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विदेश नीति का बदलता रुख: भारत में अमेरिकी विरोध बढ़ा, क्या नेहरूवादी जड़ों की ओर हो रही वापसी?

यह अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की वजह से नहीं है, न ही पिछले कुछ महीनों के दौरान बार-बार भारत को उनके द्वारा अनुचित रूप से निशाना बनाए जाने की वजह से है

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मिहिर एस शर्मा   
Last Updated- September 16, 2025 | 9:47 PM IST

दो दशक पहले यह विश्वास करना संभव था कि भारत के वैश्विक रुख के निर्धारण में आगे स्वत: स्फूर्त अमेरिका विरोध निर्णायक भूमिका नहीं निभाएगा। परंतु हाल के महीनों और वर्षों में यह स्पष्ट हो गया है कि पश्चिम के प्रति अविवेकी अविश्वास, तर्कसंगत स्तर तक कम होने के बजाय, भारतीय राजनीति में एक प्रमुख कारक बना हुआ है। वास्तव में यह कम होने के बजाय बढ़ता हुआ प्रतीत हो रहा है।

यह अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की वजह से नहीं है, न ही पिछले कुछ महीनों के दौरान बार-बार भारत को उनके द्वारा अनुचित रूप से निशाना बनाए जाने की वजह से है। यह तो फरवरी 2022 में यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के तुरंत बाद ही भारत के सार्वजनिक जीवन में एक स्पष्ट कारक के रूप में नजर आने लगा था। यूगव द्वारा तकरीबन छह माह पहले कराए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि ज्यादा भारतीय यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के लिए रूस से अधिक पश्चिम को जिम्मेदार मानते हैं।

इसके वैश्विक निहितार्थ हैं। अशोक विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर एनालिसिस ऑफ नेटवर्क डेटा ऐंड इनसाइट डेरिवेशन के एक अध्ययन ने दिखाया है कि यूक्रेन युद्ध के शुरुआती कुछ महीनों में ही भारत के टि्वटर उपयोगकर्ता बहस में रूस का पक्ष रखते हुए नजर आने लगे थे। यह पूरी तरह सोशल मीडिया द्वारा निर्मित अवधारणा भी नहीं थी। एक शोध पत्रिका ने प्राइमटाइम टेलीविजन की सामग्री का विश्लेषण किया और पाया कि ‘सबसे प्रमुख विषय जो इन आख्यानों से उभरता है, वह यह है कि अमेरिका को युद्ध का सबसे बड़ा लाभार्थी दिखाया गया।’ इसलिए, पिछले कुछ महीनों में अमेरिका विरोधी भावना में आई वृद्धि को केवल ट्रंप के अनुचित व्यवहार से पूरी तरह नहीं समझा जा सकता। वास्तव में, ट्रंप के कार्यकाल में बने तनावपूर्ण माहौल ने केवल उस भावना के लिए एक नया मंच प्रदान किया है, जो पहले से ही दिखाई दे रही थी।

कुछ मायनों में 2004 से 2024 के बीच के दो दशकों को स्वतंत्र भारत के इतिहास में अपवाद माना जा सकता है। केवल इसी अवधि में भारत के नेताओं ने खुद को एक हद तक यह इजाजत दी कि वे इस क्षेत्र में या दुनिया में अमेरिका को एक कारक मानते हुए सहज नजर आएं। यह भुलाना आसान है कि यह असहजता कभी कांग्रेस के नेतृत्व से सबसे अधिक जुड़ी हुई थी जिसने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पार्टी चलाने वाली अभिजात्य पीढ़ी (ऑक्सफर्ड-कैम्ब्रिज मेंं पढ़ी) से अमेरिकी अशिष्टता के प्रति एक प्रकार की उपेक्षा को विरासत में पाया था।

