बीते कुछ वर्षों में एक ऐसे विफल हो चुके विचार ने दोबारा सर उठाया है जो पिछले काफी समय से नदारद था और वह है औद्योगिक नीति। सरकार द्वारा अपने पसंदीदा कारोबारियों को अर्थव्यवस्था के तमाम क्षेत्रों में लाभ पहुंचाया जा सकता है, यह धारणा कभी समाप्त नहीं हुई थी। सबसे महत्त्वपूर्ण है इस हस्तक्षेप का पैमाना, उसका उद्देश्य और उसके द्वारा तय उपाय।
इनमें से प्रत्येक मामले में पिछले स्तरों पर संशोधन हुए जो हर उस व्यक्ति के लिए काफी परेशानी खड़ी करने वाले हैं जिसे आर्थिक इतिहास की बुनियादी जानकारी भी हो। यह बात उस समय खासतौर पर दिक्कतदेह है जब औद्योगिक नीति व्यापार नीति को प्रभावित करे और किसी न किसी तरह की गैर प्रतिस्पर्धी दीवारें खड़ी करती है।
भारतीयों के लिए यह कल्पना करना मुश्किल है कि हमारा देश प्रभावी औद्योगिक नीति अपनाने के योग्य है या नहीं। मुझे पता है कि हमारा देश युवा है लेकिन 1.3 अरब की आबादी वाले देश में यह याद रखने वाले लोग भी पर्याप्त संख्या में होंगे ही कि पिछली बार जब सरकार ने विजेताओं की तलाश की थी तो क्या दिक्कतें आई थीं?
छोटे पैमाने पर यह किया जा सकता है जहां यह सुनिश्चित किया जा सके कि दो या तीन सामरिक क्षेत्रों या राष्ट्रीय सुरक्षा के महत्त्व वाले क्षेत्रों को पर्याप्त फंडिंग मिल सके और स्थानीय आपूर्ति श्रृंखलाएं हों। परंतु जब ऐसा विचार तमाम क्षेत्रों में फैलने लगता है और संक्रमण आपूर्ति श्रृंखलाओं में भी फैलने लगता है तो आश्चर्य होता है कि क्या नीतियां बनाने वाले सभी लोग सन 1991 के बाद पैदा हुए।
भारत इकलौता देश नहीं है जहां औद्योगिक नीति नए सिरे से उभर रही है। फॉरेन पॉलिसी नामक पत्रिका के ताजा अंक में पीटरसन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक्स के प्रेसिडेंट एडम पोसेन ने एक लंबा लेख लिखा है कि कैसे अमेरिका का मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान अदूरदर्शी है।
अमेरिका एक ऐसा देश है जहां लगातार दो अलग-अलग दलों की सरकारें होने के बावजूद वह विश्व व्यापार संगठन में अपना गतिरोध वाला रुख त्यागने में नाकाम रहा। उसने कई लक्षित टैरिफ और प्रतिस्पर्धी सब्सिडी पेश कीं और और उसने खुलकर आपूर्ति श्रृंखलाओं से संबंधित वाणिज्यिक निर्णयों को प्रभावित करने की कोशिश की। उसने बुनियादी और अग्रिम तकनीक वाले क्षेत्रों के लिए सब्सिडी की पेशकश की वह भी इतने बड़े पैमाने पर जिनकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
डॉ. पोसेन कहते हैं, ‘यह नीतिगत रुख देश में तो लोकप्रिय हो सकता है लेकिन यह चार विश्लेषणात्मक गलतियों पर आधारित है: खुद सौदेबाजी करना चतुराई है, आत्मनिर्भरता पाई जा सकती है, ज्यादा सब्सिडी देना बेहतर होता है, स्थानीय उत्पादन मायने रखता है।
इनमें से हर अनुमान पिछली दो सदियों के दौरान विदेशी आर्थिक नीति और उनके प्रभाव के शोधपूर्ण इतिहास के दौरान एकाधिक अवसरों पर विरोधाभासी साबित हो चुका है। चीन की ओर से बढ़ती चुनौती और अतीत के बदलावों की तुलना में आज के तकनीकी बदलाव तक कुछ भी इस हकीकत को बदल नहीं सकता।’
डॉ. पोसेन के लेख में दिए गए तर्क आंशिक रूप से उन विशिष्ट लाभों पर केंद्रित हैं जो अमेरिका को रेफरी की विशेष भूमिका और बहुपक्षीय व्यवस्था के समर्थन से हासिल हुए। उनके बिंदुओं में से कई उन आर्थिक ब्लॉक पर लागू होते हैं जिन्हें ऐसे ही कुछ लाभ हासिल हुए।
