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वोडाफोन संकट: ठोस उपायों की दरकार, विचारधारा की नहीं

वोडाफोन को बचाया जाए या नहीं, यह निजीकरण या राष्ट्रीयकरण पर किसी की राय का प्रश्न नहीं है — यह इस बात पर निर्भर करता है कि किसी विशेष परिस्थितियों में क्या कारगर सिद्ध होगा।

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आर जगन्नाथन   
Last Updated- July 11, 2025 | 11:07 PM IST

राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज जब ज्यादा से ज्यादा पेचीदा और विविधता भरे होते जा रहे हैं तब नीति निर्माण के लिए वैचारिक चश्मे के इस्तेमाल का खास फायदा नहीं रह गया है। आज दुनिया के किसी भी देश को पूंजीवादी या साम्यवादी नहीं कहा जा सकता क्योंकि कोई भी देश इनकी मूल परिभाषा पर खरा नहीं उतरता। जब तकनीकी कंपनियों के पास इतनी ज्यादा ताकत है और वे हमारे बारे में इतना जानती हैं तो हम इतनी अधिक शक्ति है और जब वे हमारे बारे में इतना कुछ जानती हैं तो हम उन्हें सेवा प्रदान करने वाली निजी कंपनियां या सरकार जैसी विशेषताओं वाली निजी-सार्वजनिक इकाई क्यों न कहें? आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों का नियमन आम तौर पर राज्य का दायित्व है मगर हम इनमें से कुछ दायित्व निभाने की उम्मीद सोशल मीडिया से लगा लेते हैं।

इस आलेख में सभी मुद्दों पर बात नहीं होगी बल्कि एक ही सवाल पर ध्यान दिया जाएगा: किसी संस्था का निजीकरण करना कब सही रहता है और कब इसका उलट लोकहित में होता है? हम दो उदाहरणों से इसे देखेंगे: वोडाफोन और एयर इंडिया। दोनों में विचारधारा को ताक पर रखकर क्षेत्र और कंपनी के हिसाब से समाधान की जरूरत थी। हम देखेंगे कि क्या कारगर है।

लग रहा है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने वोडाफोन आइडिया मामले में खुद को उलझा लिया है। कंपनी डूब रही है मगर सरकार ऊहापोह में है कि बचाने की उसकी गुहार पर क्या किया जाए। दूरसंचार मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सीएनबीसी टीवी-18 पर साक्षात्कार में कहा कि कंपनी के भारी-भरकम बकाये को हिस्सेदारी में नहीं बदलेंगे। सरकार के पास 49 फीसदी हिस्सेदारी पहले से है, इसलिए और बकाये को हिस्सेदारी में बदला गया तो वोडाफोन सरकारी कंपनी बन जाएगी।

इधर एयरटेल ने बेहतर हालत मे होने के बाद भी अपने बकाये के एक अंश को हिस्सेदारी में बदलने की मांग कर मुश्किल बढ़ा दी। अब केवल वोडाफोन के लिए पैकेज लाना सही नहीं ठहराया जा सकेगा। इस बीच बैंक वोडाफोन को और अधिक कर्ज देने से कतरा रहे हैं क्योंकि महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (एमटीएनएल) तकनीकी रूप से डीफॉल्ट कर गई है। कंपनी पर ऋणदाताओं के 8,000 करोड़ रुपये से ज्यादा बकाया हैं, जिन्हें कुछ बैंकों ने फंसा हुआ करार दिया है।

वोडाफोन के मामले में सरकार के पास बहुत कम विकल्प हैं। एक विकल्प है, उसे दिवालिया होने दें, जिसके बाद बैंक वसूली के लिए दिवालिया अदालत जाएं। ऐसे में बाजार में एयरटेल और जियो का ही दबदबा रह जाएगी क्योंकि भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) पहले ही जूझ रही है। दूसरा तरीका है वोडाफोन का राष्ट्रीयकरण करना और उसका बकाया बट्टे खाते में डाल देना। सरकार इक्विटी पूंजी डालकर अपना स्वामित्व होने पर ऐसा कर सकती है।

बाद में वह कंपनी का निजीकरण कर सकती है। इससे वह एयरटेल में इक्विटी डालने से भी बरी हो जाएगी क्योंकि इक्विटी डालने के मामले में सरकारी इकाइयों के साथ अलग बरताव किया जाता है। तीसरा विकल्प, सरकार एयरटेल और जियो से वोडाफोन के सर्कल्स का कुछ हिस्सा (ज्यादातर कर्ज के बगैर) खरीदने के लिए कह सकती है ताकि ग्राहक अधर में न रह जाएं। सरकार ने एयर इंडिया के मामले में भी ऐसा ही किया था।

सरकार इस मामले में सही से विचार नहीं कर रही है। ज्यादा होड़ के नाम पर वोडाफोन को घिसटते रहने देना कोई विकल्प नहीं है। बहुत अधिक पूंजी की जरूरत वाले ऐसे उद्योग में तो बिल्कुल नहीं, जहां बहुत कम कंपनियों का होना नई बात नहीं है। सरकार को कारोबार में रहना चाहिए या नहीं, इसका फैसला आप केवल विचारधारा के बल पर नहीं कर सकते।

