भारत सरकार ने जून 2023 में कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (सीसीटीएस) की अधिसूचना जारी की थी और उसके बाद से कई कदम उठाए गए ताकि इसको अमलीजामा पहनाया जा सके। उम्मीद है कि ट्रेडिंग 2026 में शुरू हो जाएगी और वर्ष 2027 तक इसका एक स्थिर बाजार हो जाएगा। इस लेख में हम कार्बन बाजार बनाने के लिए सरकार के तरीकों का विश्लेषण और इसे एक सफल पहल बनाने में आने वाली प्रमुख चुनौतियों पर बात करेंगे। इसे स्वीकारने में जरा भी संदेह नहीं है कि यह एक जटिल विषय है जिसमें लगातार बदलाव हो रहे हैं।
निश्चित रूप से आगे कई अतिरिक्त मुद्दों पर भी ध्यान देने की जरूरत होगी। पहले कुछ बुनियादी बातों से शुरुआत करते है। किसी भी वस्तु के बाजार के विकास के लिए वास्तविक और उचित अनुमानित मांग आवश्यक होती है। इसके बाद आपूर्तिकर्ता इसमें जुड़ते हैं और वे अपनी मांग और मूल्य का अनुमान लगाते हैं और साथ ही उस मांग को पूरा करने के लिए आवश्यक कदम उठाते हैं। यही बातें कार्बन बाजार पर भी लागू होती हैं।
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पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफऐंडसीसी) ने हाल ही में कुछ क्षेत्रों में चिह्नित संस्थाओं के लिए कार्बन उत्सर्जन तीव्रता के लक्ष्य अधिसूचित किए हैं। मोटे तौर पर कहा जाए तो जिन संस्थाओं को इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है उन्हें अपनी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन तीव्रता कम करनी होगी और उन लक्ष्यों को प्राप्त करना होगा। अगर ऐसा नहीं होता है तो उन्हें दंड और अन्य कानूनी कार्रवाइयों का सामना करना पड़ेगा।
स्वाभाविक रूप से, हरेक अधिसूचित संस्था को मौजूदा तकनीक, अपग्रेडेशन की आवश्यकता या ईंधन विकल्पों के संदर्भ में भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा और आवश्यक बदलाव लाने के लिए फंडिंग की लागत का जायजा भी लेना होगा। विभिन्न संस्थाओं को अपनी उत्सर्जन तीव्रता कम करने के लिए अलग-अलग सीमांत लागतों पर विचार करना पड़ेगा।
कुल उत्सर्जन तीव्रता में कमी के लक्ष्य को पूरा करने के आर्थिक रूप से कुशल समाधान के लिए सुचारू तरीके से काम करने वाला कार्बन बाजार विकसित करना होगा, जहां अपेक्षाकृत अधिक सीमांत लागत वाली कंपनियां अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए बाजार से कार्बन क्रेडिट खरीदने के विकल्प तलाश सकें।
आपूर्ति पक्ष में अपेक्षाकृत कम सीमांत लागत वाली कंपनियां ही होंगी जो अपने लक्ष्यों को बड़े स्तर पर हासिल कर और कार्बन क्रेडिट बेचकर पैसा कमाने का अवसर देखती हैं। इसके सफल होने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू, वास्तव में कार्बन क्रेडिट मूल्य होगा और साथ ही यह महत्त्वपूर्ण होगा कि इसका निर्धारण कितनी पारदर्शिता और विश्वसनीयता के साथ किया जाता है। यह एक सफल कार्बन बाजार के लिए पहली बुनियादी जरूरतें हैं।
पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा तय उत्सर्जन लक्ष्य, क्षेत्र विशेष और उस क्षेत्र की जिम्मेदार एकल इकाइयों के लिए है। लक्ष्यों को तय करने के लिए प्रमुख मार्गदर्शक सिद्धांत, 2005 के स्तर की तुलना में 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की उत्सर्जन तीव्रता को 45 फीसदी तक कम करने की भारत की राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान प्रतिबद्धता (एडीसी) रही है। एकल इकाइयों के लिए, पहले के उत्सर्जन को भी ध्यान में रखा गया है जिसमें वर्ष 2023-24 को आधार वर्ष माना गया है।
