सरकारें, वित्तीय बाजार नियामक और सामाजिक नागरिक संगठन सभी पृथ्वी के पर्यावरण को बेहतर बनाने में वित्तीय बाजारों की भूमिका को अहम मान रहे हैं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि निवेशक अपने निजी लाभ पर सार्वजनिक हित को प्राथमिकता दें और पूंजी प्रवाह को टिकाऊ लक्ष्यों के साथ जोड़ा जा सके। वित्तीय मदद या धन की अपनी भूमिका है लेकिन कई वजह हैं जिनके चलते यह जलवायु परिवर्तन का आधार नहीं हो सकता है।
वित्तीय बाजार जोखिम-रिटर्न के आकलन पर काम करते हैं। वे प्रतिस्पर्धी कारोबारों में जोखिम समायोजित रिटर्न के आधार पर संसाधन लगाते हैं जो बदले में, उत्पाद बाजारों में कीमतों को प्रतिबिंबित करते हैं और वे कीमतें उपभोक्ता विकल्पों को प्रतिबिंबित करती हैं।
अगर कोयला आधारित कोई उपक्रम मौजूदा मांग और आपूर्ति के आधार पर मुनाफे वाला है तो यह तब तक निवेश आकर्षित करेगा जब तक कि कोई नियामकीय बाधा या आर्थिक नुकसान न हो। निवेशकों से यह अपेक्षा करना उचित नहीं है कि वे कीमतों, रिटर्न और जोखिमों की नियमित रूप से उपेक्षा करेंगे। यह वैसा ही है मानो किसी ग्राहक से कहा जाए कि वह चीन में बना सामान न खरीदे जबकि चीन का सामना बाजार में बिकता रहे। बाजार ऐसे काम नहीं करता।
बाजार विकल्पों को दर्शाता है न कि उन्हें परिभाषित करता है। बाजार और नियमन यह तय करते हैं कि कौन-सी वस्तु कितनी उत्पादित होगी और खपत की जाएगी तथा यह कैसे होगा। अधिक प्रभावी और ईमानदार रणनीति यह होगी कि नुकसानदेह कारोबारों को शुरू में ही रोक दिया जाए बजाय कि यह उम्मीद करने के कि बाजार उनसे दूरी बनाएगा। इलेक्ट्रिक व्हीकल को इसलिए नहीं अपनाया गया क्योंकि निवेशक इनमें निवेश करना चाहते थे बल्कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इसने उपभोक्ताओं और उत्पादकों के चयन को प्रभावित किया।
पर्यावरण को पहुंचने वाला नुकसान शायद सबसे बड़ा नकारात्मक बाह्य कारण है, जहां प्रदूषक अपने कार्यों की पूरी पारिस्थितिक लागत वहन नहीं करते हैं, तथा उपभोक्ता आमतौर पर केवल निजी लागत का भुगतान करते हैं, व्यापक पर्यावरणीय क्षति का नहीं।
इसका किताबी हल एकदम साधारण है: बाह्य कारक की कीमत तय करें। ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि उत्पादक और उपभोक्ता दोनों उत्पादन और खपत के बिंदु पर ही पर्यावरण को पहुंच रही क्षति की लागत चुकाएं। इससे पहले के दशकों में परियोजना मूल्यांकन में अक्सर पर्यावरणीय और सामाजिक लागतों को ध्यान में रखते हुए छिपे हुए मूल्य निर्धारण को शामिल किया जाता था, जो बाजार मूल्यों में शामिल नहीं होता था। मूल्य निर्धारण में ऐसी लागतों को शामिल करने से नुकसानदेह प्रोत्साहनों को दुरुस्त किया जा सकता है और बाजार के व्यवहार को टिकाऊ विकास लक्ष्यों के अनुरूप बनाया जा सकता है।