एयर इंडिया के मामले में सरकार ने सही फैसला किया कि वह विमानन कंपनी नहीं चला सकती और उसने कंपनी को टाटा समूह के हवाले कर दिया। तीन साल बीत गए मगर टाटा समूह भी कंपनी को ठीक से चलाने में संघर्ष कर रहा है। हालिया विमान हादसों ने कंपनी की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। इससे पता चलता है कि निजीकरण कोई रामबाण नहीं है। तेजी से फैसले लेना आज सरकार के लिए ही नहीं बल्कि निजी क्षेत्र के लिए भी जरूरी है।

टाटा विमानन क्षेत्र में शायद इसलिए लौटी क्योंकि रतन टाटा को यह कारोबार पसंद था। परंतु अब एयर इंडिया को चलाने का जोश और जज्बा जगाने के लिए वह भी नहीं हैं तो टाटा समूह को सोचना होगा कि उसे एयर इंडिया को कैसे चलाना चाहिए। उसे शायद आकार कम करने की जरूरत है। उच्च गुणवत्ता वाली एयर इंडिया घाटे की आशंका वाली भारीभरकम कंपनी से हर सूरत में बेहतर होगी। सरकार को भी यह पता होना चाहिए कि रक्षा और बैंकिंग जैसे रणनीतिक क्षेत्रों के अलावा बाकी सरकारी क्षेत्र के साथ उसे क्या करना है।

एयर इंडिया के निजीकरण के पहले वह कुछ कंपनियों (भारत पेट्रोलियम, शिपिंग कॉरपोरेशन, कॉन्कॉर और आईडीबीआई बैंक) में हिस्सेदारी बेचना चाहती थी मगर वह एजेंडा कहीं गुम हो गया लगता है। आईडीबीआई बैंक को इसी वित्त वर्ष में बेचे जाने की बात तो कही जा रही है मगर पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। जो बैंक 2019 की विलय प्रक्रिया से छूट गए उनमें से कुछ का निजीकरण होगा या बैलेंस शीट कमजोर रहने पर मजबूत बैंकों के साथ उनका विलय कर दिया जाएगा, कहा नहीं जा सकता। सरकारी बैंकों की बैलेंस शीट फिलहाल मजबूत हैं, जिससे सरकार को उन्हें अपने पास ही बनाए रखने का भरोसा मिलता है।

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के दो साल बाद विनिवेश विभाग का नाम बदलकर निवेश और सार्वजनिक संपत्ति प्रबंधन विभाग (दीपम) कर दिया गया। उसके बाद बैंकों को बचाने और कुछ मंत्रियों तथा अफसरशाहों द्वारा उनका दुरुपयोग रोकने के बजाय पूरा ध्यान सार्वजनिक निवेश में से लाभांश कमाने तथा संपत्तियों का मुद्रीकरण करने में लग गया। लेकिन वोडाफोन ने वह समस्या एक बार फिर सामने ला खड़ी की है। कंपनी पर 2.3 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है, जिसमें बड़ी हिस्सेदारी सरकारी बैंकों की है।

कंपनी ने डीफॉल्ट किया या वह खत्म हुई तो बैंकों की बैलेंस शीट को झटका लगेगा। एक सरकारी कंपनी बीएसएनएल मुनाफे से कोसों दूर है, दूसरी डीफॉल्ट कर गई है और अर्द्ध सरकारी कंपनी वोडाफोन की हालत खस्ता है तो सवाल यह है कि सरकार की दूरसंचार नीति आखिर है क्या? जब वोडाफोन में आधी हिस्सेदारी सरकार की ही है और दिवालिया होने से बचने के लिए वह बार-बार सरकार तथा बैंकों से गुहार लगा रही है तो उसके राष्ट्रीयकरण से क्यों कतराना?

जब कोई सार्वजनिक या निजी कंपनी होड़ में पिछड़ती है तो केवल संचालन के दम पर उसे बचाया नहीं जा सकता। तब विचारधारा के हिसाब से राष्ट्रीयकरण या निजीकरण का पक्ष नहीं लेना चाहिए क्योंकि अलग-अलग परिस्थितियों में इनमें से कोई भी काम कर सकती है। धारणा यह भी है कि जो सरकार कंपनी चलाने में दखल नहीं देती उसे उन कंपनियों को चलाते रहने का पूरा अधिकार है। मगर यह दूरदर्शिता नहीं है।

आज नहीं तो कल मोदी सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र में सुशासन की विरासत तैयार करने का मन बनाना ही होगा, जिसका मतलब है कि कुछ का निजीकरण होने दिया जाए और बाकी को सरकारी दखल से दूर रखा जाए। बीच का रास्ता नहीं है और नेक इरादों से ही सुशासन नहीं आ जाता। निजीकरण के लिए या सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूत करने के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता जताना जरूरी नहीं है बशर्ते निर्णय सोच समझकर लिए जाएं। मगर अभी तो हमें यही नहीं पता कि करना क्या है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

First Published : July 11, 2025 | 11:07 PM IST