सरकारों के लिए अपना रुख बदलना अक्सर कठिन होता है। इसमें यह स्वीकार करना शामिल है कि आपने पहले जो कदम उठाया वह शायद गलत रहा हो। इसका यह अर्थ भी हो सकता है आपको उन लोगों की भी सलाह सुननी चाहिए जिनके बारे में आपकी धारणा है कि या तो उन्हें सही जानकारी नहीं है या वे आपके हित में नहीं सोचते। परंतु कोई बात या तरीका गलत साबित हो जाने के बाद भी उस पर टिके रहना कहीं ज्यादा खतरनाक है।
पिछले दिनों पेश किए गए आम बजट ने कम से कम तीन अहम क्षेत्रों में यह दर्शाया कि वित्त मंत्रालय मशविरों पर ध्यान दे रहा है और नीतिगत दिशा भी बदल रहा है। यह बात खास तौर पर महत्त्वपूर्ण है क्योंकि हाल के वर्षों में आमतौर पर वर्तमान वित्त मंत्री और वित्त मंत्रालय की अफसरशाही पर यह आरोप लगता रहा है कि वे आलोचना को सुनना नहीं चाहते।
पहला बदलाव शायद व्यापार और शुल्क नीति में हुआ है। कम से कम 2016 से केंद्रीय बजट का स्वर संरक्षणवादी रहा है। हर तरफ शुल्क दरों में इजाफा किया गया है और हम उस दौर में लौटते दिखे, जहां बजट भाषणों में विभिन्न हितधारी समूहों और देसी उद्योगों की मांग पर शुल्क दरों में बदलाव किया जाता रहा है। इससे न केवल रेंट सीकिंग (कोई नई संपत्ति बनाए बिना जोड़तोड़ से लाभ कमाना) को प्रोत्साहन मिला बल्कि देसी उपभोक्ताओं के लिए सामान महंगी भी हुआ।
इसका यह अर्थ भी है कि भारतीय कंपनियां वैश्विक मूल्य श्रृंखला में शामिल होने के लिए संघर्ष कर रही हैं। इससे हमारी निर्यात क्षमता पर बुरा असर पड़ा। वित्त मंत्रालय को बार-बार इस बारे में बताया गया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। व्यापारियों और उपभोक्ताओं की चिंताएं स्थानीय पूंजी की संरक्षणवादी मांगों के सामने अप्रासंगिक हो गईं।
इस बजट में ऐसे संकेत हैं कि अब संरक्षणवाद शायद खत्म होने की ओर बढ़ रहा है। वित्त मंत्री ने अपने भाषण में साफ कहा कि निर्यात में होड़ करने की क्षमता बढ़ाने का लक्ष्य है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘आम लोगों और उपभोक्ताओं के हित’ भी समग्र रूप से लक्ष्य में शामिल हैं। यह ठोस प्रस्तावों में भी नजर आया। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि बजट में “उपभोक्ताओं के हित में” मोबाइल फोन और प्रिंटेड सर्किट बोर्ड पर सीमा शुल्क कटौती का प्रस्ताव रखा गया।
वित्त मंत्री ने यह वादा भी किया कि अगले बजट के पहले ‘दरों के ढांचे की व्यापक समीक्षा’ की जाएगी ताकि उन्हें कारोबार के लिहाज से सहज और उचित बनाया जा सके। यह अन्य रचनात्मक सुझावों के लिए आमंत्रण प्रतीत होता है कि कैसे कम और स्थिर शुल्क दर उपभोक्ताओं और निर्यातकों दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण है।
दूसरा बदलाव प्रत्यक्ष कर नीति में नजर आया। बजट भाषण में कर नीति के लक्ष्य के रूप में ‘सामान्यीकरण’ को अपनाने की बात कही गई। आय कर अधिनियम की व्यापक समीक्षा का वादा किया गया ताकि निश्चितता बढ़ाई जाए और मुकदमेबाजी में कमी आए। इसके लिए तथा शुल्क दरों की समीक्षा के लिए छह महीने का समय तय किया गया।
