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भारत में राजनीतिक हिंदुत्व की ‘फ्री राइडर’ समस्या

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 6:42 PM IST

एक जानेमाने राजनीतिक सलाहकार ने पिछले दिनों एक ऐसी टिप्पणी की जिसने मेरा कुतूहल जगा दिया। उन्होंने कहा कि अगर केवल 50 प्रतिशत हिंदू भाजपा को वोट देते हैं तो इसका अर्थ यह है कि शेष 50 प्रतिशत लोगों को उसकी ‘हिंदू प्रथम’ की नीतियां पसंद नहीं।
यह बात सही नहीं है। बल्कि यह गलत है। इस आलेख में हम जो बातें करेंगे उससे कई लोग नाराज होंगे। इनमे कई अच्छे मित्र शामिल हैं। हम एक ऐसी अवधारणा की बात कर रहे हैं जिसे अर्थशास्त्री लंबे समय से मानते हैं। परंतु समाजशास्त्रियों और राजनीतिक विज्ञानियों ने समूह व्यवहार के अपने अध्ययनों में इनकी अनदेखी की है। इस अवधारणा को फ्री राइडर समस्या कहा जाता है। इसमें वस्तुओं एवं सेवाओं का गैर किफायती वितरण होता है और लोग या तो साझा संसाधनों में अपने हिस्से से अधिक का इस्तेमाल करते हैं या निर्धारित से कम भुगतान करते हैं। यह वैश्विक अवधारणा है लेकिन शायद राजनीतिक सलाहकार इससे अपरिचित थे।
अर्थशास्त्री जब इस समस्या की बात करते हैं तो उनके इरादे एकदम विशिष्ट रहते हैं। वे इसे ही बाजार विफलता का कारण भी बताते हैं। ऐसी ही विफलताओं का एक परिणाम यह है कि लोग बिना भुगतान किए किसी चीज से लाभान्वित होते हैं या उसे ग्रहण करते हैं। उन्हें रोका भी नहीं जा सकता है। इसे ही फ्री राइडिंग कहा जाता है क्योंकि इसमें अपवाद की गुंजाइश नहीं रहती।
हिंदुत्व भी हिंदुओं के लिए ऐसी ही एक चीज है जिसका बहिष्करण संभव नहीं है। यह एक ऐसी चीज है जिसे यदि एक अतिरिक्त व्यक्ति भी ग्रहण कर ले तो उसमें कोई कमी नहीं आती। इतना ही नहीं इसका उत्पादन बढ़ाने की कोई खास लागत भी नहीं। भारत में इसे लेकर सामाजिक और आर्थिक स्तर पर बहुत कम जागरूकता है।
परंतु यह आलेख फ्री राइडर समस्या के आर्थिक पहलू पर आधारित नहीं है। यह इसके सामाजिक और राजनीतिक पहलू पर केंद्रित है। खासतौर पर राजनीतिक हिंदुत्व की आपूर्ति, इसकी खपत और लाभार्थियों पर।
राजनीतिक फ्री राइडिंग
इसके उदाहरण हर जगह देखने को मिलते हैं। हालांकि लोग सक्रिय ढंग से इसका पक्ष नहीं लेते लेकिन वे इसे खारिज भी नहीं करते। वे बेहद रणनीतिक ढंग से इसे स्वीकृत करते हैं।
मेरा मानना है कि भारत में हिंदुत्व पर भी यह बात लागू होती है। राजनीतिक सलाहकार जिन 50 प्रतिशत लोगों की बात कर रहे हैं वे शायद उन गिनेचुने लोगों की तरह व्यवहार न करें जो मुस्लिमों के बारे में अनापशनाप बातें करते हैं। परंतु यह खामोश रहने वाला बहुमत हिंदुत्व की बस पर नि:शुल्क सवारी करने वाला नहीं है। यह बात आप्रासंगिक है कि उसने शायद जानबूझकर हिंदुत्व की बस न पकड़ी हो। यह बात भी प्रासंगिक नहीं है कि यह उन्हें अच्छा नहीं लगता। यह कहा जा सकता है कि यह 80:20 की समस्या का एक प्रकार है जहां 80 प्रतिशत काम 20 प्रतिशत लोग करते हैं लेकिन 80 प्रतिशत को भी फायदा मिलता है।
दिक्कत यह नहीं है कि वाम उदारवादी हिंदू हिंदुत्व का विरोध करते हैं। यह उनका अधिकार है। हाशिये वाले हिंदुत्ववादी भी भारतीय मुस्लिमों के साथ खराब ढंग से पेश आते हैं। देश में 20 करोड़ से अधिक मुस्लिम रहते हैं और यह कहना निंदनीय है कि उन्हें दूसरे दर्जे के नागरिक माना जाना चाहिए।
परंतु यहां मैं हिंदुओं में उन हिंदुओं की बात कर रहा हूं जिन्हें हिंदुत्व से मिलने वाले लाभ (यदि कोई हो) से अलग नहीं किया जा सकता है। इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि हिंदी राज्यों में भाजपा को वोट के अलावा इससे कोई लाभ मिलेगा।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि हिंदुत्व अनिवार्य तौर पर कुछ या कई तरह से लाभदायक ही होगा। मैं यह कह रहा हूं कि ऐसे लोग हमेशा रहेंगे जो लाभान्वित होते रहेंगे, भले ही उन्होंने उस विचारधारा का पुरजोर विरोध किया हो।

