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ट्रंप के फैसलों से मची उथल-पुथल के फायदे

अमेरिकी राष्ट्रपति के निर्णयों से कुछ समय के लिए जो बाधाएं आई हैं वे हमें मौजूदा विश्व व्यवस्था से हटकर बेहतर विकल्प तलाशने एवं उन पर विचार करने का अवसर दे रही हैं। बता रहे है

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आर जगन्नाथन   
Last Updated- February 10, 2025 | 10:46 PM IST

सफेद आलीशान इमारत में रहने वाला 78 साल का एक व्यक्ति अपने देश और पूरी दुनिया को झटके दे रहा है। यह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप है। पद संभालने के बाद पखवाड़े भर बाद ट्रंप अमेरिका में अवैध तरीके से रहने वाले हजारों लोगों को रोजाना उनके देश भेज रहे हैं, अतीत में भेदभाव के शिकार हुए वर्गों को अधिक मौके देने वाली नीतियां देश के संस्थानों से खत्म कर दी हैं, अमेरिका को पेरिस जलवायु संधि और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से बाहर निकाल लिया है, विकासशील देशों को दी जा रही मदद रोक दी है, हजारों संघीय कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया है और व्यापारिक साझेदारों (कनाडा तथा मेक्सिको) तथा प्रतिद्वंद्वियों (चीन) पर भारी शुल्क थोप दिए हैं। इससे भी बड़ी बात है कि अभी तो यह शुरुआत है।

भारत भी जल्द ही ट्रंप के निशाने पर होगा। लेकिन ट्रंप के दूसरे उथल-पुथल मचाने वाले कदमों का इंतजार करते हुए उन पर फौरन प्रतिक्रिया देने से बेहतर है कि हम ठीक से उनका आकलन कर लें। अपने पहले कार्यकाल के उलट ट्रंप एक के बाद धड़ाधड़ निर्णय लेते जा रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उनके कई फैसलों को आगे जाकर चुनौती दी जाएगी और शायद उन्हें पलट भी दिया जाए। फैसले लेने के लिए उनके पास तीन से छह महीने का समय है, जिसके बाद न्यायालय, विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी और उनकी नीतियों से प्रभावित दूसरे लोग जवाबी हमला करेंगे। ट्रंप एक हाथ से देने और दूसरे से लेने यानी सौदेबाजी के लिए मशहूर हैं और इसीलिए हो सकता है कि उनके शुरुआती कदम मोलभाव के लिए उठाए गए हैं (मेक्सिको और कनाडा के साथ बातचीत के बाद शुल्क टाल दिया गया है)। लेकिन ट्रंप अपने मतदाताओं को संदेश दे रहे हैं कि उन्होंने जो भी वादे किए थे पूरे किए जा रहे हैं चाहे बाद में उनमें से कुछ को पलट दिया जाए। अपनी नाकामी का दोष तो वह अपने शत्रुओं पर मढ़ ही सकते हैं।

ट्रंप के निर्णयों से कुछ समय के लिए बाधाएं जरूर आई हैं मगर यह कहना जल्दबाजी मानी जाएगी कि वह दुनिया को नुकसान ही पहुंचाएंगे और उनसे कोई फायदा नहीं होगा। भू-राजनीति और अर्थशास्त्र को समझदारी भरे रास्ते पर लाने के लिए इस समय कुछ उथलपुथल तो जरूरी लग रही है। भारत में हमें भी उन मुश्किल विषयों पर बात शुरू करनी चाहिए, जिनसे अभी तक हम केवल बचते आए हैं क्योंकि यहां वाम-उदार धड़ा तय कर रहा था कि दुनिया कैसे चलनी चाहिए। अगर हम ध्यान देते तो पाते कि जो दुनिया हमें दिखाई गई थी वह बिखरने लगी है।

खुद को ट्रंप की जगह रखकर सोचिए। दो जंग चल रही हैं, जिनकी बड़ी कीमत अदा करनी पड़ रही है, वैश्वीकरण बिखर रहा है, अवैध आव्रजन नियंत्रण से बाहर हो गया है और सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा रहा है। इन सबके साथ अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए अतिरिक्त डॉलर छापने पड़ रहे हैं तथा कर्ज का बोझ बढ़ रहा है। ऐसे में आम तरीकों से काम नहीं चलेगा।

हमें ट्रंप का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उनके कारण हम राष्ट्रवाद पर बिना किसी हिचक के बात कर सकते हैं और जलवायु परिवर्तन एवं शून्य कार्बन उत्सर्जन लक्ष्यों के बारे में ऊटपटांग धारणाओं पर सवाल उठा सकते हैं। ट्रंप के कारण ही हम शिक्षा तथा रोजगार में किसी एक तबके को बिना सोचे समझे तरजीह देने के फायदे-नुकसान पर चर्चा कर सकते हैं, वैश्वीकरण तथा मुक्त व्यापार के फायदों पर सवाल उठा सकते हैं और बेहद कम समय में दूसरे देशों से बहुत अधिक लोगों के आ जाने से होने वाले नुकसान पर भी चर्चा कर सकते हैं।

ट्रंप की वजह से जो प्रभाव पड़े हैं, उन पर मेरा विश्लेषण पेश है। सबसे पहले, ‘अमेरिका फर्स्ट’ का सीधा मतलब है कि अमेरिका अधिक अलग-थलग रुख अपनाएगा और उसका जोर उत्तर तथा दक्षिण अमेरिका पर दबदबा कायम करने पर रहेगा। ट्रंप की नीतियां 19वीं शताब्दी में चर्चित ‘जेम्स मोनरो सिद्धांत’ की याद दिलाती हैं, जिसके मुताबिक उत्तर और दक्षिण अमेरिका संयुक्त राज्य अमेरिका के ही प्रभाव वाले हिस्से हैं। इसीलिए ट्रंप ने कनाडा और मेक्सिको को धमकाया है तथा ग्रीनलैंड को खरीदने की पेशकश कर डाली है।

