भारतीय प्रशासनिक सेवा नहीं भारतीय अधिकार सेवा कहें | सम सामयिक | | टीसीए श्रीनिवास-राघवन / April 28, 2022 | | | | |
राज्य सभा की एक स्थायी समिति चाहती है कि सरकार ज्यादा आईएएस अधिकारियों की भर्ती करे। यह सिफारिश इसकी 112वीं रिपोर्ट के पैराग्राफ 3.6 में की गई है। इस पैराग्राफ में जो कहा गया है, उसे मैं पूरी तरह उद्धृत कर रहा हूं। '3.6 समिति ने पाया है कि देश में 1,500 से अधिक आईएएस अधिकारियों की भारी-भरकम कमी है। आईएएस अधिकारियों के स्वीकृत पदों और वास्तविक संख्या के बीच अंतर उत्तर प्रदेश कैडर में 104, बिहार कैडर में 94 और एजीएमयूटी कैडर में 87 तक है। समिति का मानना है कि शायद अफसरों की कमी के कारण राज्यों को गैर-कैडर अधिकारियों को कैडर पदों पर नियुक्त करने, उन्हें इन पदों पर स्वीकृत समयसीमा से ज्यादा अवधि तक बनाए रखने और सेवारत अधिकारियों को बहुत से प्रभार देने जैसे अनेक तरीकों का सहारा लेना पड़ रहा है। समिति का मानना है कि ऐसे उपायों से प्रशासन की कार्यकुशलता कमजोर होगी। इसलिए समिति डीओपीटी (कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग) से सिफारिश करती है कि भारतीय प्रशासन की बदलती जरूरतों को मद्देनजर रखते हुए आईएएस अधिकारियों की सालाना भर्ती में अहम बढ़ोतरी की जाए।'
इस पैराग्राफ का कारण यह है कि गैर-आईएएस अधिकारियों को कैडर पदों पर नियुक्त किया जा रहा है, जो 1954 के आईएएस कैडर नियमों का उल्लंघन है। ये नियम प्रशासनिक हैं जो जाति आधारित आरक्षण के समान हैं। यही वजह है कि आईएएस को सबसे अच्छी नौकरी मिलती है, जबकि इसके ज्यादातर सदस्य शायद नियोजन के योग्य ही नहीं हैं। फिर भी व्यवस्था ने खुद को कायम रखा है क्योंकि सभी सुधारों में से प्रशासनिक सुधार सबसे ज्यादा कठिन हैं। यही वजह है कि बहुत से आईएएस अधिकारी खुद की सेवा के बजाय हर चीज में सुधार लाना चाहते हैं।
जो राजनेता सुधार की कोशिश करते हैं, वे अगला चुनाव हार जाते हैं। ऐसा पिछले 30 साल में तीन बार हो चुका है। यह सभी राजनीतिक दलों को चेतावनी के लिए पर्याप्त है। ऐसा पहली बार उस समय हुआ, जब हिमाचल प्रदेश में शांता कुमार ने राज्य सरकार के कर्मचारियों पर नकेल कसने की कोशिश की तो वह राज्य में चुनाव हार गए। दूसरी बार तब, जब जयललिता ने तमिलनाडु में यही चीज करने की कोशिश की। उन्होंने करीब एक लाख हड़ताली सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया था। तीसरी बार उस समय जब चंद्रबाबू ने उन पर सख्ती की। वह केवल इतना चाहते थे कि वे सुबह 9.30 बजे कार्यालय पहुंचें और शाम 5.30 बजे निकलें। वह अगले चुनाव में सत्ता से बाहर हो गए।
इस वजह से राजनेताओं ने फैसला किया है कि सबसे अच्छा यह है कि सरकारी कर्मचारियों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया जाए और इसे कोई भी सेवा आईएएस से बेहतर नहीं जानती है। वे इसका पूरा फायदा उठाते हैं।
