प्रतीकात्मक तस्वीर
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन (Vladimir Putin) के भारत दौरे से कुछ ही घंटे पहले एक बड़ी खबर आई है। भारत और रूस जल्द ही एक बड़े रक्षा समझौते को अंतिम रूप देने वाले हैं। समाचार एजेंसी ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस समझौते के तहत रूस से लगभग 2 अरब डॉलर में एक न्यूक्लियर पावर अटैक सबमरीन (nuclear-powered attack submarine) लीज पर ली जाएगी। इस रणनीतिक सौदे पर करीब 10 वर्षों से बातचीत जारी थी, जो अब पुतिन के भारत दौरे से पहले पूरी होने की संभावना है।
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पुतिन गुरुवार शाम लगभग 6:35 बजे नई दिल्ली पहुंचेंगे और 23वें भारत-रूस वार्षिक शिखर सम्मेलन में शामिल होंगे। यह उनकी फरवरी 2022 में यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद पहली भारत यात्रा होगी। अपनी इस यात्रा के दौरान पुतिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) के साथ वैश्विक और क्षेत्रीय मुद्दों पर बातचीत करेंगे।
दोनों देशों के बीच बातचीत मूल्य निर्धारण के मसलों के कारण धीमी पड़ गई थी। ब्लूमबर्ग ने सूत्रों के हवाले से बताया कि नवंबर में भारतीय अधिकारी रूस के एक शिपयार्ड का दौरा करने गए थे, जिससे दोनों पक्षों के बीच अंतिम समझौते तक पहुंचने में मदद मिली। भारत को उम्मीद है कि यह सबमरीन दो साल के भीतर आएगी, हालांकि परियोजना की जटिलता के कारण समय सीमा बढ़ भी सकती है।
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के भारत दौरे से पहले, नौसेना प्रमुख एडमिरल दिनेश के त्रिपाठी ने संकेत दिया कि न्यूक्लियर पावर अटैक सबमरीन की कमिशनिंग जल्दी ही होने वाली है। नई सबमरीन भारत के बेड़े में मौजूदा दो न्यूक्लियर पनडुब्बियों से बड़ी होगी।
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लीज समझौते में यह साफ कहा गया है कि रूसी पनडुब्बी का उपयोग युद्ध में नहीं किया जा सकेगा। इसका मुख्य उद्देश्य भारतीय क्रू को ट्रेनिंग देना और भारत की परमाणु पनडुब्बी संचालन क्षमता विकसित करने के प्रयासों का समर्थन करना होगा, ताकि देश में ऐसे समान प्लेटफॉर्म का निर्माण किया जा सके।
यह पनडुब्बी 10 वर्षों के लिए लीज पर ली जाएगी, जैसे कि भारत ने 2021 में वापस की गई पिछली रूसी पनडुब्बी के साथ किया था। रखरखाव (मेंटेनेंस) भी इस अनुबंध का हिस्सा होगा।
जैसे-जैसे हिंद महासागर क्षेत्र का रणनीतिक महत्व बढ़ रहा है, न्यूक्लियर सबमरीन में दुनिया की रुचि बढ़ी है। ऑस्ट्रेलिया AUKUS साझेदारी के माध्यम से ऐसी पनडुब्बियों का निर्माण करने के लिए अमेरिका और ब्रिटेन के साथ काम कर रहा है।
केवल कुछ ही देश के पास यह तकनीक है। इसमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन और रूस शामिल हैं।