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सिंघु बॉर्डर पर प्रदर्शनकारियों के हौसले बुलंद

Last Updated- December 11, 2022 | 11:22 PM IST

वर्ष 1984 के सिख विरोधी दंगों से लेकर विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर आंदोलन तक जसबीर कौर ने काफी कुछ देखा है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय राजधानी में जब दंगे हुए थे, तब वह 39 वर्ष की थीं। 36 साल बाद इन तीन कृषि कानूनों के खिलाफ तीव्र विरोध और इस पर मिली नकारात्मक प्रतिक्रिया के प्रतिबिंबों से उनके जख्म हरे हो गए थे और उन्हें दिल्ली-हरियाणा सीमा के विरोध स्थल पर पहुंचा दिया।
पिछले साल 10 दिसंबर से यहां तैनात अनुमानत: 70 से 80 वर्ष के बीच उम्र की यह बुजुर्ग महिला कहती हैं ‘मैंने टीवी पर पुलिस को हमारे बच्चों को पीटते हुए देखा था। मेरे दो भाई भी 26 नवंबर (2020) से सिंघु पर थे’ वह 40 से अधिक किसान संगठनों के गठबंधन – संयुक्त किसान मोर्चा के मंच की सफाई, लंगर (सामुदायिक भोजन) परोसने और संकीर्तन (सामुदायिक प्रार्थना) करते हुए अपना दिन बिताती हैं। हालांकि शुरुआत में उन्हें घर की याद सताती थी, लेकिन कौर कहती हैं कि उन्होंने अपने साथी प्रदर्शनकारियों के बीच कई सहेलियां बना लीं। इस साल की शुरुआत में जब उन्हें दिल का दौरा पड़ा था, तब उन्होंने ही उनकी देखभाल की थी। वह कहती हैं कि होश आने के बाद उन्होंने जो पहले शब्द कहे वे थे ‘मुझे सिंघु जाना है। आप मुझे सिंघु ले चलो या मैं खुद ही चली जाऊं?’
जैसे ही वह यात्रा करने लायक हुईं, उन्होंने रोहतक में उस अस्पताल के पास से सिंघु बॉर्डर के लिए बस ले ली, जहां उन्हें भर्ती कराया गया था।
19 नवंबर को उनकी पोती ने उन्हें फोन किया और कहा कि मोदी तो मान गए, आप कब मानोगी? कौर मुस्काते हुए कहती हैं ‘और मैंने जवाब दिया, मैं तब तक वापस नहीं जाऊंगी, जब तक इन कानूनों को संसद में निरस्त नहीं कर दिया जाता है।’
केवल कौर जैसे प्रदर्शनकारी ही सरकार के फैसले से खुश नहीं हैं, बल्कि स्थानीय लोग भी राहत महसूस कर रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की मांगों को मान लिया है। सिंघु निवासी राजेश कुमार का कहना है कि विरोध स्थल बलिदान और सम्मान का प्रतिनिधित्व करता है। वह कहते हैं ‘एक साल से हजारों लोगों को एक साथ खाते हुए देखना किसी सपने जैसा अनुभव रहा है। किसानों का संघर्ष और जीत यह साबित करती है कि अगर आपके इरादे नेक हैं, तो आपकी जीत होगी।’
सिंघु बॉर्डर के विरोध प्रदर्शन में लंगर ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जैसे ही प्रतिरोध ने जोर पकड़ा, प्रदर्शनकारियों के लिए भोजन तात्कालिक आवश्यकता बन गया। तभी हजारों की संख्या में लोग यहां डेरा डाले बैठे प्रदर्शकारियों के लिए भोजन तैयार करने के लिए आगे आ गए। इनमें कुरुक्षेत्र के सरदार संतोप सिंह भी शामिल थे। वे याद करते हुए बताते हैं कि किस तरह उन्होंने पिछले साल नवंबर में पहली बार प्रदर्शनकारियों के लिए ब्रेड पकोड़ा बनाया था। वह कहते हैं ‘ऐसा लगता है कि मैं कल ही यहां आया हूं। मेरा लंगर चौबीसों घंटे सातों दिन नाश्ता और दिन में दो बार भोजन परोसता है।’ वह कहते हैं कि इस विरोध ने मुझे न केवल अपने लिए, बल्कि किसी बड़े उद्देश्य के लिए लडऩे के लिए प्रोत्साहित किया है। अगर सरकार इन कानूनों को निरस्त करने के लिए सहमत नहीं होती, तो हम वर्ष 2024 तक विरोध जारी रखते। शुरू से ही आंदोलन में भाग लेने वाली दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा गुरप्रीत कौर के लिए सिंघु केवल एक विरोध स्थल नहीं है। वह कहती हैं कि उनके लिए यह एक प्रशिक्षण केंद्र भी रहा है, ऐसा केंद्र जहां उन्होंने अपने विचारों को आवाज देना और न्याय के लिए लडऩा सीखा है। हालांकि यह यात्रा आसान नहीं रही है। स्नातक पाठ्यक्रम के अंतिम वर्ष की छात्रा कौर कहती है, ‘मुझे उम्मीद है कि अब मैं घर वापस जा सकूंगी और अपनी पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित कर सकूंगी।’
किसानों का समर्थन करने के लिए सिंघु आया निहंग सिखों का एक समूह भी इस बात से बहुत खुश है कि प्रधानमंत्री ने इन कृषि कानूनों को निरस्त करने का वादा किया है। अमृतसर के 72 वर्षीय निहंग सिख जोगा सिंह कहते हैं, ‘हम यहां भगवान की मर्जी से बैठे हैं। हमें किसी ने नहीं बुलाया। हम यहां अपनी मर्जी से आए हैं।’ जोगा सिंह को यकीन है कि यह निर्णय राजनीतिक मजबूरी से प्रेरित है। पंजाब और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं, ‘चुनाव आ रहे हैं, इसलिए सरकार ने ये कानून रद्द करने का फैसला लिया है।’ हरियाणा के 80 वर्षीय किसान राम सिंह के मामले में इस विरोध ने उन्हें पंजाब में अपने साथी किसानों के प्रति उदारता का अतिरिक्त उपहार भी प्रदान किया है। वह कहते हैं कि हम पंजाब के अपने भाइयों पर फूलों की पंखुडिय़ां बरसाकर उन्हें विदाई देंगे। हमें झूठ बताया गया है कि हमारे पंजाबी भाई हमें हमारे हिस्से का पानी नहीं दे रहे हैं। लेकिन अब हम समझते हैं कि यह एक राजनीतिक एजेंडा था।
किसान आंदोलन के एक साल के दौरान कई प्रदर्शनकारियों ने अपनी नौकरी छोड़ दी या दूसरा पेशा अपनाया। लुधियाना के बस चालक चरण सिंह ने अपनी नौकरी छोड़ दी और पिछले साल सिंघु आ गए, जब उन्होंने देखा कि किसानों के साथ बुरा व्यवहार किया जा रहा है और पानी की बौछार की जा रही है। वह कहते हैं कि यह जगह जल्दी छोडऩे की उनकी कोई योजना नहीं है।

First Published - November 22, 2021 | 11:02 PM IST

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