संयुक्त राष्ट्र महासभा ऐसे कार्यक्रमों और शिखर बैठकों का आयोजन करती है जो बहुपक्षीयता के संदर्भ में वर्ष की सबसे अहम घटनाओं को रेखांकित करती है। अगले महीने विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की सालाना बैठकें वॉशिंगटन में आयोजित होंगी। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन पर विभिन्न देशों का सम्मेलन मिस्र में तथा नवंबर में जी20 देशों की बैठक इंडोनेशिया के बाली शहर में होगी।
चीन के उभार और युद्ध के बाद की विश्व व्यवस्था की कमजोरी के चलते बहुपक्षीयता पर पहले ही दबाव था और महामारी तथा यूक्रेन पर रूसी आक्रमण ने इसे बुरी तरह झटका दिया है। वैश्विक बाजार आगे पीछे होते रहे हैं और अर्थशास्त्रियों को पहले अपस्फीति और फिर मुद्रास्फीति की चिंता सताती रही। अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि जी20 की बैठक हो भी पाएगी या नहीं। ऐसा इसलिए कि अनेक देशों के नेता फिलहाल रूस के राष्ट्रपति पुतिन के साथ दिखना नहीं चाहते।
इसमें भी दोराय नहीं कि विश्व व्यवस्था का सुरक्षा ढांचा उस चीज को रोकने में नाकाम रहा जिसे उन्हें रोकना चाहिए था और वह है यूरोप में जंग। वे महामारी के दौरान टीकों आदि को लेकर एकजुटता दिखाने में भी नाकाम रहे। भारत उन देशों में शामिल है जो इन कठिनाईपूर्ण वर्षों से न्यूनतम आंतरिक आर्थिक और राजनीतिक उथलपुथल से निपट सकते हैं। ऐसे में भारत सरकार के पास अवसर है कि वह बहुपक्षीय व्यवस्था में आस्था बहाल करने की दिशा में दुनिया का नेतृत्व करे। इस वर्ष के अंत में भारत को जी20 की अध्यक्षता संभालनी है, ऐसे में यह दोगुना जरूरी है कि भारत ऐसे तरीके तलाश करे जिनकी मदद से बहुपक्षीयता में सुधार किया जा सकता है। इसके बावजूद अभी यह स्पष्ट नहीं है कि भारत को अध्यक्षता मिलने से ऊर्जा और खाद्य सुरक्षा बढ़ाने में क्या मदद मिलेगी या यूक्रेन संकट के अन्य प्रभावों को कैसे कम किया जा सकेगा।
इस स्थिति में सरकार जिस व्यापक सिद्धांत पर विचार कर सकती है वह यह है कि भले ही बहुपक्षीय संस्थान मौजूदा संकट से निपटने में नाकामयाब रहे हों लेकिन इसकी वजह से उन्हें मजबूत बनाने में कोई कमी नहीं की जानी चाहिए तभी वे दीर्घकालिक समस्याओं से निपटने में सक्षम हो सकेंगे। खासतौर पर फिलहाल दो प्रमुख वैश्विक बदलाव हो रहे हैं जो बहुपक्षीयता को बहुत अधिक लाभ पहुंचा सकते हैं: वे हैं डिजिटल और जलवायु परिवर्तन।
पहले डिजिटल बदलाव की बात करते हैं। यह वैश्विक अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों को प्रभावित करेगा जिसमें विनिर्माण भी शामिल है। यही आगे चलकर करों, मुनाफे और मेहनताने के वैश्विक वितरण को निर्धारित करेगा। परंतु इसे सबके लिए नि:शुल्क व्यवस्था के रूप में विकसित नहीं होने दिया जा सकता है जैसा कि महामारी की प्रतिक्रिया में देखने को मिला। स्वाभाविक सी बात है कि कुछ देश अपनी तकनीकी बढ़त कायम रखना चाहेंगे। गत सप्ताह पता चला कि अमेरिकी सीनेटर इस बात का परीक्षण कर रहे थे कि ऐपल को आईफोन 14 की माइक्रोचिप तकनीक को चीनी निर्माता से साझा करने से रोका जा सकता है? यदि हां तो कैसे? ऐसा इसलिए ताकि इस क्षेत्र में अमेरिकी बढ़त कायम रखी जा सके। विभिन्न क्षेत्रों में निजता और इंटरनेट को लेकर अलग-अलग रवैये होंगे। यह बात अहम है कि 21वीं सदी की बहुपक्षीयता का ध्यान इस बात पर केंद्रित है कि डिजिटल क्रांति की संभावनाओं का इस्तेमाल सूचना के प्रसार, जानकारी जुटाने और पहुंच को व्यापक बनाने में किया जाए। डिजिटलीकरण के कारण उत्पन्न कई समस्याओं से निपटने में भारत सरकार का प्राथमिक हल एक तीसरा तरीका हो सकता है जो निजी क्षेत्र के नेतृत्व वाले अमेरिकी मॉडल और चीन के सरकारी मॉडल के बीच का होगा। भारत का रुख व्यापक तौर पर घरेलू डिजिटल नवाचार और मुनाफे को इजाजत देने का है, बशर्ते कि वे इलेक्ट्रॉनिक