पिछले हफ्ते एक अखबार (इंडियन एक्सप्रेस, 17 अप्रैल) के पहले पन्ने पर छपी खबर ने मुझे चौंका दिया। खबर कुछ इस तरह है।
हरियाणा बिजली नियामक आयोग (एचईआरसी) ने 3 चपरासियों की भर्ती के लिए विज्ञापन निकाला था। इसके लिए 11 हजार से भी ज्यादा लोगों ने आवेदन किया। भर्ती के लिए इंटरव्यू की प्रक्रिया जारी है और यह संभवत: 3 महीने तक जारी रहेगी।
आयोग के कुछ सदस्य और अधिकारी आजकल अपना पूरा वक्त इसी काम में दे रहे हैं। मेरे लिए यह खबर हमारी आर्थिक और सामाजिक नीतियों की गंभीर खामियों को उजागर करती है।
पहला यह कि हमारी रोजगार संबंधी नीतियों में कहीं न कहीं भारी गड़बड़ी है। कुछ साल पहले मैंने भारत की विशाल जनसंख्या को देश के लिए बड़ा श्रम संसाधन माने जाने को लेकर अलापे जा रहे राग पर सवाल उठाया था। जैसा कि मैं समझता हूं लोग श्रम की पूर्ति के मद्देनजर ऐसी बातें कर रहे हैं। श्रम की मांग में बढ़ोतरी संबंधी नीति बनाए जाने से ही बड़े पैमाने पर रोजगार और उत्पादन का लक्ष्य हासिल करना मुमकिन होगा।
श्रम की मांग और पूर्ति में भारी अंतर संबधी इंडियन एक्सप्रेस की खबर से साफ है कि हमारी वर्तमान नीति इन मानकों पर खरा नहीं उतरती। सबसे चिंताजनक बात यह है कि देश के समृध्दतम राज्यों में से एक में ऐसा हो रहा है और ऐसे वक्त में यह देखने को मिल रहा है, जब भारत की औसत आर्थिक विकास दर तकरीबन 8.5 फीसदी है। श्रम की मांग और आपूर्ति में भारी अंतर के मामले में दूसरी समस्या हमारी शिक्षा प्रणाली से जुड़ी है।
जहां तक पब्लिक सेक्टर की बात है, चपरासी के लिए निर्धारित योग्यता सबसे कम है। इससे पता चलता है कि आजादी के 60 साल बाद भी हमारी शिक्षा प्रणाली (खासकर सरकार द्वारा मुहैया कराई जा रही शिक्षा) की हालत काफी खराब है। यह बात सरकारी और गैरसरकारी रिपोर्ट और अध्ययनों से साबित होती है।
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, एक तिहाई बच्चे 5वीं कक्षा तक ही पढ़ाई छोड़ देते हैं और 7वीं में पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की तादाद 60 फीसदी है। इसके अलावा स्कूलों (खासकर सरकारी स्कूल) में साक्षरता प्राप्त करने और अन्य चीजें सीखने के मामले में भी स्थिति काफी दयनीय है। ऐसी हालत स्कूलों तक ही सीमित नहीं है। यह बात व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों, कॉलेजों और उच्च शिक्षण संस्थानों पर भी लागू होती है।
नतीजतन, हमारी शिक्षा व्यवस्था लाखों ऐसे लोग तैयार करती है, जिन्हें पास कोई तकनीकी काबिलियत नहीं होती। इसके मद्देनजर हम कह सकते हैं कि चपरासी पद के लिए भारी तादाद में प्राप्त हुआ आवेदन दुखद जरूर है, लेकिन हैरानी का विषय नहीं है।
इसके अलावा केंद्र और राज्य सरकारों की दोषपूर्ण वेतन नीतियां इस समस्या को और बढ़ा देती हैं। इसके तहत ऊंचे स्तर के सरकारी कर्मचारियों (आईएस, आईपीएस और आईएफएस अधिकारी आदि जिनके बारे में मीडिया फोकस करता है) को प्राइवेट सेक्टर में काम करने के मुकाबले कम वेतन मिलता है, जबकि निचले स्तर के सरकारी कर्मचारियों (चपरासी समेत) की तनख्वाह प्राइवेट सेक्टर के इस स्तर कर्मचारियों के मुकाबले काफी ज्यादा होती है।
