लेख

यूरोप से सबक: ‘अंगूठी चूमने’ से डॉनल्ड ट्रंप का समर्थन नहीं मिलता

वॉशिंगटन में यूक्रेन के मुद्दे पर डॉनल्ड ट्रंप के साथ मुलाकात में रीढ़ लचीली करने के बावजूद यूरोपीय देशों के नेता उन्हें प्रभावित कर पाने में नाकाम दिखे

Published by
श्याम सरन   
Last Updated- August 25, 2025 | 11:42 PM IST

एक बाहरी पर्यवेक्षक के लिए यह देखना कष्टप्रद था कि गत सोमवार को वाॅशिंगटन में यूक्रेन मुद्दे को लेकर हुई बैठक में दुनिया के कुछ सर्वाधिक ताकतवर देशों के नेता अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के समक्ष चापलूसी का प्रदर्शन कर रहे थे। इस बैठक में यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदीमिर जेलेंस्की के अलावा सात अन्य प्रमुख यूरोपीय नेता- फ्रांस के इमैनुएल मैक्राें, ब्रिटेन के कियर स्टार्मर, जर्मनी के फ्रेडरिक मर्ज, इटली की जॉर्जिया मेलोनी, फिनलैंड के एलेक्जेंडर स्टब, यूरोपीय संघ की अध्यक्ष उर्सूला वॉन डेर लेयेन और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के महासचिव मार्क रुटे शमिल थे। उन्होंने ट्रंप की स्वीकृति पाने के लिए उन्हें एक शांतिदूत, ‘हत्याएं रोकने’ के लिए प्रतिबद्ध नेता, और अपने मित्रों के प्रति उदार व सहानुभूतिपूर्ण व्यक्ति के रूप में सराहा।

कुछ यूरोपीय टिप्पणीकारों की तरह यह तर्क दिया जा सकता है कि इस प्रकार की सार्वजनिक और पूर्ण निष्ठा का प्रदर्शन दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश को अपने पक्ष में बनाए रखने की एक छोटी सी कीमत थी। उन्हें रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन द्वारा पिछले सप्ताह अलास्का में की गई नपी-तुली लेकिन बेहद प्रभावशाली प्रशंसा की रणनीति के साथ तालमेल बनाए रखना पड़ा। पुतिन ने ट्रंप को तत्काल युद्ध विराम की अपनी पूर्व मांग से हटने के लिए राज़ी कर लिया और उन्हें ‘बुनियादी कारणों’ को संबोधित करके शांति स्थापित करने की रूसी स्थिति को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया।

कई टीकाकार यह ध्यान देने में विफल रहे कि ट्रंप ने खुलकर यह घोषणा की है कि यूक्रेन को शांति की कीमत के रूप में ‘जमीन गंवाना’ स्वीकार कर लेना चाहिए। यह रूस के लिए भारी जीत है। व्हाइट हाउस में जेलेंस्की के साथ बैठक में उन्हें एक मानचित्र दिखाया गया और समझाया गया कि उन्हें कितनी जमीन गंवाने की मंजूरी दे देनी चाहिए। यूरोपीय नेताओं ने अपने बयानों में इस विषय से दूरी बनाई हालांकि यह इस पूरे संकट के केंद्र में है।

फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रों और जर्मनी के चांसलर मर्ज ने युद्ध विराम का मुद्दा उठाया जो जमीन के मुद्दे को टालने वाला था, लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप ने इसे खारिज कर दिया। अलास्का में रूस द्वारा व्यक्त की गई इस इच्छा पर काफी चर्चा हो रही है कि अगर शांति समझौता होता है तो वह यूक्रेन के लिए उचित सुरक्षा गारंटी पर विचार करेगा। लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप के विशेष दूत स्टीव विटकोफ ने सुझाव दिया कि इन गारंटियों के बीच, रूस ने उन उपायों की बात की थी जिन्हें रूसी घरेलू कानून में शामिल किया जा सकता है। यह हास्यास्पद है। वाॅशिंगटन बैठक पर रूसी आधिकारिक बयान में यूक्रेन की धरती पर नाटो देशों की किसी भी शांति सेना की तैनाती को स्पष्ट रूप से अस्वीकार किया गया है।

इससे पहले रूस ने अस्पष्ट संकेत दिया था कि चीन शांति समझौते में ‘गारंटर’ की भूमिका निभा सकता है। ट्रंप ने ऐसी किसी गारंटी में यूरोप की भूमिका को लेकर अमेरिकी समर्थन की बात कही लेकिन सक्रिय भागीदारी से इनकार किया। इन अस्पष्टताओं और विरोधाभासों के बावजूद यूक्रेन की ‘सुरक्षा गारंटी’ को बैठक की सबसे बड़ी कामयाबी बताया गया। इन बातों से क्षेत्र को लेकर होने वाली बात से ध्यान हटाने में मदद मिली। यूक्रेन अपनी इस मांग पर टिका हुआ है कि रूस क्रीमिया समेत 2024 से काबिज यूक्रेनी क्षेत्रों को खाली करे। 

