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रोजगार संकट का कोई त्वरित समाधान नहीं, शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए वियतनाम से सीखने की जरूरत

अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री ने पांच योजनाओं की घोषणा की जिनमें से अधिकांश ज्यादा कर्मचारियों की भर्ती करने पर नियोक्ताओं को अधिक प्रोत्साहन देने की बात करती हैं।

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प्रसेनजित दत्ता   
Last Updated- August 20, 2024 | 9:53 PM IST

बेरोजगारी पर आने वाली सभी नकारात्मक रिपोर्टों को लंबे अरसे तक खारिज करने के बाद सरकार ने आखिरकार वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बजट भाषण में यह बात स्वीकार की है कि उसके सामने बेरोजगारी की समस्या है। मुख्य आर्थिक सलाहकार द्वारा तैयार की गई आर्थिक समीक्षा में भी रोजगार सृजन और बेरोजगारी के मुद्दे पर अधिक ध्यान दिया गया है।

अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री ने पांच योजनाओं की घोषणा की जिनमें से अधिकांश ज्यादा कर्मचारियों की भर्ती करने पर नियोक्ताओं को अधिक प्रोत्साहन देने की बात करती हैं। इनमें से एक योजना खास तौर पर दिलचस्प थी।

वित्त मंत्री चाहती हैं कि देश की शीर्ष 500 कंपनियां प्रशिक्षुओं की भर्ती करें और उन्हें प्रशिक्षण दें। प्रशिक्षुओं को हर महीने 5,000 रुपये देने की बात है और उन्हें एक बार 6,000 रुपये की एकमुश्त सहयोग राशि भी मिलेगी। सरकार प्रशिक्षुओं की छात्रवृत्ति पर होने वाले ज्यादातर खर्च की भरपाई करेगी। कंपनियां उसका बचा हिस्सा देंगी और प्रशिक्षण पर होने वाला खर्च उठाएंगी। इसका अंतिम ब्योरा अभी आना है।

ये विचार बहुत व्यावहारिक नहीं हैं। इनसे यह भी लगता है कि सरकार इस समस्या को पूरी तरह समझ ही नहीं पा रही है। भारत में बेरोजगारी समस्या है, युवा बेरोजगारी ज्यादा बड़ी समस्या है, रोजगार सृजन समस्या है और युवाओं में उपयुक्त कौशल की कमी भी समस्या है। इनसे दो बातें सामने आती हैं। पहली, हर वर्ष भारी तादाद में कार्य बल में शामिल हो रहे युवाओं को या उनमें से ज्यादातर को रोजगार देने के लिए पर्याप्त नौकरियां सुनिश्चित की जाएं। दूसरी बात, यह सुनिश्चित किया जाए कि रोजगार तलाश रहे युवा वाकई में भर्ती के योग्य हैं।

दुनिया के सभी देश रोजगार के पर्याप्त मौके तैयार करने की समस्या से जूझ रहे हैं, लेकिन बड़ी आबादी और युवाओं की ज्यादा तादाद के कारण भारत सबसे ज्यादा प्रभावित है। आप किस तरह के आंकड़े उठाते हैं, उसके हिसाब से भारत में कामकाजी आबादी 1 करोड़ से 1.4 करोड़ हो जाती है। इनकी भर्ती के लिए रोजगार के मौके तैयार करना मुश्किल है चाहे अर्थव्यवस्था सालाना 7-8 प्रतिशत की दर से ही क्यों न बढ़ रही हो।

सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि की हरेक इकाई के बदले सृजित रोजगार की संख्या पिछले कुछ दशकों में दुनिया भर में काफी कम हुई है क्योंकि तकनीकी प्रगति और दूसके कारणों से उत्पादकता में तेजी से इजाफा हुआ है। 1970 के दशक में भारत की अर्थव्यवस्था में आबादी के लिए रोजगार के मौके तैयार करने की क्षमता जीडीपी वृद्धि की लगभग 1 प्रतिशत थी और उस समय आबादी भी बहुत कम थी। वर्तमान दशक में रोजगार देने की क्षमता घटकर 0.1 फीसदी रह गई है। इस प्रकार 8 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि भी रोजगार के पर्याप्त मौके शायद ही तैयार कर पाएगी।