यूरोपीय संघ इसका एक उदाहरण है या फिर भारत जैसे देश जो छोटी अर्थव्यवस्था हैं लेकिन समय के साथ विकास चाहते हैं। अहम बात यह है कि किसी देश का सही लाभ उसकी श्रम शक्ति की उत्पादकता बढ़ाने से आता है। उत्पाकदता में इजाफा घरेलू स्तर पर अग्रिम तकनीक अपनाने से होता है, न कि उत्पादन को स्थानीय बनाने से। यकीनन उत्पादकता बढ़ाने वाली तकनीकों के उत्पादन को रोकने के प्रयास से दीर्घावधि में उत्पादन प्रभावित होगा।
भारत में इस दुविधा का सटीक उदाहरण है सोलर पैनल। सरकार में आंतरिक स्तर पर कुछ समय तक इस बात को लेकर मतभेद रही कि उसे बड़ी तादाद में पैनल आयात करके काम की गति तेज करनी चाहिए और बिजली निर्माण में होने वाला उत्सर्जन कम करना चाहिए या घरेलू निर्माण को गति देने के लिए शुल्क बढ़ाना चाहिए। अंत में उसने दूसरा रास्ता चुना जिसे अपनाने के नकारात्मक परिणाम सामने आए।
डर यह है कि चीन आपूर्ति श्रृंखला पर एकाधिकार कर लेगा। हालांकि यह दलील भी इस बारे में बिना किसी स्पष्ट मॉडल के दी जाती है कि जरूरत पड़ने पर इस एकाधिकार को तोड़ना कितना कठिन होगा। हम यहां सेमीकंडक्टर या दुर्लभ संसाधनों की बात नहीं कर रहे हैं। क्या चीन भारत जैसे बड़े और मजबूत औद्योगिक आधार वाले देश को लगातार और प्रभावी ढंग से ब्लैकमेल कर सकता है कि वह सोलर पैनल की उपलब्धता को बाधित कर देगा?
रूस गैस ने आपूर्ति को लेकर यूरोप को ब्लैकमेल किया लेकिन विफल रहा। सोलर पैनल का निर्माण तो गैस आपूर्ति पाइपलाइन की तुलना में काफी आसान है। यानी राष्ट्रीय सुरक्षा की दलील कारगर नहीं।
जापान से लेकर यूरोपीय संघ और अमेरिका से लेकर भारत तक समान सोच वाले देशों ने किसी न किसी हद तक चीन की चुनौती का सामना किया है। वह धमकी सही हो सकती है लेकिन प्रतिक्रिया को लेकर ठोस तरीके से विचार करना होगा। चीन के अनुचित व्यवहार से निपटने का एक तरीका यह हो सकता है कि हम उन व्यवहारों को खासतौर पर लक्षित करें, बजाय कि हर प्रकार के विदेश व्यापार और नि:शुल्क वाणिज्यिक चयन के। उस स्थिति में भी हमें यह तय करना चाहिए कि दीर्घावधि में हम इन उपायों के जरिये अपनी आर्थिक संभावनाओं को क्षति न पहुंचाएं।
अमेरिका के लिए डॉ. पोसेन की अनुशंसाएं इस प्रकार हैं: पहला, उसे सैन्य दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तकनीक की एक छोटी सूची पेश करनी चाहिए जिन्हें चीन को निर्यात नहीं किया जाना चाहिए और अमेरिका को भी पूरी तरह चीन के उत्पादन पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। दूसरा सार्वजनिक निवेश पर समान सोच वाले देशों के साथ समन्वय करना। ये दोनों सिद्धांत भारतीय नीति निर्माताओं द्वारा भी अपनाए जाने चाहिए। लक्ष्य यह होना चाहिए कि जनता का धन समझदारीपूर्वक व्यय किया जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उच्च लागत वाली अर्थव्यवस्था न उभरे और उत्पादन बढ़ाने वाली तकनीक को जल्द अपनाया जा सके।
अमेरिका अगर औद्योगिक नीति की उपयोगिता को नहीं समझता है तो वह तकनीक की दौड़ में नेतृत्व को शायद किसी प्रतिस्पर्धी के हाथों गंवा देगा लेकिन भारत के मामले में काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है। हम उन नीतियों की ओर वापस नहीं लौट सकते जो दशकों पहले नाकाम हो चुकी हैं। वह भी ऐसे समय में जब हमें तेज विकास की आवश्यकता है। संरक्षणवाद की ओर वापस लौटने या आत्ममुग्ध औद्योगिक नीति के जोखिम यह है कि हम अगली कुछ और पीढि़यों तक गरीब बने रहेंगे।