कोलकाता के आर जी कर अस्पताल में हुई दर्दनाक घटना और मलयालम फिल्म उद्योग में यौन उत्पीड़न का खुलासा करने वाली रिपोर्ट का भारत की 500 सबसे बड़ी कंपनियों की फॉर्च्यून इंडिया सूची के साथ पहली नजर में कोई संबंध नहीं दिखता। मगर सच यह है कि इनका आपस में लेना-देना है। पहली दो घटनाएं दर्शाती हैं कि भारत में कार्य स्थलों पर महिलाओं के लिए बुनियादी सुरक्षा का कितना अभाव है। फॉर्च्यून इंडिया की सूची बताती है कि अभी कुछ और समय तक स्थिति ऐसी ही क्यों रहने वाली है।
इसकी वजह कारोबार के लिहाज से भारत की सबसे बड़ी कंपनियों के मुख्य कार्य अधिकारियों (सीईओ) और प्रबंधन निदेशकों की सूची में नजर आती है। इस सूची में शामिल सबसे बड़ी 100 कंपनियों में से एक की भी कमान महिलाओं के हाथ में नहीं है। उनके बाद की कंपनियों की पड़ताल भी निराश करने वाली ही है। मगर फॉर्च्यून ने एसपीजेआईएमआर के साथ मिलकर एक श्वेत पत्र जारी किया है, जो बताता है कि फॉर्च्यून 500 कंपनियों में से बमुश्किल 1.6 फीसदी में प्रबंध निदेशक और सीईओ महिला हैं। शीर्ष 1000 कंपनियों की बात करें तो 3.2 फीसदी में नेतृत्व महिलाओं के हाथ में है।
दूसरे देशों में भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। चीन का ही उदाहरण ले लीजिए, जहां फॉर्च्यून 500 कंपनियों में से केवल 10.4 फीसदी को महिलाएं चला रही हैं। अमेरिका में भी अनुपात कुछ ऐसा ही है। मगर भारत इस पैमाने पर वाकई काफी पीछे है।
ऐसे सर्वेक्षणों की कमी नहीं है, जो बताते हैं कि महिलाओं द्वारा चलाई जा रही कंपनियां पुरुषों की कमान वाली कंपनियों से ज्यादा सफल हैं क्योंकि महिलाएं ज्यादा समावेशी कामकाजी माहौल बनाती हैं। हालांकि इन निष्कर्षों के पीछे दिए तर्क थोड़े संदेह भी पैदा करते हैं क्योंकि इनमें कोई भी सर्वेक्षण यह नहीं बताता कि अगर ये कंपनियां पुरुषों के नियंत्रण में रहतीं तो क्या उनका प्रदर्शन खराब होता? मगर कार्य स्थलों पर महिलाओं की सुरक्षा में कमी और कंपनियों में महिला नेतृत्व के अभाव के बीच संबंध स्पष्ट और सीधा दिखता है।
इस तथ्य का पता सूचीबद्ध कंपनियों द्वारा यौन उत्पीड़न के मामलों पर अशोक यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर इकॉनमिक डेटा ऐंड एनालिसिस (सीईडीए) के एक अध्ययन से चलता है, जिसमें सूचीबद्ध कंपनियों द्वारा दर्ज कराए गए महिला यौन उत्पीड़न के मामलों का विश्लेषण किया गया था।
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने 2018 में एक आदेश में कहा था कि सभी सूचीबद्ध कंपनियों को अपनी सालाना रिपोर्ट में यौन उत्पीड़न के मामलों की जानकारी अनिवार्य रूप से देनी होगी। इस साल मई में प्रकाशित इस अध्ययन में सीईडीए ने नैशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) पर सूचीबद्ध करीब 2000 कंपनियों में से 300 कंपनियों को शामिल किया। इनमें लार्ज कैप, मिड कैप और स्मॉल कैप श्रेणियों में से 100-100 कंपनियां ली गई थीं।
