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लोकलुभावनवाद के फलने फूलने की क्या है वजह?

इतिहास के अधिनायकवादी नेताओं के उलट आज के लोकप्रिय नेता जनता को आम सहमति और आत्मविश्वास की कमी की स्थिति में रखकर राजनीतिक स्थिरता बरकरार रखते हैं। बता रहे हैं रथिन रॉय

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रथिन रॉय   
Last Updated- April 16, 2024 | 9:17 PM IST

आर्थिक विकास का अर्थ है बढ़ी हुई समृद्धि हासिल करना। इस दिशा में पहला काम है आपदाओं, अभाव और शारीरिक असुरक्षा से निजात पाना। जब विभिन्न देश मध्य और उच्च आय के दर्जे की ओर बढ़ते हैं तो वे अपनी समृद्धि का स्तर बढ़ाने का प्रयास करते हैं। समृद्धि के दो पहलू हैं। ‘कैसे’ का अर्थ है अनुमान आधारित अस्तित्व को सुरक्षित करने, बच्चों का लालन-पालन करने और बुनियादी आवश्यकताओं को सुरक्षित करने का साधन और ‘क्या’ यानी वे क्षमताएं जो हम अपने बच्चों के लिए चाहते हैं- सांस्कृतिक, कलात्मक और खेल गतिविधियों का आनंद और अपने साथियों के समाज में पूरी तरह शामिल होने की क्षमता। यानी समृद्धि के कई स्तर हैं और इनमें से प्रत्येक स्तर संतुष्टि प्रदान करता है।

त्योहारों का उत्सव मनाना और कपड़े और गहने आदि खरीदना एक वैश्विक सिलसिला है। बुनियादी स्तर से परे साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल होने की अनुमति देने वाली शिक्षा की आवश्यकता केवल कुछ ही लोगों को होती है। फुटबॉल खेलने और देखने की सुविधा हर जगह होती है जबकि भद्र लोगों के खेल मसलन गोल्फ के लिए अलग स्तर की समृद्धि की जरूरत होती है। जब कृषि और विनिर्माण आय उत्पन्न करने वाली प्रमुख गतिविधियां थीं तब केवल वही समृद्धि की दिशा में बढ़ने की सोच सकते थे जिनके पास खेती और विनिर्माण परिसंपत्तियां थीं। बाकियों के लिए एक ऐसे समाज को समृद्ध माना जाता था जहां बुनियादी जरूरतें पूरी होती हों और आपदाओं से समुचित सुरक्षा मिल सके।

आधुनिक पूंजीवाद की प्रगति के साथ ही एक नई तरह की राजनीतिक विचारधारा उभरी। इसके लिए समृद्धि का लोकतंत्रीकरण जरूरी था। समृद्धि के ‘क्या’ तक पहुंच को लोकतांत्रिक बनाने की कोशिश अपने समाजवादी रूढ़िवादी रूप में सामाजिक लोकतांत्रिक विचारधारा की नींव थी। यह साम्यवाद और फासीवाद से अलग था जो क्रमश: दूसरों से नफरत और वर्ग संघर्ष पर जोर देते हैं। इसकी वजह से शिक्षा और साक्षरता पर जोर बढ़ा।

व्यापक बौद्धिक, सांस्कृतिक और सामाजिक समृद्धि की दिशा में बढ़ने के लिए यह आवश्यक था। यही वजह है कि भारत तथा कई अन्य देशों में शिक्षा को लोकप्रिय बनाने का सामाजिक आंदोलन चला जिसमें समाज के साथ उद्यमियों की परोपकारिता तथा सरकार की अहम भूमिका रही। शिक्षा में केवल डिग्री हासिल करना शामिल नहीं है बल्कि किसी व्यक्ति के लिए बेहतर गुणवत्ता पाने की क्षमता हासिल करना भी इसका लक्ष्य है। इसके दो अहम उदाहरण हैं- नुकसान के लिए नहीं बल्कि खुशी पाने के लिए मदिरा पान करना तथा खेलों और संगीत में बच्चों की शिक्षा।

जैसे-जैसे समृद्धि का स्तर बढ़ा, लोकतांत्रिक राज्य ने शिक्षा के सभी स्तरों तक पहुंच प्रदान करके, पुस्तकालयों का निर्माण, खेल और कलात्मक गतिविधियों को सब्सिडी आदि देकर ‘क्या’ तक पहुंच को लोकतांत्रिक बनाने की कोशिश की। यही परोपकार का प्राथमिक उद्देश्य भी है। सन 1970 के दशक से यह स्थिति उलटने लगी क्योंकि सामाजिक लोकतांत्रिक वैचारिक सहमति का पतन हो गया। यह एक जटिल प्रक्रिया है लेकिन इसके तीन विशेष गुण हैं।