इस वजह से सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ाने के अलावा ( कर्मचारियों पर सरकारी खर्चे का 95 फीसदी हिस्सा निचले स्तर के कर्मचारियों के मद में होता है) श्रम बाजार में कई और गड़बड़ियां पैदा होती हैं। मिसाल के तौर पर एक सरकारी चपरासी का वेतन प्राइवेट प्राइमरी स्कूल के कर्मचारी से काफी ज्यादा होता है। छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद यह अंतर और बढ़ जाएगा।
इसके अलावा यह खबर सरकारी संस्थाओं की कार्य प्रणाली की खामियों को भी उजागर करती है। कहने का मतलब यह है कि इसके कर्मचारियों को भर्ती और कई दूसरे काम भी करने पड़ते हैं। अगरर एचईआरसी के सदस्य और अधिकारी 3 महीने तक सिर्फ 11 हजार उम्मीदवारों का इंटरव्यू लेने में लगे रहेंगे, तो जाहिर है कि बिजली की देखरेख का काम बुरे तरीके से प्रभावित होगा।
प्राइवेट सेक्टर की कोई भी संस्था चपरासियों के 3 पदों की भर्ती के लिए ऐसे ऊटपटांग नियम कायदे को नहीं अपनाती। इसकी वजह यह है कि ये कंपनियां अपने ऑपरेशन को अच्छे तरीके से चलाने के लिए उच्चस्तर पर भर्ती में ऐसी कवायद करती हैं। सरकारी संस्थाओं में जवाबदेही को लाभ, कार्यकुशलता और सेवाओं की गुणवत्ता के बजाय नियम और कानूनों को ध्यान में रखकर पारिभाषित किया जाता है।
हालांकि जैसा कि हम सभी जानते हैं घूसखोरी और भ्रष्टाचार के लिए इन संस्थानों में नियम-कानूनों की धाियां उड़ाई जाती हैं। लेकिन यह सारा कुछ ऑन रिकॉर्ड नहीं होता। मेरे विचार में एचईआरसी के सीनियर अधिकारियों को 3 चपरासियों की नियुक्ति में लगाकर संस्थान अपने संसाधनों को बर्बाद कर रही है।
बहरहाल मांग और आपूर्ति का यह भारी अंतर कम पढ़े-लिखे लोगों के लिए रोजगार के बेहतर अवसरों की कमी को दर्शाता है। हालांकि इस बात में कोई शक नहीं कि भारतीय का आर्थिक विकास काफी तेजी से हो रहा है। खासकर पिछले 5 साल में भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास की रफ्तार काफी तेज हुई है।
साथ ही यह विकास ‘रोजगार से भरपूर’ है। नैशनल सैंपल सर्वे (61वां दौर) के आंकड़ो के मुताबिक, 1999-2000 से 2004-05 के बीच रोजगार में 2.9 फीसदी की दर से बढ़ोतरी दर्ज की गई, जिसे बेहतर माना जा सकता है। हालांकि हकीकत यह है कि रोजगार में बढ़ोतरी वैसे सेक्टरों में हुई है, जहां रोजगार सुरक्षा और वेतन काफी कम है।
श्रम आधारित निर्माण इकाईयों और तकनीकी रूप से कमजोर लोगों के लिए रोजगार पैदा करने वाली मशीनों के मामले में भारत को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। कई लोगों का मानना है कि भारत विकास की ऐसी राह चुन सकता है, जिसमें श्रम आधारित इकाई का अहम रोल नहीं हो। ये लोग तथाकथित आधुनिक सेवा क्षेत्रों मसलन सूचना प्रौद्योगिकी, बीपीओ, केपीओ, टेलिकॉम, मीडिया सेक्टर की सफलता का हवाला देते हैं।
मुमकिन है यह सच हो। लेकिन मैं यह पूछना चाहता हूं कि एचईआरसी का चपरासी बनने में असफल होने वाले 11,803 उम्मीदवारों में से कितने इन क्षेत्रों में जॉब के लिए कोशिश करने के काबिल हैं। इस सवाल के जवाब से ही इस बात का जवाब मिल सकता है कि भारत के भविष्य के लिए कितना कुछ करने की जरूरत है।
(लेखक भारत सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं। लेख में प्रकाशित विचार उनके निजी हैं।)