नि:शुल्क विरोध
वाम उदारवादियों ने भारतीय राजनीति में फ्री राइडर समस्या का प्रतिनिधित्व किया है। कहावती हिंदी में इसे ‘चित भी मेरी, पट भी मेरी-और अंटा मेरे बाप का’ कहा जाता है।
सन 1972 के बाद कांग्रेसी शैली के समाजवाद के साथ यही हुआ। इसके वितरण कार्यक्रमों का लाभ उन लोगों ने भी लिया जिन्होंने उनका विरेोध किया था क्योंकि उन्हें बहिष्कृत नहीं किया जा सकता था। यह नि:शुल्क विरोध है। अर्थशास्त्र में इसे गैर बहिष्करण कहा जाता है और इसके माध्यम से मैं अपनी बात समझा सकता हूं। यह पूछना उचित है: हिंदुत्व से कौन से लाभ संभावित हैं? इसका उत्तर आरएसएस द्वारा हिंदू सामाजिक ढांचे की पड़ताल में निहित है।
हिंदुत्व के प्रमुख लक्ष्यों में से एक है लोगों को यह अहसास कराना कि उनके लिए हिंदुत्व और उसकी संस्कृति सबसे पहले आती है, विभिन्न जातियां उसके बाद। ऐसा करके जन्म आधारित राजनीतिक और सामाजिक विभाजन को समाप्त किया जा सकता है। जब मैं कहता हूं कि ‘जागरण’ दरअसल यही है तो मैं वाम उदारवादियों की तुष्टि चाहता हूं। कम से कम यह एक ऐसी चीज है जिस पर गंभीर आपत्ति नहीं ली जा सकती है।
लेकिन आप इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपनाए जा रहे तरीके पर आपत्ति जरूर जता सकते हैं। सभी इस्लामिक या मुस्लिम चीजों के पीछे पडऩे की कोई जरूरत नहीं है। हिंदू रुझान को बढ़ाने के लिए गैर हिंदुओं को प्रताडि़त न करना परिपक्व आत्मविश्वास का उदाहरण है न कि कोई कमजोरी।
उस लिहाज से देखा जाए तो यह सवाल पूछना भी महत्त्वपूर्ण है कि क्या वाम उदारवादियों की आपत्ति केवल अपनाए जा रहे तौर तरीकों से है या यह उन सिरों तक है जहां जातीय पहचान को धार्मिक पहचान से प्रतिस्थापित किया जा रहा है।

First Published : May 26, 2022 | 12:36 AM IST