दूसरी अहम बात अधिक शुल्क लगाना है, जिसके कारण विश्व व्यापार धीमा पड़ जाएगा और आर्थिक गति तेज करने के लिए सभी देशों को घरेलू मांग पर निर्भर होना पड़ेगा। मगर इसका फायदा यह होगा कि हमें नए व्यापारिक रिश्ते बनाने और अमेरिका समेत तरजीही साझेदारों के साथ मुक्त व्यापार समझौते करने का मौका मिलेगा। यह ज्यादा निष्पक्ष अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था तैयार करने का मौका भी है, जहां फायदे और नुकसान में रहने वालों का पता लगाया जा सकता है और नुकसान की भरपाई की जा सकती है। खुली व्यापार व्यवस्था में किसी तरह की बंदिश नहीं होती।

तीसरी बात, पेरिस समझौते और डब्ल्यूएचओ से अमेरिका के बाहर आने पर हमें जलवायु नीतियों पर दोबारा विचार करने तथा नेट-जीरो उत्सर्जन लक्ष्यों पर सवाल करने का मौका मिलेगा। ये लक्ष्य काफी दूर (भारत ने 2070 का लक्ष्य तय कर रखा है) हैं और जो आज नीतियों की हिमायत कर रहे हैं, गलत साबित होने पर वे सफाई देने या माफी मांगने के लिए जीवित नहीं बचे होंगे। स्वास्थ्य नीतियां राष्ट्रीय प्राथमिकताओं से तय होंगी विश्व व्यवस्था के कहने पर नहीं। जब हमारी अर्थव्यवस्था 10 लाख करोड़ रुपये की हो जाएगी तब हम भी संयुक्त राष्ट्र को अपना हिस्सा नहीं देने की धौंस दिखाएंगे या सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता मिले बगैर शांति अभियानों में शामिल होने से इनकार कर सकेंगे।

चौथी बात, सीमाओं और अवैध आव्रजन पर नियंत्रण हम सभी के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए। विदेशियों की बहुत अधिक आमद और आबादी का ताना-बाना बदलने से केवल ट्रंप परेशान नहीं हैं। पूरा यूरोप परेशान है और भारत में भी स्थिति ऐसी ही है। चीन, जापान, कोरिया, वियतनाम समेत तमाम बड़े एशियाई देशों ने आव्रजन बंद कर रखा है। हमें उचित आव्रजन नीति चाहिए अवैध तरीके से आकर बसे लोगों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने वाले वाम-उदारवादियों की बेजा नीतियां नहीं।
पांचवीं बात, डायवर्सिटी, इक्वैलिटी, इनक्लूजन यानी विविधता, समानता और समावेश की राह से अमेरिका के हटने के बाद विचार करना चाहिए कि बेहतर सामाजिक एवं आर्थिक परिणामों के लिए किस तरह की नीतियां कारगर होती हैं। अगर बहुत अधिक लोग हाशिये पर रहें और पीछे छूट जाएं तो सामाजिक स्थिरता कैसे आ सकती है। लेकिन डीईआई के मंत्र को लंबे समय तक साथ घसीटते रहने की भारी कीमत अदा करनी पड़ती है क्योंकि इससे योग्यता तथा मेधा का तिरस्कार होता है। अमेरिका को इसका नुकसान महसूस होने लगा था। डीईआई का विरोध अमेरिका में रहने वाले भारतीयों के हित में भी है क्योंकि जाति के नाम पर वहां के उदारवादी उन्हें निशाना बनाने लगे थे।

देखा जाए तो डीईआई का असली गढ़ भारत ही है। राजनीतिक रूप से हम आरक्षण खत्म तो कर नहीं सकते मगर हमें यह पूछना जरूर शुरू कर देना चाहिए कि आरक्षण का कोटा बढ़ाए बगैर विविधता सुनिश्चित करने और सबको साथ लेकर चलने के बेहतर तरीके कौन से हैं और क्या उन्हें आजमाया नहीं जा सकता।
व्हाइट हाउस में ट्रंप के आने से बेहतर उपाय तलाशने का मौका मिला है क्योंकि पुराने उपाय और विचार बेअसर हो रहे हैं। अगले कुछ महीने यह सोचने में बीत सकते हैं कि ट्रंप भारत के खिलाफ क्या कदम उठाएंगे। इस समय का इस्तेमाल हम संरक्षणवाद से लेकर आरक्षण के लिए होहल्ला करते रहने की अपनी सबसे खराब नीतियों पर दोबारा विचार करने के लिए भी कर सकते हैं। अगर हम भारतीय अर्थव्यवस्था को लाखों नई नौकरियां देने के लायक बना लेंगे तो आरक्षण का कोटा बढ़ाने का दबाव खुद ही कम होता जाएगा।

लब्बोलुआब यह है कि जब स्वयं अमेरिका शुल्क, मुक्त व्यापार, वैश्वीकरण, बजट घाटे, निजीकरण, विनियमन, प्रतिस्पर्द्धा और उनसे जुड़ी नीतियों पर अपना पुराना रुख त्याग चुका है तो हमें उनकी तरफदारी करते रहने की क्या जरूरत है? हमारा पूरा ध्यान अपने हितों पर ही होना चाहिए और किसी और के हिसाब से चलने के बजाय अपने दोस्त और दुश्मन साफ तौर पर तय कर लेने चाहिए। हमें आगे बढ़ना चाहिए और सबसे पहले अपने तथा भारत (इंडिया फर्स्ट) के बारे में सोचना चाहिए।

 

First Published : February 10, 2025 | 10:46 PM IST