चीन को कीमत चुकाने पर विवश करना ही विकल्प | दोधारी तलवार | | अजय शुक्ला / September 09, 2020 | | | | |
पूर्वी लद्दाख में चीन द्वारा कई स्थानों पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) का उल्लंघन, भारतीय सैनिकों को उन जगहों पर जाने से रोकना जहां वे दशकों से गश्त कर रहे हैं और अपै्रल की स्थिति में वापस लौटने से उसका इनकार यही बताता है कि चीन भारत की किस कदर उपेक्षा कर रहा है। भारतीय राजनेताओं का पूरा ध्यान घरेलू राजनीति पर है और वे यही दोहराते रहे हैं चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने कहीं भी भारतीय भूभाग पर कब्जा नहीं किया है और विवाद एलएसी को लेकर समझ में अंतर का है। ऐसे में चीन के अधिकारियों का यह सोचना लाजिमी है कि आखिर वार्ता किस बारे में हो।
सन 1962 की जीत के बाद चीन सन 1956 और 1960 के अपने दावे को पहले ही मजबूत कर चुका है। अब सन 2020 में वह एलएसी को दोबारा निर्धारित कर रहा है। भारत में चीन के राजदूत सुन वेईतोंग ने गत सप्ताह यही दोहराया कि सीमा का सवाल इतिहास से जुड़ा हुआ है और उससे धैर्य से निपटना होगा। हाल ही में चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने फ्रांस में कहा कि चीन कभी हालात खराब करने की पहल नहीं करेगा। इस दौरान उनके माथे पर शिकन तक नहीं थी जबकि पीएलए के अतिक्रमण ने भारत के साथ उन चार समझौतों को क्षति पहुंचाई है जो सीमा पर शांति बहाल करने से संबंधित हैं। चीन यह भी नहीं बता रहा कि उसका दावा कहां तक है। उसका संदेश यही है कि सीमा विवाद बना रहे तो भी उसे दिक्कत नहीं है क्योंकि उसे कोई नुकसान नहीं।
ऐसे में यही विकल्प है कि चीन को कीमत चुकाने पर मजबूर किया जाए। भले ही यह सौदा हमारे लिए महंगा हो। मिस्र का उदाहरण हमारे सामने है जिसने कहीं अधिक शक्तिशाली इजरायल को सीमित युद्ध के बाद वार्ता पर मजबूर किया। सन 1948 की जंग में जीत के तत्काल बाद 1956 में इजरायल ने मिस्र, सीरिया और जॉर्डन की संयुक्त सेना को बुरी तरह हराया था। मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात को लगा कि इजरायल के साथ गतिरोध देश के विकास को प्रभावित कर रहा है। इजरायल को स्थायी शांति समझौते की अहमियत समझाने के लिए सादात ने सेना को स्पष्ट सामरिक लक्ष्य वाली जंग की तैयारी करने को कहा। इरादा यही था कि जीत न भी मिले तो भी इजरायल की सेना को इतना नुकसान पहुंचाया जाए कि अरब सैन्य शक्ति की प्रतिष्ठा बहाल हो और इजरायल लंबी अवधि के शांति समझौते के लिए आगे आए। सन 1973 के अक्टूबर में मिस्र और इजरायल की सेनाओं ने यहूदियों के पवित्र योम किप्पुर दिवस पर इजरायल पर अचानक हमला किया और गोलान पहाडिय़ों तथा सिनाई प्रायद्वीप के कुछ हिस्से पर कब्जा कर लिया। अगले 20 दिनों में इजरायल ने अपनी जमीन वापस ले ली लेकिन वह शांति वार्ता के लिए तैयार हो गया। सादात 1977 में इजरायल की ऐतिहासिक यात्रा पर गए और मिस्र ने उसे एक देश के रूप में मान्यता दी और दोनों के रिश्ते सामान्य हुए।
मिस्र की तरह भारत को भी चीन को यह समझाना होगा कि यदि वह भारत पर यूं ही हमलावर रहा तो चीन को कीमत चुकानी होगी जबकि विवाद न होने की स्थिति में उसका ही लाभ होगा। मध्यम से दीर्घावधि में इसके लिए एलएसी पर साझा समझ बनानी होगी, यथास्थिति बरकरार रखनी होगी और एक नई सीमा पर सहमति बनानी होगी।
इसके लिए भारत को सैन्य शक्ति के इस्तेमाल समेत जरूरी कदम उठाने होंगे ताकि पीएलए को पीछे हटने पर विवश किया जा सके। यदि चीन को अपनी बढ़त बरकरार रखने के लिए वार्ता करनी पड़ी तो भी उसे परेशानी होगी। अब जबकि भारत ने लद्दाख में सैन्य बहाली कर ली है तो ऐसा किया जा सकता है। सेना ने एक ऐसी टुकड़ी लद्दाख में तैनात की है जो सामरिक दृष्टि से अहम स्थानों पर काबिज हो सकती है। लड़ाकू विमानों, हवा में ईंधन भरने की क्षमता समेत तमाम कमियों के बावजूद भारतीय वायुसेना को पीएलए की वायु सेना पर तमाम बढ़त हासिल है। तिब्बत में ऑक्सीजन की कमी वाले ऊंचे इलाकों में पीएलए के विमानों को दिक्कत होगी। सन 1962 के उलट सेना के जवानों को भी हवाई मदद आसानी से मिलेगी। नौसेना भी चीनी नौसेना पर दबाव बना सकती है क्योंकि वह पहले ही दक्षिण चीन सागर में अमेरिकी नौसेना का सामना कर रही है। पूरी क्षमता का युद्ध जरूरी नहीं है बल्कि सेना को तय करने देना चाहिए कि वह किस तरह आगे बढऩा चाहती है। चीन की सेना सन 1979 से लड़ाई में नहीं उतरी है और उस वक्त भी वह नाकाम रही थी। भारत की जीत इसी में है कि वह हारे नहीं और चीन को कीमत चुकाने पर विवश करे।
भारत यह संकेत भी दे सकता है कि वह चीन और अमेरिकी नेतृत्व वाले चीन विरोधी गठजोड़ से समान दूरी त्यागने पर विचार कर रहा है। यह स्पष्ट नहीं है कि भाजपा द्वारा जवाहरलाल नेहरू की नीतियों की निरंतर आलोचना के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनकी गुटनिरपेक्षता को क्यों अपनाए हैं? ऐसा करने से चीन में चल रही उस बहस को विराम मिलेगा कि भारत अमेरिकी खेमे में जा चुका है और समान दूरी का दिखावा कर रहा है।
भारत की सैन्य कार्रवाई दिक्कतदेह होगी लेकिन इससे भविष्य में एलएसी के उल्लंघन की घटनाओं की रोकथाम होगी। चीन को साझा लाभ वाले सीमा समझौते की ओर ले जाने से सेना के जवानों में तीन लाख से चार लाख की कमी लाई जा सकेगी। इससे बेहतर रक्षा व्यय सुनिश्चित होगा। देश की संप्रभुता के लिए और सामरिक माहौल सुधारने के लिए यह जरूरी है। यदि ये कड़े विकल्प नहीं अपनाए गए तो कहीं बड़ी कीमत चुकानी होगी।
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