यह याद रखना होगा कि उस दौर की पीढ़ी में अमेरिका में पढ़ा केवल एक ही व्यक्ति उल्लेखनीय था और वह थे डॉ. आंबेडकर। 1956 तक भी इस विचार का समर्थन करना कठिन था कि गुटनिरपेक्षता का अर्थ शीत युद्ध के दोनों ध्रुवों से समान दूरी बनाए रखना है। भारत द्वारा स्वेज संकट में एंग्लो-फ्रांसीसी दुस्साहस की निंदा और हंगरी पर सोवियत संघ के आक्रमण के प्रति अपनाए गए रुख के स्वर में अंतर ने यह बात स्पष्ट कर दी थी। इसका अधिकांश हिस्सा उस व्यक्ति के व्यक्तित्व और पसंद से जुड़ा था, जिसे अच्छा या बुरा जैसा भी कहा जाए, वह अब तक भारत पर सबसे बड़ा प्रभाव छोड़ने वाला नेता रहा है।

वाल्टर क्रॉकर ने भारत के पहले प्रधानमंत्री पर अपने नोट्स में लिखा है कि नेहरू की सजगता के कारण उन्हें कुछ प्रकार के अमेरिकियों और अमेरिकी तौर-तरीकों से असहजता महसूस होती थी। वहीं डेनिस कुक्स का मानना है कि नेहरू की नीति में ब्रिटिश अभिजात वर्ग की अमेरिका-विरोधी सामाजिक पूर्वाग्रह और ब्रिटिश लेबर पार्टी के वामपंथी धड़े की अमेरिका-विरोधी नीतिगत सोच की झलक दिखाई देती है।

यह तो पूंजीवाद समर्थक भारतीय जनसंघ था जिसने शीत युद्ध के दौरान गाहेबगाहे कांग्रेस-समाजवादी गुटनिरपेक्षता की दिखावटी नीति का विरोध किया। जैसा कि राजनीतिक वैज्ञानिक राहुल सागर ने स्पष्ट किया है, 1960 के दशक तक जनसंघ अमेरिका के साथ घनिष्ठ संबंधों की वकालत कर रहा था। यद्यपि पश्चिमी देशों ने भाजपा के पूर्ववर्तियों के लिए राह आसान नहीं बनाई, क्योंकि 1965 तक पाकिस्तान की ओर उनका झुकाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा था।

1977 के अमेरिकी राजनयिक दस्तावेज, जो अब सार्वजनिक हो चुके हैं, उनमें नए विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की नियुक्ति का स्वागत किया गया था। इन दस्तावेजों में कहा गया कि वाजपेयी कांग्रेस की सोवियत समर्थक नीति के आलोचक थे, और उन्होंने अमेरिका में लोकतंत्र और स्वतंत्रता की प्रशंसा की। उसकी तुलना उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ की परिस्थितियों से की।

वर्तमान प्रधानमंत्री ने यकीनन कठिन हालात में भी अमेरिका के साथ रिश्तों में ठहराव और स्थायित्व रखने का प्रयास किया। यह उल्लेखनीय है क्योंकि उनके पास एक ऐसे देश को नापसंद करने की पर्याप्त वजह थी जिसने 2005 में उनका वीजा रोक दिया था। परंतु भाजपा नेतृत्व को भी यह एहसास हुआ है कि उसके कई मतदाता इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हैं। वे पश्चिम और अमेरिका को सभ्यतागत प्रतिस्पर्धी के रूप में देखते हैं, और उसकी सांस्कृतिक सोच को विस्तारवादी और शोषणकारी मानते हैं।

रूस या चीन के प्रति उनका रवैया ऐसा नहीं है। दरअसल, यही लोग देश की भविष्य की दिशा तय करेंगे और संभव है कि वे अमेरिका को लेकर ऐसा रुख अपनाएं जो मोदी की तुलना में नेहरू के दृष्टिकोण के अधिक निकट हो। संभवतः चीन को लेकर उनका अपनापन भी उतना ही सोच-समझकर लिया गया निर्णय है, जितना नेहरू का था।

First Published : September 16, 2025 | 9:42 PM IST