विटकोफ और बाद में यूरोपीय नेताओं ने ‘नाटो के अनुच्छेद 5 जैसी गारंटी’ की बात कही। अनुच्छेद 5 के मुताबिक नाटो के हर सदस्य देश को दूसरे सदस्य देश पर आक्रमण की हालात में उसके बचाव में पूरी तरह उतरना होता है। इसमें कोई किंतु-परंतु नहीं चलता। यह याद रखना चाहिए कि 1994 का बुडापेस्ट समझौता किस प्रकार विफल रहा जहां यूक्रेन, बेलारूस और कजाखस्तान अपने परमाणु हथियार रूस को सौंपने को तैयार हुए थे और बदले में उन्हें अमेरिका,  ब्रिटेन और रूस से सुरक्षा गारंटी मिली थी। 

उसमें कहा गया था कि हस्ताक्षरकर्ताओं की स्वतंत्रता, संप्रभुता और मौजूदा सीमाओं का सम्मान किया जाएगा और उनके विरुद्ध बल प्रयोग या धमकी का इस्तेमाल नहीं होगा। खासतौर पर हस्ताक्षरकर्ताओं ने यह प्रतिबद्धता जताई कि अगर यूक्रेन के विरुद्ध कोई आक्रामकता दिखाई जाती है या परमाणु हमले की धमकी दी जाती है तो उसे पूरी मदद दी जाएगी। हालांकि, रूस ने अपनी ही शपथ का उल्लंघन किया। उस पर प्रतिबंध या राजनीतिक अलगाव जैसे कदम उठाए गए लेकिन उस पर कोई सैन्य दबाव नहीं बनाया गया।

अगर चापलूसी का उद्देश्य ट्रंप से अधिक सकारात्मक बरताव की अपेक्षा करना था तो इसमें नाकामी हाथ लगी। अब ट्रंप, पुतिन और जेलेंस्की के बीच एक त्रिपक्षीय बैठक हो सकती है। इस बात की संभावना कम है कि पुतिन बिना ऐसे संकेत के किसी बैठक में शामिल होंगे कि रूसी कब्जे वाली यूक्रेन की जमीन रूस के पास ही रहने दी जाएगी और साथ ही कुछ नया इलाका भी उसे दिया जाएगा। अब सवाल यही है कि क्या पुतिन अपनी मांगें कम करेंगे या फिर क्या उन्हें विश्वास है कि उन्हें जो चाहिए वह सब मिल सकता है?  

अगर पुतिन की अलास्का यात्रा के माहौल की तुलना वॉशिंगटन में पश्चिमी सहयोगियों की बैठक से करें, तो यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है कि ट्रंप की पुतिन के प्रति निकटता कुछ अलग नजर आई। ट्रंप ने युद्धविराम की अपनी लगातार मांग को केवल एक बैठक में ही छोड़ दिया। उन्होंने चेतावनी दी थी कि यदि रूस युद्ध नहीं रोकता, तो उस पर और उसके साथ व्यापार करने वालों पर और भी कठोर प्रतिबंध लगाए जाएंगे। वॉशिंगटन में आए नेताओं के स्वागत समारोह में ट्रंप को एक आगंतुक से यह कहते हुए सुना गया था कि पुतिन वास्तव में युद्ध समाप्त करना चाहते हैं और ‘वह एक समझौता चाहते हैं।’

भारत अलास्का और वॉशिंगटन से क्या सबक ले सकता है? पहला, एक अहंकारी नेता के आगे झुकना खुद के लिए नुकसानदेह है। इससे लगातार अपमान की राह खुल जाती है। दूसरा, यह धारणा त्याग दी जानी चाहिए कि रूस पर अतिरिक्त प्रतिबंधों को रोकने से भारत को रूसी तेल खरीदने पर लगाए गए अतिरिक्त 25 प्रतिशत शुल्क से राहत मिलेगी। ये दंडात्मक शुल्क रूस से अधिक भारत से संबंधित हैं। तीसरा, भारत को खुद को अमेरिका की शत्रुता की लंबी अवधि के लिए तैयार रखना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि हम यूरोपीय देशों द्वारा दिखाई गई पूर्ण अधीनता की पुनरावृत्ति से बचेंगे। आर्थिक पीड़ा से राहत पाने के लिए गरिमा और आत्मसम्मान का त्याग किसी भी तरह उचित नहीं है। 

भारत की प्रतिक्रिया संतुलित और सोच-समझ कर दी जानी चाहिए। हमें अमेरिका के साथ ऐसा व्यापार समझौता करने का विकल्प खुला रखना चाहिए जो हमारे हितों की रक्षा करे, साथ ही अमेरिकी पूंजी और तकनीक के लिए द्वार भी खोले।

चार, भारत को इस वास्तविक संभावना के प्रति सतर्क रहना चाहिए कि ट्रंप चीन के शक्तिशाली नेता शी चिनफिंग के साथ किसी ‘महासौदे’ की कोशिश कर सकते हैं। एक समय में जहां भारत भू-राजनीतिक रूप से एक लाभकारी स्थिति में था, अब उसे हाशिए पर धकेला जा रहा है और उसकी स्वतंत्र भूमिका कम होती जा रही है।

इस स्थिति में भारत को समझदारी, धैर्य और छोटे-छोटे लाभों की निरंतर खोज की नीति अपनानी चाहिए, बजाय इसके कि वह किसी बड़ी पहल की ओर बढ़े। यह तूफान भी गुजर जाएगा।

(लेखक विदेश सचिव रह चुके हैं)

First Published : August 25, 2025 | 11:42 PM IST