facebookmetapixel
अगला गेम चेंजर: हाई-स्पीड रेल 15 साल में अर्थव्यवस्था में जोड़ सकती है ₹60 लाख करोड़धीमी वेतन वृद्धि: मुनाफे के मुकाबले मजदूरों की आय पीछे, आर्थिक और सामाजिक चुनौतियां बढ़ींविकास के लिए जरूरी: भारत के अरबपतियों का निवेश और लाखपतियों की वापसीकफ सिरप से बच्चों की मौतें: राजस्थान और मध्य प्रदेश में जांच तेजयूरोप को डीजल का रिकॉर्ड निर्यात! कीमतों में आई तेजीअगस्त 2025 तक फसल बीमा प्रीमियम में 30% से ज्यादा की गिरावट, आक्रामक मूल्य नीति जिम्मेदारRBI ने व्यापारियों के लिए आयात भुगतान अवधि बढ़ाई, वैश्विक अनिश्चितता का बोझ कमअमेरिका से अब खरीद बढ़ा रहा भारत, ऊर्जा सुरक्षा पर असरRBI ने बैंकों को BSBD खाता सभी ग्राहकों के लिए अनिवार्य करने का निर्देश दियाअमेरिका से तेल आयात तेजी से घटा, अगस्त-सितंबर में 40% की गिरावट

इन्फ्लेशन टारगेट तय करने के तरीकों में हो बदलाव…

बात जब मुद्रास्फीति नियंत्रित करने के ढांचे की होती है तो सबसे पहले उस बिंदु पर विचार करने की जरूरत है जिसे केंद्र में रखा जा रहा है।

Last Updated- May 26, 2024 | 10:50 PM IST
Wholesale Inflation

नई सरकार को मुद्रास्फीति का लक्ष्य (Inflation target) निर्धारित करते समय व्यापक विचार-विमर्श करना चाहिए। बता रहे हैं अजय त्यागी

मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखने के लिए दुनिया के केंद्रीय बैंकों द्वारा तय लक्ष्यों के प्रभाव और अब उनके औचित्य पर सवाल खड़े होने लगे हैं। कोविड महामारी के बाद ब्याज दर-मुद्रास्फीति के समीकरण को सटीक समझने एवं इन्हें लेकर अनुमान लगाने में विफल रहने के लिए केंद्रीय बैंकों की आलोचना हो रही है।

उदाहरण के लिए भारत की वर्तमान स्थिति पर विचार किया जा सकता है। भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने 2020-21 और 2021-22 के दौरान ब्याज दरें काफी निचले स्तर पर रहने दीं।

मुद्रास्फीति 2021-22 के मध्य से बढ़नी शुरू हो गई परंतु केंद्रीय बैंक की नजर में यह अस्थायी मसला था, इसलिए इसे नजरअंदाज कर दिया गया।

इसके बाद अचानक मई 2022 में आरबीआई ने नीतिगत दर बढ़ाने का सिलसिला शुरू कर दिया। फरवरी 2023 तक रीपो दर 4 प्रतिशत से बढ़कर 6.5 प्रतिशत तक पहुंच गई और तब से यह अपरिवर्तित रही है। पिछले कुछ समय से बाजार यह कयास लगा रहा है कि आरबीआई (rbi) कब ब्याज दरों में कमी का सिलसिला शुरू करेगा।

कई विशेषज्ञों को लगता है कि वास्तविक ब्याज दर काफी अधिक है जो नए निवेश आने की राह में बाधा साबित हो रही है और इसके परिणामस्वरूप वृद्धि दर प्रभावित हो रही है। अब तर्क दिए जा रहे हैं कि रीपो दर बढ़ाने का उद्देश्य पूरा हो गया है, इसलिए अब आरबीआई को इसमें कमी की योजना स्पष्ट करनी चाहिए।

कुछ लोगों का कहना है कि वास्तविक ब्याज दरें 1.0-1.5 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। यह प्रश्न भी पूछा जा रहा है कि क्या मुद्रास्फीति साधने के लिए खुदरा मूल्य सूचकांक (cpi) उपयुक्त मानक है भी या नहीं।

कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व के कदमों का इंतजार किए बिना आरबीआई को दरें घटाने की पहल शुरू कर देनी चाहिए। हालांकि, कुछ ऐसे लोग भी हैं जो सीपीआई 4 प्रतिशत से नीचे रखने के लिए रीपो दर ऊंचे स्तरों पर रखने की हिमायत कर रहे हैं।

वहीं, कुछ लोगों ने मुद्रास्फीति नियंत्रित करने की आरबीआई की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए हैं। इस स्तंभ में भारत में मुद्रास्फीति नियंत्रित करने के वर्तमान ढांचे में बदलाव की आवश्यकता की समीक्षा की गई है। यह एक ऐसा विषय है जिसे जून में गठित नई सरकार को प्राथमिकता देना आवश्यक है। परंतु, इससे पहले मुद्रास्फीति पर आरबीआई के वर्तमान नजरिये पर विचार किया जाए।

आरबीआई खुदरा मूल्य सूचकांक (CPI) आधारित मुद्रास्फीति 4 प्रतिशत से नीचे लाना चाहता है और उसका यह सोचना बिल्कुल उचित है। वर्ष 2016 में संशोधित आरबीआई अधिनियम के अंतर्गत केंद्रीय बैंक के लिए खुदरा मुद्रास्फीति 4 प्रतिशत (2 प्रतिशत कम या अधिक) के इर्द-गिर्द रखना जरूरी है। कुछ अन्य मुद्रास्फीति सूचकांकों को लक्ष्य करने में आरबीआई अपनी इच्छाशक्ति का परिचय नहीं दे रहा है।

आरबीआई 2021-22 में अपने लक्ष्य के प्रति सावधान रहा होता तो वर्तमान में ऊंची वास्तविक ब्याज दर की स्थिति टाली जा सकती थी। आर्थिक वृद्धि दर के नजरिये से भी आरबीआई के पास नीतिगत दरों में कटौती के कोई खास कारण मौजूद नहीं हैं।

देश का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) वित्त वर्ष 2024 में 7.6 प्रतिशत दर से बढ़ने की उम्मीद है जबकि वित्त वर्ष 2025 में इसके 7 प्रतिशत से अधिक रहने का अनुमान है। जहां तक अमेरिकी फेडरल रिजर्व के कदमों की अनदेखी करने की बात है तो इसकी कुछ सीमाएं हैं क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व्यापार एवं वित्त में डॉलर के प्रभाव से सभी अवगत हैं।

बात जब मुद्रास्फीति नियंत्रित करने के ढांचे की होती है तो सबसे पहले उस बिंदु पर विचार करने की जरूरत है जिसे केंद्र में रखा जा रहा है।

सामान्य तौर पर इस्तेमाल होने वाले विभिन्न मुद्रास्फीति सूचकांक किन उद्देश्यों को पूरा करते हैं? ये सूचकांक एक दूसरे से कैसे जुड़े हैं और क्या वे मुद्रास्फीति की विरोधाभासी तस्वीर पेश करते हैं? इन सूचकांकों के घटकों और उनके भारांश पर दोबारा विचार करने की आवश्यकता है।

सीपीआई, थोक मूल्य सूचकांक (WPI)और जीडीपी डिफ्लेटर तीन ऐसे सूचकांक हैं जिनका उपयोग अर्थशास्त्री अक्सर विभिन्न विश्लेषणों में करते हैं। ये निश्चित रूप से विभिन्न उद्देश्यों को पूरा करते हैं मगर उनमें होने वाले बदलाव के बीच आपसी समन्वय के अभाव ने कई लोगों को सोचने पर विवश कर दिया है।

इन सूचकांकों की उपयोगिता पर काफी बहस हुई है और इनकी गणना विधि पर भी संदेह जताए गए हैं। इनसे जुड़ी चर्चा एवं टिप्पणी सार्वजनिक पटल पर उपलब्ध हैं। वित्त वर्ष 2023-24 में जीडीपी डिफ्लेटर असामान्य रूप से निचले स्तर पर रहा था जिससे जीडीपी आंकड़े ऊपर चले गए।

यह विशेषज्ञों के बीच चर्चा का विषय रहा है। कुछ लोगों का तर्क है कि आरबीआई को मुद्रास्फीति का लक्ष्य तय करते समय जीडीपी डिफ्लेटर का भी ध्यान रखना चाहिए। तकनीकी बातों में नहीं उलझते हुए सामान्य सोच तो यही कहती है कि केंद्रीय बैंक के लिए मुद्रास्फीति सूचकांक की संरचना कुछ इस तरह होनी चाहिए कि यह सामान्य लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं एवं सेवाओं में आने वाले बदलावों को परिलक्षित करे।