बड़ी तादाद में नई नौकरियां तैयार करने का एक ही तरीका है – भारत को विनिर्माण और सेवा क्षेत्र की नई क्षमताओं का आकर्षक केंद्र बनाया जाए। कारोबारी सुगमता बढ़ने की तमाम बातों के बावजूद हकीकत यह है कि भारत में कारोबारियों को अनुपालन, नियमन और दूसरी कई बाधाओं से निपटना पड़ता है। कई विनिर्माताओं के लिए भारत में बहुत बड़ा बाजार है मगर कारखाना लगाना वियतनाम जैसे देश में ज्यादा आसान है। यह भी एक वजह है कि भारत वैश्विक विनिर्माण केंद्र नहीं बन पाया है।

भारत को अधिक आर्कषक केंद्र बनाने के लिए बुनियादी ढांचे और लॉजिस्टिक्स में निवेश के साथ केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर काम करना होगा और देश में ठिकाना तलाश रहे वैश्विक विनिर्माण (एवं सेवाएं) निवेशकों के लिए मुश्किलें कम करनी होंगी। इन्हें उन देसी उत्पाद कंपनियों को भी सहारा देना चाहिए, जो भारत में उत्पादन के बजाय अब भी चीन से आयात पर ज्यादा निर्भर हैं।

दूसरी समस्या यानी कौशल की कमी से निपटने के लिए सरकार ने कौशल विकास कार्यक्रम आजमाए हैं। मगर यह समाधान सही नहीं है। सबसे पहले हमें अपनी चरमराई शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त करनी चाहिए। दुनिया का कोई भी देश शिक्षा पर ध्यान दिए बिना तेजी से आगे नहीं बढ़ सका है। इस बात पर अक्सर बहस होती है कि सरकार शिक्षा के लिए पर्याप्त राशि खर्च कर रही है या नहीं। यह बहस किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाती क्योंकि शिक्षा केंद्र और राज्य दोनों की जिम्मेदारी है। वर्ष 1976 में एक संशोधन के जरिये शिक्षा को राज्य सूची से समवर्ती सूची में डाल दिया गया था।

शिक्षा में सुधार के लिए हमारी केंद्र तथा राज्य सरकारों के नीति-निर्माताओं को एकदम नए सिरे से सोचना होगा। यह वास्तव में सच्चे संघवाद की परीक्षा होगी क्योंकि इसके लिए केंद्र और राज्य को एक-दूसरे का सहयोग भी करना होगा और मिलकर काम भी करना होगा।

12वीं कक्षा तक सभी के लिए उच्च गुणवत्ता वाली मुफ्त शिक्षा आवश्यक है। इसका मतलब है कि स्कूल चलाने, अच्छे शिक्षकों को प्रशिक्षित करने और शिक्षकों को पुरस्कृत करने में राज्यों को ज्यादा सक्रिय भूमिका निभानी होगी। वियतनाम इस बात का अच्छा उदाहरण है कि शिक्षकों को प्रशिक्षण और प्रोत्साहन देकर इसे संभव बनाया जा सकता है।

कोचिंग संस्थान बंद करने होंगे क्योंकि स्कूल पढ़ाने की अपनी जिम्मेदारी इन संस्थानों पर डाल देते हैं। साथ ही स्कूलों का सही संचालन सुनिश्चित करने के लिए नियामकीय क्षमता भी बढ़ानी होगी। कॉलेज, विश्वविद्यालयों या तकनीकी संस्थानों के स्तर पर कुछ भी कर लें, जब तक स्कूली शिक्षा ठीक नहीं की जाएगी, कोई फायदा नहीं होगा। अगर बुनियादी शिक्षा और साक्षरता ही कमजोर है तो किसी को कौशल भी नहीं दिया जा सकता।

इसके लिए दीर्घकालीन योजना बनानी होगी और ध्यान देना होगा। अगर यह काम ठीक से किया जाता है तो अब से एक दशक बाद नतीजे दिख सकते हैं। लेकिन अब हाथ पर हाथ धरकर बैठने का विकल्प नहीं बचा है।

(लेखक बिज़नेस टुडे एवं बिज़नेस वर्ल्ड के पूर्व संपादक तथा संपादकीय सलाहकार कंपनी प्रोजैक व्यू के संस्थापक हैं)

First Published : August 20, 2024 | 9:30 PM IST