अरसे बाद पटरी पर लौटी उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के चलते जनता का भला नहीं कर पा रही है।
केंद्र से पैकेज बार-बार की मांग करने वाली सूबे की मुखिया मायावती को शायद इस बात की कोई फिक्र नहीं है कि राज्य में मौजूद आर्थिक संसाधनों का कितना इस्तेमाल हो रहा है। बीते चार सालों से यूपी का बजट घाटा शून्य है औैर राजस्व प्राप्ति शानदार रही है। साथ ही केंद्रीय राजस्व में भी उसका हिस्सा बढ़ा। कर्ज को माफ करने, भुगतान सरलीकरण और ब्याज दरों के पुनर्निधारण ने अचानक उत्तर प्रदेश की माली हालत को बदल कर रख दिया है।
कभी 12 से 14 फीसदी तक ब्याज देकर कर्ज लेने वाला उत्तर प्रदेश को यही कर्ज चार फीसदी की दर से चुकाना पड़ रहा है। इतना ही नहीं, कर्ज वापसी की मियाद बढ़ने से प्रदेश सरकार के खजाने पर सालाना बोझ 2500 से 3000 करोड़ रुपये घटा है।
केंद्रीय राजस्व में यूपी सरकार का हिस्सा बढ़ जाने के बाद अब करीब 10,000 करोड़ रुपया सालाना अतिरिक्त आमदनी सरकार के खजाने में जा रही है। इसे कुदरत का करिश्मा ही कह सकते हैं कि उत्तर प्रदेश में आबकारी, मनोरंजन, व्यापार और उत्पाद कर, सभी अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने में सफल रहे हैं।
खुद मुख्यमंत्री मायावती इस राजस्व उगाही के लिए अपने अधिकरियों की पीठ थपथपाती हैं। मुख्यमंत्री राजस्व सफलता, तरलता और लगातार बढ़ रहे संसाधनों से इतना गदगद हैं कि वे इसका इस्तेमाल भी केंद्र पर हमला बोलने में कर रही हैं। मायावती ने कहा कि वैट लगाने के बाद प्रदेश में रोजमर्रा की वस्तुओं पर कर घटा है, वहीं राजस्व में बढ़ोतरी हुई है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि मुद्रास्फीति लगातार बढ़ रही है, जिसे काबू कर पाना मनमोहन सरकार के वश के बाहर है।
हालांकि इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि तमाम योजनाओं के लिए आबंटित पैसों का इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। सरकार के पास धन है, लेकिन खर्च करने की इचछाशक्ति का अभाव है। खजाना भरा पड़ा है और जनता बेहाल है। यह है प्रदेश की हालत।
वित्तीय वर्ष 2007-08 को खत्म होने में अब कुछ दिन ही बचे हैं और योजनागत व्यय का 40 फीसदी बिना खर्च के सरकारी खजाने की शोभा बढ़ा रहा है। बीते साल सरकार ने बिना किसी राजकोषीय घाटे के 1.09 लाख करोड़ रुपये का बजट पेश किया। जो इस साल बढ़कर 1.21 लाख करोड़ रुपया हो गया।
इस साल 31 मार्च को खत्म हो रहे वित्तीय वर्ष में उत्तर प्रदेश सरकार ने दलित छात्रों के वजीफे के लिए 425 करोड़ रुपये आबंटित किए जबकि जनवरी खत्म होने तक कुल 74 करोड़ रुपये ही बांटे जा सके। जाहिर है, या तो सरकार को दिलित छात्र ही नहीं मिले या फिर अधिकारी अपना फर्ज निबाहने में नाकाम रहे।
दलितों की एक और महत्वपूर्ण योजना स्पेशल कंपोनेंट प्लान का और बुरा हाल है। इस योजना के मद में सरकार ने बीते बजट में 5000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया, जिसे इस साल बढ़ाकर 7500 करोड़ रुपये कर दिए गए।
हैरत की बात है कि बीते साल के 5000 करोड़ रुपये में से सरकार दलित उत्थन के लिए 15 फीसदी भी फरवरी तक खर्च नहीं कर पाई। केंद्र सरकार से योजनाओं, जैसे- रोजगार गारंटी योजना के लिए मिलने वाले धन का हाल भी कुछ बेहतर नहीं है। राहुल गांधी की बुंदेलखंड में ली गई चुटकी कि 100 रुपये में पांच रुपये भी गांव नहीं पहुंचता, कुछ गलत नहीं है।