बाजार अर्थव्यवस्था में यह संभव है। जब नुकसानदेह चीजों की पूरी लागत कीमतों में नजर आती है तो उनकी खपत में कमी आती है, मुनाफा कम होता है, उत्पादन कम हो जाता है और वित्तीय मदद की मांग स्वत: समाप्त होने लगती है। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसा बाजार नुकसानदेह चीजों के उपभोक्ताओं या उत्पादकों के लिए अव्यवहारिक हो जाता है और इस प्रकार उनमें पैसा लगाने वालों के लिए भी। जो कारोबार ठीक नहीं चलते उनमें पूंजी की आवक रुक जाती है क्योंकि बाजार कीमतों के संकेत पर प्रतिक्रिया देते हैं। ऐसे में पूरी लागत आरंभ में ही जुड़ जानी चाहिए न कि वित्तीय आवंटन के बाद।
पर्यावरण के अनुकूल बदलाव के लिए पूरी तरह वित्तीय मदद पर निर्भर रहने की अपनी सीमाएं हैं। पहली बात, वित्त भविष्य पर वर्तमान की तुलना में अधिक असर डालता है। टिकाऊ वित्त नई पूंजी को पर्यावरण के अनकूल कारोबार में डालता है। इससे भविष्य की अर्थव्यवस्था बनाने में मदद मिलती है।
पर्यावरण के अनुकूल बदलाव के लिए पूरी तरह वित्तीय सहायता पर निर्भर रहने की अपनी सीमाएं हैं। पहली बात तो यह कि वित्तीय मदद वर्तमान से अधिक भविष्य को प्रभावित करती है। सतत वित्तीय मदद नई पूंजी को हरित या पर्यावरण के अनुकूल कारोबार की ओर निर्देशित करती है जिससे भविष्य की अर्थव्यवस्था के निर्माण में मदद मिलती है। परंतु इससे वर्तमान अर्थव्यवस्था को कोई खास मदद नहीं मिलती जो लगातार प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर निर्भर है। केवल नई फंडिंग रोकने से ये उद्योग बंद नहीं होंगे न ही हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि उपभोक्ता रातोंरात इनसे उत्पाद खरीदना बंद कर देंगे। यही नहीं, पर्यावरण के अनुकूल कारोबारों में शुरूआत में ही काफी लागत चुकानी होती है। ऐसे में वे पुरानी कंपनियों से मुकाबला करने में दिक्कत महसूस करेंगे। जब तक हम जड़ जमाए बैठे प्रदूषणकारी उद्योगों का सामना करते हुए हरित निवेश को बढ़ावा नहीं देते, तब तक हम एक ऐसे भविष्य का निर्माण करने का जोखिम उठाते हैं जिसमें कुछ हिस्सों में पर्यावरण की अनुकूलता के साथ ही प्रदूषण भी बना रहेगा।
दूसरी बात, कंपनियां एकल इकाई नहीं बल्कि पोर्टफोलियो होती हैं। एक बड़ा कारोबारी समूह एक ही छत के नीचे कोयला संयंत्र, सौर ऊर्जा, जल शोधन इकाई और उपभोक्ता वस्तुओं का कारोबार चला सकता है। एक कंपनी तंबाकू और अस्थमा में काम आने वाला इनहेलर दोनों बना सकती है जबकि दूसरी डीजल और इलेक्ट्रिक वाहन दोनों बना सकती है। कुछ उत्पादों के उपभोग संबंधी बाहरी प्रभाव उनके अंतिम उपयोग पर निर्भर करते हैं। उदाहरण के लिए ऊर्जा और रसायनों का उपयोग भी पर्यावरण के लिए लाभप्रद या हानिकारक तरीकों से किया जा सकता है। तो काेई निवेशक केवल स्वच्छ भाग के लिए धनराशि कैसे दे सकता है? या यह कैसे सुनिश्चित करता है कि उत्पाद का उपयोग अच्छे उद्देश्यों के लिए किया जाए?