पूंजीगत लाभ कर में हुए बदलाव की काफी आलोचना हुई है। इसमें कर दर को बदला गया है और दीर्घावधि के लाभ पर इसे बदलकर 12.5 फीसदी कर दिया गया तथा इंडेक्सेशन भी खत्म किया गया। वित्त मंत्री ने इसका बचाव करते हुए इसे प्रत्यक्ष करों को तार्किक बनाना कहा। एक अवसर पर उन्होंने कहा कि लोग लंबे समय से मांग कर रहे थे कि हर तरह की आय पर कर की एक जैसी दर हो और यह उसी दिशा में आरंभिक कदम है। संभव है इसी के कारण आयकर अधिनियम की समीक्षा की बात हो। इस मौके पर वित्त मंत्री ने स्पष्ट संकेत दिया कि यह प्रतिक्रिया कर नीति पर लंबे समय से जताई जा रही चिंताओं के कारण थी।
अंतिम बदलाव भी महत्त्वपूर्ण है और वह इस सरकार की समग्र आर्थिक नीति की दिशा के बारे में है। मौजूदा सरकार की सबसे पुरानी और नुकसान पहुंचाने वाली आलोचना यह है कि इसमें नीतिगत दृष्टि का अभाव है। इसमें निश्चित रूप से पता है कि भारत कहां जा सकता है और उसे कहां जाना चाहिए (‘विकसित भारत’ इसका नवीनतम अवतार है)। वह लक्ष्य तय कर सकती है और कई बार उन्हें पूरा कर सकती है, लेकिन इसके पास ऐसे समग्र सिद्धांत नहीं हैं जो नीति निर्माण को दिशा दिखा सकें।
इन सिद्धांतों के बिना नीतियों का चयन टुकड़ों में होता है। वे एक दूसरे के विपरीत भी हो सकती हैं। सामूहिक सोच के इस अभाव के कारण सरकार ने निर्यात को बढ़ावा देने का प्रयास किया और आयात को कम करने का। उसने देशव्यापी स्तर पर श्रम कानूनों में सुधार किए बिना विनिर्माण को बढ़ावा देने की कोशिश की। उसने नियमन मजबूत किए और नियामकों को कमजोर किया। यह सरकार के सामने मौजूद एक पहेली का जवाब भी है। पहेली यह कि उच्चस्तरीय अधिकारियों की व्यक्तिगत आश्वस्ति के बावजूद आखिर निवेशक क्यों कहते हैं कि उनके सामने अनिश्चितता के हालात हैं?
बहरहाल अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री ने अगले दौर के सुधारों का वादा किया जो छिटपुट लक्ष्य लेकर नही चलेंगे बल्कि एक नई ‘अर्थ नीति के ढांचे’ पर आधारित होंगे जो ‘आर्थिक विकास को लेकर समग्र दृष्टिकोण’ पेश करेगी। इसकी एक स्पष्ट वजह यह है कि समग्र ढांचा बनाना होगा ताकि राज्यों को कुछ जरूरी बदलाव करने के लिए मनाया जा सके। वित्त मंत्री ने भी यही संकेत दिया जब उन्होंने कहा कि राज्यों को प्रोत्साहन के रूप में नया ब्याज मुक्त ऋण दिया जा सकता है।
बहरहाल एकीकृत नीतिगत रणनीति की यह रियायत भी अतीत से एकदम अलग है। संभव है इसे पूरी तरह लागू नहीं किया जा सके लेकिन अगर इसे लेकर होने वाली चर्चाएं पारदर्शी और सार्वजनिक हों तो सुधारों को वह ऊर्जा मिलेगी जो काफी समय से नदारद है। उपरोक्त तीनों में एक बदलाव साझा है: उनके बारे में पहले बता दिया गया है और कम से कम दो की समीक्षा का स्पष्ट वादा किया गया है। इन समीक्षाओं में सार्वजनिक मशविरा और होने वाली चर्चाओं के बारे में जानकारी देते रहना शामिल है।
वास्तव में इसे चौथा स्पष्ट बदलाव कहा जा सकता है। अपने कार्यकाल में कई बार सरकार इसलिए दिक्कतों में पड़ी है क्योंकि उसने मशविरे और सहमति निर्माण के फायदों की अनदेखी की। भूमि और कृषि कानून इसके बेहतरीन उदाहरण हैं क्योंकि उन अवसरों पर प्रधानमंत्री को खुद उन्हें वापस लेना पड़ा। परंतु अनेक अन्य कानून हैं जिन्हें पारित किया गया लेकिन इसके लिए राजनीतिक नुकसान झेलना पड़ा। संशोधित दंड संहिता इसका एक उदाहरण है।
अब एकतरफा निर्णय लेना बंद करने का समय है। आम चुनावों में मतदाताओं की सबसे बड़ी मांग यही दिखी। शायद सरकार ने भी यह सुन और समझ लिया है।