पहला, थॉमस पिकेटी बहुत मुखरता से आय में बढ़ती असमानता को रेखांकित करते हैं और कहते हैं कि इसकी वजह है सौ सालों में पहली बार वित्तीय और विरासती पूंजी का मानव पूंजी से अधिक प्रतिफल वाला होना। विकसित देशों में यह स्थिति तब आई जब उन्होंने समृद्धि के ऊंचे स्तर को छू लिया। अधिकांश विकासशील देश विकास का यह बदलाव हासिल करने में विफल रहे। वे मध्य आय के जाल में उलझ गए हैं। यह वह स्थिति है जहां कम विकास की स्थिति अधिकांश लोगों को प्रभावित करती हैं जबकि कुछ लोगों को इससे लाभ होता है।

दूसरा, सेवाओं और आभासी तकनीकों के तेज उभार के कारण ‘क्या’ का मुद्रीकरण संभव हुआ। इसकी वजह से कम आय वाले और अधिकांश अशिक्षित लोगों की जरूरतों को पूरा करना संभव होता है और इस दौरान आय भी अर्जित होती है। उदाहरण के खेल, संगीत, फिल्म, पोर्नोग्राफी और यहां तक कि अमीरों की शादी तक आभासी पहुंच सस्ती लेकिन मुनाफेदार घटना हो सकती है। इस बीच शिक्षा भी ऐसा ही एक माध्यम बन गई है जिसकी मदद से विश्वसनीयता हासिल की जाती है।

तीसरा, वैश्वीकरण ने सामाजिक लोकतांत्रिक कुलीनों को एक बंद दरवाजे वाली वैश्विक दुनिया बनाने की इजाजत दी। उनके साथी नागरिक अब उनके साथी नहीं रह गए, वे बस सेवा प्रदाता और कल्याण योजनाओं के लाभार्थी रह गए हैं। वैश्विक कुलीन पूरी दुनिया का भ्रमण करते हैं, छुट्टियां मनाते हैं और उत्सव मनाते हैं। वे विविध प्रकार के भोजनों का आनंद लेते हैं। उन्होंने मोटे तौर पर जन सेवा का दायित्व त्याग दिया है। साझा जगहों का स्थान गेट से घिरी जगहें ले रही हैं। भारत में इसे साफ देखा जा सकता है। इसकी वजह से बहुत बड़े पैमाने पर अलग-थलग करने और त्यागने की भावना उत्पन्न हुई है।

ऐसे मे आश्चर्य नहीं कि फासीवाद और लोकलुभावनवाद बहुत तेजी से सामाजिक लोकतांत्रिक सहमति का स्थान ले रहे हैं। कमजोर आत्म-सम्मान, त्यागे जाने की भावना राजनीतिक लामबंदी के लिए उपयुक्त होती हैं। सोशल मीडिया इसे और गति देता है। इस बीच ऐसे प्रोपगंडा की स्वीकार्यता बढ़ी है जो नस्लीय या धार्मिक अल्पसंख्यक प्रवासियों आदि को शत्रु के रूप में पेश करता है। लोकलुभावन राजनीतिक करने वाले नेता समृद्धि बढ़ाने के लिए लोकतांत्रिक पहुंच का इस्तेमाल करने में बहुत अधिक रुचि नहीं दिखाते। बहरहाल, उनके पास यह तकनीकी और वाणिज्यिक प्रोत्साहन होता है कि वे सस्ती वस्तुओं की खपत बढ़ाएं ताकि उनका आधार संतुष्ट रहे और सांठगांठ वाले उनके पूंजीवादी समर्थक अमीर बने रहें।

यह इतिहास में पहले भी हुआ है और यह दिन भी बीत जाएंगे क्योंकि एक दिन यह धोखा नागरिकों के समक्ष स्पष्ट हो जाएगा। परंतु इतिहास हमें सिखाता है कि इसमें लंबा समय लग सकता है क्योंकि आज के नेता हिटलर या स्टालिन जैसे नहीं बल्कि फ्रांको, मार्कोस या साल्जार जैसे कमजोर अधिनायकवादी नेताओं के समान हैं। ऐसा इसलिए है कि वे कम साझा विभाजक का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे इसे राजनीतिक टिकाऊपन और सुदीर्घता के साथ दोबारा प्रस्तुत करते हैं जबकि इस दौरान वे उस आबादी की निंदा करते हैं जिस पर उनका शासन होता है और जिसे वे आम सहमति और कम आत्म-सम्मान की स्थिति में ला चुके होते हैं।

(लेखक ओडीआई, लंदन के प्रबंध निदेशक हैं)

First Published : April 16, 2024 | 9:17 PM IST