विदेश मंत्रालय की ओर से जारी हो रहे उत्साहवर्धक वक्तव्यों और एक के बाद एक खींची जा रही तस्वीरों से इतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीन देशों जर्मनी, डेनमार्क और फ्रांस की तीन दिवसीय यात्रा भारत और यूरोप के बीच भूराजनीतिक प्राथमिकताओं में अहम बदलाव और सामरिक समाभिरूपता को भी प्रदर्शित करती है। रूस-यूक्रेन संकट ने इन बदलावों को गति प्रदान की है और यह भारत के दीर्घावधि के सामरिक आकलन के भी अनुरूप है। अमेरिका और यूरोप, रूस-यूक्रेन संघर्ष में भारत के निरपेक्ष रवैये को लेकर असहज थे। मोदी की यात्रा से यही संकेत निकलता है कि यूरोपीय संघ ने मोटे तौर पर भारत और रूस के बीच संबंधों के सामरिक विरासत वाले पहलू को समझा है, खासतौर पर रक्षा संबंधी रिश्तों को। उन्हें यह भी समझ में आया है कि भारत का रुख ऐसा क्यों रहा है। जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्ज ने प्रधानमंत्री मोदी को अगले महीने होने वाली जी7 बैठक में शामिल होने का औपचारिक निमंत्रण दिया और यह बात दोनों देशों की उभरती समझ की ओर इशारा करती है। जर्मनी के साथ भारत के करीबी रिश्तों में सतत विकास पर केंद्रित द्विपक्षीय रिश्ते और स्वच्छ ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए 10 अरब यूरो की सहायता देना शामिल है। इन बातों से पता चलता है यूरोप और भारत का भूराजनीतिक नजरिया अंत:संबद्ध है और वह नये सिरे से तय हो रहा है। जर्मनी ने यूरोप के रक्षा और सुरक्षा संबंधी मामलों में अपनी अब तक की अपेक्षाकृत मद्धम भूमिका को त्यागने और यूक्रेन को रक्षा उपकरणों की आपूर्ति करते हुए जो शीर्ष भूमिका अपनाने का प्रयास किया है वह उसकी ऐतिहासिक नीति से प्रस्थान को दर्शाता है। वह अतीत में रूस के साथ राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से संबद्ध रहा है। इन घटनाओं के कारण यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी और चीन के बीच के मजबूत रिश्तों में ठंडापन आया है क्योंकि चीन रूस के साथ है। ध्यान रहे कि चीन जर्मनी के वाहनों और इंजीनियरिंग वस्तुओं का बहुत बड़ा बाजार है। चूंकि ऐसी गहरी आर्थिक निर्भरता को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है इसलिए चीन और यूरोप के रिश्तों में भी तब्दीली आई है। यूरोपीय संघ द्वारा सामरिक प्राथमिकताओं को दोबारा समायोजित करने का अर्थ यह भी है कि अमेरिका के साथ चीन नीति को लेकर चल रहे मतभेद कम हुए हैं। इस संदर्भ में अमेरिका और यूरोपीय संघ द्वारा हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर नये सिरे से ध्यान दिया जाना भारत की व्यापक आर्थिक प्राथमिकताओं मसलन नवीकरणीय ऊर्जा की ओर बदलाव, मोदी द्वारा उत्तरी यूरोप के देशों के साथ वार्ता तथा चीन के साथ राजनीतिक तनाव की दृष्टि से भी अहम होगा। कुल मिलाकर यूरोप में भारत की सामरिक और कूटनीतिक अहमियत का बढऩा भारत-अमेरिका साझेदारी का अहम पूरक है और यह ऐसे समय में हुआ है जब भारत और रूस के रिश्तों में कमजोरी आ रही है। यह प्रक्रिया आंशिक रूप से भूराजनीतिक हकीकतों से संचालित रही है। साथ ही रूस चीन के करीब रहा है और पाकिस्तान और अफगानिस्तान को लेकर भारत के साथ मतभेद रहे हैं। भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान भी धीरे-धीरे रूसी तकनीक और हथियारों पर अपनी निर्भरता कम कर रहा है। रूस-यूक्रेन संकट इसे और तेज करेगा। मोदी की यूरोप यात्रा के दौरान यूरोपीय रक्षा उपकरणों की भारत को बिक्री तथा संभावित संयुक्त उपक्रमों को लेकर भी बातचीत हुई। ऐसी चर्चा चल रही है कि भारत नौसेना के लिए फ्रांस से अतिरिक्त राफेल लड़ाकू विमान खरीद सकता है। इस यात्रा का एक निष्कर्ष और भारत-यूरोप रिश्तों में बदलाव का एक और उदाहरण है व्यापक यूरोपीय संघ-भारत व्यापार सौदे के पुनरुत्थान का प्रयास। लंबे समय से लंबित यह व्यापार समझौता तकनीकी आपत्तियों की भेंट चढ़ गया। प्रधानमंत्री की हाई-प्रोफाइल यूरोप यात्रा के पहले यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सूला वॉन डेर लियेन भारत आई थीं। इससे संकेत मिलता है कि इस समझौते को जरूरी राजनीतिक प्रोत्साहन मिलेगा। भारत के लिए यह एक बड़ा कदम होगा।