कहने की जरूरत नहीं कि वित्तीय बाजारों की कोई भूमिका नहीं। वे मूल्य निर्धारण में काफी प्रभावी हैं, लेकिन उत्पादों के लिए यह सकारात्मक भी है और नकारात्मक भी। वे कार्बन क्रेडिट जैसे उपायों के जरिये प्रदूषण के मूल्य निर्धारण और व्यापार में मदद कर सकते हैं। कैप एवं ट्रेड प्रणाली कुल उत्सर्जन की एक सीमा निर्धारित करती है और कंपनियों को उत्सर्जन अधिकारों का व्यापार करने की इजाजत देती है।
यह तीन अहम उद्देश्यों को पूरा करती है: पहला, प्रदूषण के लिए मूल्य तय करती है और बाहरी प्रभावों को आंतरिक बनाती है। दूसरा, लचीलापन बनाए रखती है, कंपनियों को अनुपालन के तरीके तय करने की इजाजत देती है और तीसरा, नवाचार को प्रोत्साहित करती है, लक्ष्यों से आगे निकल जाने वालों को पुरस्कृत करती है। नवीकरणीय ऊर्जा प्रमाण पत्र, जल उपयोग अधिकार और जैव विविधता प्रतिपूर्ति जैसे अन्य बाजार आधारित साधन भी इसी तर्क पर काम करते हैं।
सूचना समरूपता में वित्तीय बाजारों का प्रदर्शन बेहतर है। स्वैच्छिक पर्यावरण खुलासे अपर्याप्त हो सकते हैं। पर्यावरण प्रभावों की अनिवार्यता, मानकीकरण और विश्वसनीय रिपोर्टिंग की जरूरत है। वैसे ही जैसे कि सूचीबद्ध संस्थाओं के वित्तीय विवरणों के लिए होती है। केवल ऐसी पारदर्शिता से ही निवेशक और उपभोक्ता समझदारी भरा निर्णय ले सकते हैं।
धन न केवल जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में अहम है, बल्कि यह इसके प्रभावों के प्रति भी संवेदनशील है। बाढ़, तूफान और अत्यधिक गर्मी जैसी जलवायु आपदाएं बहुत बड़े पैमाने पर आर्थिक और वित्तीय नुकसान पहुंचाती हैं। कुछ तो वित्तीय स्थिरता की बुनियाद तक हिला देती हैं। कुछ क्षेत्र मसलन दूरसंचार आदि को अधिक नुकसान उठाना पड़ता है क्योंकि उनके सेल टावर और नेटवर्क को तूफानों से काफी अधिक नुकसान पहुंचता है। इसके बावजूद अधिकांश वित्तीय बाजारों ने इन जोखिमों का ठीक तरह से ध्यान नहीं रखा है। खुलासों में कंपनियों के जलवायु जोखिम का जिक्र होना चाहिए। इसमें परिदृश्य का विश्लेषण, दबाव परीक्षण भी होना चाहिए, खासकर संकटग्रस्त क्षेत्रों के लिए।
हमें बाजारों से उन समस्याओं को हल करने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए जिन्हें केवल नीतियां हल कर सकती हैं। एक वास्तविक हरित बदलाव के लिए हमें हानिकारक गतिविधियों को स्रोत पर ही रोकना या प्रतिबंधित करना होगा। पर्यावरण के बाह्य प्रभावों का पूरी तरह और पारदर्शी मूल्य निर्धारण करना होगा और सशक्त पर्यावरण संबंधी खुलासा अनिवार्य करना होगा। इन नीतिगत सीमाओं के दायरे में वित्तीय बाजार, पर्यावरण के अनुकूल अर्थव्यवस्था के समर्थन में कुशलतापूर्वक पूंजी आवंटित कर सकते हैं। टिकाऊ वित्त तभी कारगर होता है जब वह टिकाऊ अर्थव्यवस्था पर आधारित हो। इसके बिना यह पारंपरिक वित्त को ही पर्यावरण के अनुकूल लेबल के साथ दोबारा ब्रांडिंग करने से अधिक कुछ नहीं रह जाता।
(लेखक क्रमश: भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता बोर्ड के पूर्व चेयरपर्सन और राष्ट्रीय प्रतिभूति बाजार संस्थान के पूर्व निदेशक हैं)