बिहार में नेताओं के सुर बदल गए हैं। लालू, रामविलास, नीतीश सबके सब विकास की बात कर रहे हैं।
चुनावी मंच से खुलेआम जाति के नाम पर वोट मांगने की जगह नेतागण तरक्की के नाम पर वोट मांगना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। लेकिन जाति की राजनीति बिहार में अब भी हावी है। फिर भी चुनावी मंच से नेता खुलेआम मुस्लिम-यादव की दुहाई देने की जगह कोच फैक्टरी लगाने की बात कर रहे हैं।
इस्पात कारखाना लगाने के साथ सड़क एवं पुल निर्माण की बात हो रही है। रेल मंत्री लालू प्रसाद ने तो छपरा के हर घर से एक व्यक्ति को रेलवे में नौकरी देने का वादा कर दिया। मतदाता भी अपने नेताओं से पुराने वादों का हिसाब मांग रहे हैं। तभी तो बक्सर के सांसद को वहां के मतदाताओं ने लाठी-डंडे के सहारे गांव से खदेड़ दिया।
राजनैतिक विश्लेषक प्रेम शंकर झा कहते हैं, ‘बिहार के मतदाता जातिगत राजनीति से थक गए हैं। और उन्हें अब विकास का स्वाद लग चुका है। इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है। इन्हीं कारणों से सभी नेतागण विकास की बोली बोल रहे हैं। सड़क, बिजली, एवं कानून-व्यवस्था की दशा में सुधार होने से वहां के मतदाताओं को अपने विकास का अहसास होने लगा है।’
वे कहते हैं, ‘जात के नाम पर सिर्फ मतदान होता तो मध्य प्रदेश, राजस्थान व गुजरात में चुनावी परिणाम कुछ और होता। इन राज्यों में भी जातिगत समीकरण को देखते हुए टिकट दिए जाते हैं। बिहार में बदलाव की बयार नहीं होती तो नीतीश कुमार की सरकार नहीं बनती।’
पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं वयोवृध्द नेता चतुरानन मिश्र कहते हैं, ‘जात-पात की राजनीति से बिहार अभी नहीं उबरा है और वहां असली राजनीति जाति के नाम पर ही हो रही है लेकिन लोगों के रुझान में निश्चित रूप से बदलाव है और लोग अब विकास की बात करने लगे हैं। पिछड़ी जाति में दो खेमे होने के कारण बिहार की राजनीति में बदलाव की नयी तस्वीर उभर सकती है।’
मुजफ्फरपुर के स्थानीय पार्षद अरूण कुमार सिंह कहते हैं, ‘विकास को लेकर शहरी मतदाताओं का रुझान बदला है। लेकिन गांवों में जाति समीकरण ही पूरी तरह से हावी है। विकास के बूते 1-2 फीसदी मतदाताओं को रिझाने में कामयाबी मिल सकती है। झा कहते हैं, विकास के नाम पर 5 फीसदी मतदाता भी सही जगह अपने मतों का इस्तेमाल करते हैं तो परिणाम कुछ और होगा।
