल मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ को समाप्त किया। न्यायमूर्ति वाई वी चंद्रचूड ने अपने आदेश में लिखा, ‘संविधान में केवल तीन अनुच्छेद ऐसे हैं जो स्वाधीनता के उस स्वर्ग जिसमें टैगोर अपने देश को जागते देखना चाहते थे और निरंकुश सत्ता के बीच की दीवार हैं।’हम जानते हैं कि उद्देशिका में किए गए बदलाव को रद्द नहीं किया गया। नागरिक कर्तव्यों वाले अनुच्छेद को भी रहने दिया गया। शायद उसे निरापद माना गया। यानी कर्तव्यों को अधिकारों पर तवज्जो देने का मूल विचार इंदिरा गांधी का था और उसे बना रहने दिया गया। आज मोदी उसे राजनीतिक पूंजी के रूप में इस्तेमाल करना चाह रहे हैं।अगर मोदी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी उनके कदमों पर नजर रखते तो उन्हें मोदी की वह बात पता होती जिसके बारे में आप नहीं सुनते। वह बात यह है कि मोदी के कदमों का अनुमान लगाया जा सकता है। क्योंकि तब आपको दो बातें पता होतीं। पहली, यह कि वह कहां से आते हैं और दूसरी इस कर्तव्य पथ पर वह भारतीय नागरिकों को कहां ले जा रहे हैं।