आंकड़ों में अच्छी बात यह दिखी कि 2013-14 से भारतीय कंपनियों में यौन उत्पीड़न के दर्ज मामलों की संख्या बढ़ रही है। इससे पता चलता है कि यौन उत्पीड़न की शिकार होने वाली पहले से अधिक महिलाएं इनकी शिकायत दर्ज कराने की हिम्मत कर रही हैं। किंतु सीईडीए की निदेशक अक्षी चावला कहती हैं कि शिकायतों की संख्या ज्यादा बढ़ रही है मगर शिकायतों का समाधान कम हो रहा है।
हालांकि अध्ययन में इस बात का जिक्र नहीं है मगर ऐसे मामलों का निपटारा तेजी से नहीं होने का एक कारण यह भी है कि कई कंपनियां शिकायत समिति ही नहीं बनातीं, जबकि 2013 में कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध एवं निवारण) अधिनियम (पॉश ऐक्ट) के तहत ऐसी समिति का गठन अनिवार्य है। कुछ अरसा पहले उच्चतम न्यायालय भी इस पर ‘असंतोष’ व्यक्त कर चुका है।
शीर्ष न्यायालय ने कुछ महिला पहलवानों की शिकायतों पर सुनवाई के बाद यह टिप्पणी की थी। पहलवानों ने कुश्ती संघ के प्रमुख के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराई थी। इस सिलसिले में हुई जांच में पता चला कि देश के आधे से अधिक खेल महासंघों में ऐसी शिकायतों की सुनवाई के लिए आंतरिक समितियां ही नहीं हैं। भारतीय कंपनी जगत में भी हालात बहुत अलग नहीं हैं।
सीईडीए की रिपोर्ट में दो अहम बातें और भी हैं। पहली बात, मुट्ठी भर कंपनियां ही वास्तव में ऐसी शिकायतों की सूचना देती हैं और कई कंपनियों में वर्षों से ऐसी एक भी शिकायत का जिक्र नहीं आया है। इसके दो कारण हो सकते हैं। या तो प्रबंधन ने कार्यस्थल पर उत्पीड़न की समस्या से निपटने के लिए कोई व्यवस्था ही नहीं बनाई है या वे महिलाओं को काम पर ही नहीं रखते, जिस कारण ऐसी शिकायतें नहीं आती हैं।
संगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं पर छोटे सर्वेक्षण भी हुए हैं, जिनसे पता चलता है कि महिला कर्मियों को या तो पॉश ऐक्ट अथवा आंतरिक शिकायत समिति के पास जाने के अपने अधिकार के बारे में पता ही नहीं होता या वे उत्पीड़न होने, करियर खराब होने अथवा बदनामी होने के डर से शिकायत दर्ज नहीं करातीं। सीईडीए के अध्ययन में कहा गया है कि ज्यादातर मामले बड़ी कंपनियों से आते हैं क्योंकि वहां शिकायतें सुनने और हल करने की अधिक पुख्ता व्यवस्था होती है।
मगर मझोली और छोटी कंपनियों में चिंताजनक हालात हैं क्योंकि मुट्ठी भर मझोली कंपनियां तो फिर भी जानकारी देती हैं किंतु छोटी कंपनियों से शायद ही ऐसा कोई मामला सामने आता है।
ये सभी लक्षण पुरुषों के वर्चस्व वाले कामकाजी माहौल के हैं, जहां प्रबंधन महिलाओं के लिए सुरक्षित कार्यस्थल तैयार करने की जरूरत को बिना डरे नजरंदाज कर देता है। मई में लिंक्डइन के एक अध्ययन में पता चला कि कंपनियों में नेतृत्व के स्तर पर महिलाओं की हिस्सेदारी 2001 से जस की तस बनी हुई है। सर्वेक्षण के अनुसार इसके लिए पूर्वग्रह, सामाजिक रीतियां संरचनात्मक बाधाएं जिम्मेदार हैं।
यह दुष्चक्र दिखाई तो आसानी से जाता है। महिलाएं अटपटे कामकाजी माहौल से दूर रहती हैं या उत्पीड़न होने पर काम छोड़ देती हैं, जिस कारण ऊपर बढ़ने और शीर्ष तक पहुंचने के लिए कम महिलाएं बचती हैं। शीर्ष पर महिलाओं की संख्या कम होने से ऐसा कामकाजी माहौल तैयार होने की संभावना भी कम हो जाती है, जो महिलाओं के लिए उचित हो। ऐसी हरेक बाधा स्त्री-पुरुष समानता को कमजोर करती है।