बीएस बातचीत विकास अर्थशास्त्री जयति घोष का कहना है कि मंगलावार को आने वाले बजट में खाद्य, ग्रामीण रोजगार, शहरी रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा पर किए जाने वाले आवंटन अहम होंगे। मैसाच्युसेट्स विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर घोष ने इंदिवजल धस्माना के साथ बातचीत में कहा कि बढ़ती कीमतों और घटते रोजगार के बीच भारत की अर्थव्यवस्था पहले से ही मुद्रास्फीतिजनित मंदी की चपेट में है। पेश हैं मुख्य अंश: आप मनरेगा में आवंटन और कार्यदिवसों की संख्या को मौजूदा 100 से बढ़ाने की बात कहती रही हैं। आप शहरी गरीबों के लिए इसी तरह की योजना लाने की भी बात कहती रही हैं। सरकार इनके लिए धन की व्यवस्था कहां से करेगी? मुझे यह बड़ा ही दिलचस्प लगता है कि जब कभी हम देश की बड़ी आबादी की आजीविका को प्रभावित करने वाली चीजों के बारे में बात करते हैं तो हमसे पूछा जाता है कि पैसा कहां है। दूसरी तरफ कॉर्पोरेट जगत को जब कर राहत दी जाती है जिससे जीडीपी के करीब 2 फीसदी के बराबर राजस्व का नुकसान होता है तब कोई नहीं पूछता कि पैसा कहां से आ रहा है। रोजगार कार्यक्रमों का बहुत व्यापक प्रभाव पड़ता है। भारतीय अर्थव्यवस्था अपर्याप्त मांग की बड़ी समस्या से जूझ रही है। यहां तक कि बड़ी कंपनियां भी कह रही हैं कि हमें मांग बढ़ाने के लिए कुछ करना होगा। इसके साथ ही रोजाना हजारों सूक्ष्म, लघु, मध्यम उद्यम (एमएसएमई) मर रही हैं जिनमें कार्यबल के 85 फीसदी को रोजगार मिलता है। इन्हें जीवित रखने के सबसे बड़े तरीकों में से एक यह है कि इनके उत्पादों की मांग बढ़ाई जाए। और यह काम निचले स्तर के लोगों के हाथ में पैसा देने से होगा। आपने स्वास्थ्य क्षेत्र के आवंटन में भी तीन गुना इजाफा करने की बात कही है। इसके लिए धन की व्यवस्था के लिए आपका क्या प्रस्ताव है? केंद्र फिलहाल स्वास्थ्य पर जीडीपी का 0.3 फीसदी खर्च करता है। यह बहुत ही शर्मनाक स्तर है। केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर स्वास्थ्य पर जीडीपी का 1 फीसदी खर्च करती हैं। यह बहुत ही खराब आंकड़ा है। सार्वजनिक क्षेत्र के स्वास्थ्य द्वारा खर्च का वैश्विक औसत जीडीपी का 5 से 6 फीसदी है। हमें 5 से 6 गुना और खर्च करना चाहिए। इसके लिए धन की व्यवस्था का सीधा जरिया सबसे अमीर लोगों पर संपत्ति कर लगाना है। भारत न केवल संपत्ति के सर्वाधिक असमान वितरण वाले देशों में से एक है बल्कि यह असमानता महामारी के बाद की अवधि में बहुत तेजी से बढ़ी है। आप केवल अत्यधिक धन पर कर लगाइए न कि नियमित धन पर। इसके लिए केवल वित्तीय संपत्तियों, स्टॉक मार्केट होल्डिंग जैसी पहचान की जाने वाली संपत्तियों को चुनना चाहिए। कर महज 4 फीसदी होना चाहिए।संपत्ति कर की वसूली से अधिक उसको वसूलने पर खर्च होने के कारण पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसे समाप्त कर दिया था। क्या आपको नहीं लगता दोबारा से वही स्थिति हो सकती है? उस संपत्ति कर को खराब तरीके से बनाया गया था और खराब तरीके से उसका क्रियान्वयन हुआ था। इसमें मध्य आय वर्ग से लेकर ऊपर तक के लोगों को शामिल कर लिया गया था जिसके लिए बहुत अधिक गणना की आवश्यकता पड़ती थी और स्वाभाविक तौर पर उसकी वसूली की लागत बहुत अधिक थी। मैं उसका प्रस्ताव नहीं दे रही हूं। मेरा कहना है कि सबसे अमीर लोगों से ही कर लीजिए और हमें आसानी से पहचान में आने वाली संपत्तियों पर ही कर लगाना चाहिए। इसके केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। आपने पिछले वर्ष जिन दो आंकड़ों को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बताया था क्या उसे अब भी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानती हैं? सरकार ने 2020-21 में पहले की तुलना में सरकार ने कम खर्च किया। हम शायद पहले देश हैं, जिन्होंने महामारी के समय ऐसा किया। मैं इसमें एक आंकड़ा और जोड़ूंगी। मैं इस बात पर ध्यान दूंगी कि बड़े पैमाने पर मांग पैदा करने वाले क्षेत्रों पर कितना खर्च हो रहा है।ये क्षेत्र कौन कौन से हैं? खाद्य, ग्रामीण रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा। इन्हीं क्षेत्रों के आकलन से पता चलेगा कि व्यापक रूप से मांग में सुधार हुआ है अथवा नहीं। पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने हाल ही में कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर मुद्रास्फीतिजनित मंदी का जोखिम है। क्या आप उनके विचार से सहमत हैं? यह जोखिम का प्रश्न नहीं है। ऐसा हो रहा है। यह एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जो वास्तविक संदर्भ में नीचे जा रही है और कीमतें ऊपर चढ़ रही हैं।