तथा जनहित की वस्तुओं के ढांचे के भीतर हो और उन्हें राज्य ने विकसित किया हो तथा उनका इरादा समतापूर्ण पहुंच और सबके लिए समान परिस्थितियां मुहैया कराना हो। भारत इस सिद्धांत तक किसी डिजाइन की वजह से नहीं बल्कि संयोगवश पहुंचा। दरअसल ऐसा आधार की सफलता की वजह से हुआ। सार्वजनिक रूप से विनियमित मध्यवर्ती कंपनियां जो व्यक्तिगत डेटा का प्रबंधन करती हैं, ऐसे प्लेटफॉर्म जहां बाजार और विक्रेता दोनों जा सकते हैं, और जो पारदर्शी ई-कॉमर्स की सुविधा देता है, सार्वभौमिक भुगतान प्रणाली, स्थानांतरणयोग्य डिजिटल प्रमाणपत्र तथा रिकॉर्ड, और यहां तक कि कोविन प्लेटफॉर्म को भी इसी व्यापक परिदृश्य में काम करता देखा जा सकता है। यह निजी मुनाफे और नवाचार की सुविधा देता है, पहुंच बढ़ाने में मददगार है और राजकोषीय और सुरक्षा चिंताओं को दूर करने में भी मददगार है। अगला कदम है यह समझना कि इसे विभिन्न राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्थाओं में कैसे प्रसारित किया जा सकता है, यह अंतरराष्ट्रीय व्यापार और निवेश में कैसे मदद कर सकता है और वैश्विक डिजिटल परिवर्तन में कैसे मदद कर सकता है। जलवायु संकट एक अन्य दीर्घकालिक विषय है जो अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगा। यहां बहुपक्षीय प्रयासों का ध्यान लंबे समय तक संकट की जिम्मेदारी तय करने में लगा रहा। यह दोष ऐतिहासिक रूप से अधिक उत्सर्जन करने वाले देशों मसलन पश्चिमी देशों तथा चीन जैसे प्रतिव्यक्ति अत्यधिक उत्सर्जन करने वाले देशों पर है। परंतु जिन देशों को ऐतिहासिक रूप से नुकसान उठाना पड़ा उनके पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि वे लाभान्वित होने वालों से किसी तरह की मांग कर सकें। ऐसे में जलवायु वार्ताओं का विफल होना लाजिमी है।
ऐसे में सही प्रयास तब होंगे जब हम समझेंगे कि दुनिया भर में किन क्षेत्रों, कंपनियों और लोगों को वैश्विक हरित बदलाव से संबद्ध अवसरों और खतरों के लिए तैयार रहना है। सूखे, बाढ़ और ऊर्जा असुरक्षा के रूप में खतरे तो जाहिर हैं। अवसर भी चाह जगाने वाले हैं। हालांकि भारत विनिर्माण के कई क्षेत्रों में पिछड़ चुका है। ऐसे में क्या वह नवीकरणीय ऊर्जा या ई-वाहन के क्षेत्र में बढ़त कायम कर सकता है? क्या भारत या अन्य उभरते देश हरित बदलाव के इन पहलुओं से लाभान्वित होगा यह धन की उपलब्धता पर निर्भर करेगा। विकासशील देशों में हरित परियोजनाओं को तमाम वित्तीय बाधाओं का सामना करना पड़ता है। उभरते विश्व की परियोजनाओं में जोखिम उठाने की क्षमता कम है। इसी प्रकार मुद्रा के उतार-चढ़ाव ने भी लागत को ऊंचा रखा है जिससे पूंजी की आवक को प्रोत्साहन नहीं मिला। बहुपक्षीय व्यवस्था को इन दिक्कतों से भी निपटना होगा।
विश्व बैंक की स्थापना फंड की ऐसी ही समस्याओं को दूर करने के लिए की गई थी। इसके बावजूद बहुपक्षीय विकास बैंक इस नए युग में ऋण व्यवहार अपनाने में बहुत धीमे रहे हैं। सरकारों को ऋण देने के बजाय इन बैंकों को निजी निवेश को बढ़ावा देना चाहिए, ऋण गारंटी देनी चाहिए और मिश्रित वित्तीय मदद की व्यवस्था करनी चाहिए। इस समस्या को हल किया जा सकता है क्योंकि अमेरिका से लेकर चीन और भारत तक सभी अंशधारक ऐसी व्यवस्था के पक्ष में हैं। इकलौता विरोध इन बैंकों के अफसरशाहों और प्रबंधन की ओर से होता है। विश्व बैंक के प्रेसिडेंट डेविड मालपास अगर जलवायु परिवर्तन संबंधी ऋण को लेकर प्रभावी काम नहीं करते तो उनको हटाए जाने का दबाव भी बढ़ रहा है। अगर भारत को जी20 की अपनी अध्यक्षता में जलवायु परिवर्तन पर बहुपक्षीयता का सार्थक काम सुनिश्चित करना है तो उसे न केवल बहुपक्षीय विकास बैंकों के संचालन का माहौल और उनका रवैया पूरी तरह बदलना होगा बल्कि एक नए, पर्यावरण केंद्रित बहुपक्षीय संस्थान की स्थापना का भी प्रस्ताव रखना होगा जो भविष्य में साझा विकास का आधार बने।