जो भी हो, लेकिन वह कौनसी चीज है जिसका स्थायी समिति ने इशारा किया है? मैंने कुछ दोस्तों से पूछा और उन्होंने कहा कि ये वे पद थे, जो आईएएस के लिए कानून के द्वारा नहीं बल्कि परंपरा के द्वारा आरक्षित थे। इस तरह नाम से कोई पद केवल आईएएस के लिए आरक्षित घोषित किया जाता है। उदाहरण के लिए जिलाधिकारी, आयुक्त, हिंदू धार्मिक एवं धर्मार्थ दान आदि।
कुछ पदों का नाम दिया जाता है, लेकिन एक निश्चित स्तर पर बहुत से पद 'संवर्गित' या आरक्षित घोषित किए जाते हैं। इससे सरकार किसी कर्मचारी को उस विभाग में नियुक्त कर सकती है, जिसे वह अधिकारी के लिए उपयुक्त समझती है। इसमें वेतन 'उचित' स्तर पर होता है। इस हक को ही अगले स्तर पर ले जाया गया है।
लेकिन इस तरह के अधिकार की सीमा आरक्षण तक ही नहीं है। अब इसका दायरा उससे भी काफी ज्यादा है। इसलिए ऐसी चीज है, जिसे 'गैर-कार्यात्मक बढ़ोतरी' (एनएफयू) कहा जाता है। जब आप यह पढ़ेंगे कि यह क्या है तो आपका खून खौल उठेगा। इससे पता चलता है कि आईएएस व्यवस्था को कैसे अपने हिसाब से तोड़ता-मरोड़ता है। राजनेता इसे जानते हैं, लेकिन 'मेरे बाप का क्या जाता है' के भारतीय सिद्धांत के दूसरे तरीके से देखते हैं। आखिर में यह करदाताओं का पैसा होता है। एनएफयू छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद जनवरी 2006 में अस्तित्व में आया। यह अधिकारियों को पदोन्नति नहींं मिलने से होने वाले वित्तीय घाटे की भरपाई के लिए लेकर आया गया। इस तरह एनएफयू के तहत आपको ज्यादा पैसा मिलता है, भले ही आप अगले उच्चपद पर चुने जाने के लिए काबिल नहीं हो। इसलिए अकुशल को भी वही मिलता है जो सबसे अच्छे अधिकारियों को मिलता है क्योंकि अब ग्रुप-ए के सभी सिविल अधिकारियों को काफी उच्च ग्रेड का वेतन एवं पेंशन मिलती है।
अन्य किसी देश में ऐसा नहीं है। 1952 बैच के एक अधिकारी ने मुझे 2007 में बताया था कि 'गधा भी घोड़ा बन जाएगा।' यह उसके ठीक विपरीत था, जो मुझे 1964 बैच के व्यक्ति ने 2004 में बताया था। उन्होंने कहा, 'हमारी सरकार दौड़ के घोड़े लेती है और उन्हें खच्चर बना देती है।'
असल में यह वह चीज है, जो आईएएस में बदलाव हुआ है। इसी वजह से इसे फिर से डिजाइन किए जाने की जरूरत है। अखिल भारतीय सेवा के तर्क के पीछे छिपना पर्याप्त नहीं है। अगर इस अवधारणा की जरूरत पड़ती है तो भी इस पर दोबारा विचार किए जाने की जरूरत है। आईएएस को पहले आईसीएस कहा जाता था, जिसे ब्रिटिश ने दमन के लिए बनाया गया था और इसके लिए भुगतान भी 'निवासी' करते थे। यह ठीक पहले जैसी ही बनी हुई है क्योंकि इसके कुछ सदस्यों के दुखड़ा रोने के बावजूद कौन इस विलासिता की जिंदगी को छोडऩा चाहेगा जो उन्होंने 24 साल की आयु में केवल एक परीक्षा पास करने के बाद हासिल की थी?
अगर नरेंद्र मोदी आईएएस और अखिल भारतीय सेवा की अवधारणा को फिर से डिजाइन कर सकते हैं तो यह उनकी वास्तविक विरासत होगी।
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