महंगाई का सबसे अधिक असर आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों पर होता है, ऐसे में इन लोगों का जीवन मुश्किल बनाने वाली मुद्रास्फीति सबसे पहले नियंत्रित की जानी चाहिए।

विश्वसनीय सर्वेक्षण कराने और संबंधित पक्षों के साथ चर्चा के बाद सूचकांक के घटकों में लगातार संशोधन किया जाना चाहिए। अब मुद्रास्फीति के वर्तमान लक्ष्य (4 प्रतिशत) पर ध्यान केंद्रित करते हैं। सरकार ने आरबीआई के साथ विचार-विमर्श के बाद 2016 में पांच वर्ष की अवधि के लिए यह तय किया था।

बाद में इसे 2021 में अगले पांच वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया। आखिर, यह लक्ष्य (2 प्रतिशत कम या अधिक) तय करने का आधार क्या है? मुद्रास्फीति दर-आर्थिक वृद्धि के समीकरण पर विचार करने के बाद यह जानना किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है कि आर्थिक वृद्धि एवं अर्थव्यवस्था के लिए कौन सी दर केंद्र में रखी जाए।

क्या उपयुक्त मुद्रास्फीति लक्ष्य तय करते समय लगभग पूर्ण रोजगार हासिल करना या अर्थव्यवस्था में उत्पादन में अंतर को कम करना लक्ष्य होना चाहिए? सरकार को इस मामले पर नए सिरे से विचार करना चाहिए और मुद्रास्फीति दर तय करने से पहले व्यापक विमर्श करना चाहिए।

इसके पीछे अहम बिंदु, धारणा एवं गणना विधि सार्वजनिक पटल पर रखे जाने चाहिए। वर्ष 2021-22 में आरबीआई जब मुद्रास्फीति लक्ष्य हासिल करने में असफल रहा तो उसने अपने बचाव में कहा कि मौद्रिक नीति मुद्रास्फीति नियंत्रित करने का उस समय उपयुक्त जरिया नहीं था क्योंकि तब मूल कारण आपूर्ति में व्यवधान था।

इस तर्क को नकारा नहीं जा सकता। परंतु, यह सवाल भी उठता है कि ऐसी स्थिति में फिर कौन सा विकल्प बचता है? क्या आरबीआई को उसकी जवाबदेही को लेकर सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए?

इससे फिर हमारे समक्ष कानून के तहत आरबीआई की जिम्मेदारी और पारदर्शिता तय करने से जुड़े विषय आ जाते हैं। आरबीआई अधिनियम, 1934 की धारा 45 जेडएन में प्रावधान है कि अगर आरबीआई लगातार तीन तिमाहियों में औसत मुद्रास्फीति 6 प्रतिशत से नीचे रखने में विफल रहता है तो उसे सरकार को इस बारे में एक रिपोर्ट सौंपनी होगी।

रिपोर्ट में लक्ष्य हासिल नहीं कर पाने के कारण, समस्या से निपटने के उपाय एवं इनके क्रियान्वयन के बाद मुद्रास्फीति लक्ष्य हासिल करने में लगने वाले समय का जिक्र करना होगा।

आरबीआई ने इस तरह की एक रिपोर्ट नवंबर 2022 में सरकार को सौंपी थी। यह रिपोर्ट क्या कहती है और सरकार ने उस पर क्या कदम उठाए हैं? मुद्रास्फीति पर होने वाली बहस और यह ध्यान में रखते हुए कि मुद्रास्फीति के नियंत्रण से बाहर जाने की शुरुआत 2021-22 की दूसरी छमाही में शुरू हुई थी, सरकार अगर उपयुक्त रूप से सार्वजनिक पटल पर रिपोर्ट की मुख्य बातों और उसके द्वारा उठाए गए कदमों का खुलासा करे तो बेहतर होगा।

(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और सेबी के चेयरमैन रह चुके हैं)

First Published - May 26, 2024 | 10:50 PM IST

संबंधित पोस्ट