अहम बात यह है कि पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को शुरुआत में ही उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य तय करते हुए उन सभी उद्योगों को शामिल करना चाहिए था जिनसे सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलता है और इसके बाद अन्य क्षेत्रों की जिम्मेदार कंपनियों को इस दायरे में लाना चाहिए।
सबसे अधिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन करने वाले उद्योगों में स्टील क्षेत्र को शामिल क्यों नहीं किया गया, यह बात भी समझ से परे है। इसी तरह, ताप ऊर्जा क्षेत्र जिसका कार्बन फुटप्रिंट सबसे अधिक है, उसे शायद इसलिए बाहर रखा गया है क्योंकि यह पहले से ही प्रदर्शन करने, लक्ष्य हासिल करने और ट्रेडिंग की योजना (पीएटी) के तहत आता है। लेकिन यह गलत धारणा है कि ऊर्जा दक्षता में सुधार से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी जरूर आएगी। इसके अलावा, एक ही लक्ष्य के लिए दो योजनाएं चलाना भी समस्या खड़ी करता है। पीएटी योजना पर आगे बात करेंगे, लेकिन अभी के लिए इतना समझा जा सकता है कि योजना में उत्तरदायी बाध्यकारी क्षेत्रों के दायरे को सीमित करने से न केवल बाजार का आकार छोटा होगा बल्कि तरलता पर भी इसका असर पड़ेगा।
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कंपनियों के लिए उनके पिछले उत्सर्जन के आधार पर लक्ष्य तय करना गलत है। यह ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की महत्त्वाकांक्षा में कमी को दर्शाता है और इससे कार्बन क्रेडिट की पर्याप्त मांग बढ़ने की संभावना नहीं है। अहम सवाल यह भी है कि जिन कंपनियों के उत्सर्जन का पिछला रिकॉर्ड खराब रहा है, उन्हें ढील क्यों दी जाए? सही तरीका यह होगा कि एक ही क्षेत्र में एक जैसी कंपनियों को (उदाहरण के तौर पर उत्पादन क्षमता के आधार पर) वर्गीकृत किया जाए और उन सभी के लिए एक ही लक्ष्य निर्धारित किए जाएं। इससे एक बेंचमार्क तैयार किया जा सकेगा और उद्योग को संसाधनों का कुशलता से उपयोग करने, बेहतर तकनीक अपनाने और सही ईंधन का चुनाव करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा और तभी एक कार्बन बाजार तैयार हो पाएगा।
सीसीटीएस ने गैर-बाध्यकारी संस्थाओं को कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग में शामिल करने के लिए एक ‘ऑफसेट प्रणाली’ भी बनाई है। हालांकि, यूरोपीय संघ (ईयू)-एमिशन ट्रेडिंग स्कीम्स (ईटीएस) सहित दुनिया भर की उत्सर्जन ट्रेडिंग योजनाओं के अनुभव से अंदाजा होता है कि स्वैच्छिक भागीदारी से कार्बन लीकेज हो सकता है और डेटा की विश्वसनीयता पर असर पड़ सकता है और इसके कारण योजना की साख ही खतरे में पड़ सकती है।
आप स्वच्छ विकास प्रणाली (सीडीएम) के अनुभवों को ही याद करें तो यह कार्बन क्रेडिट की दोहरी गणना और खराब सत्यापन जैसी गंभीर समस्याओं से घिरी थी। योजना के शुरुआती चरण में बाजार में तरलता बनाए रखने के लिए स्वैच्छिक भागीदारी की अनुमति देने का अक्सर इस्तेमाल किए जाने वाला तर्क (जिसे बाद में कम किया जाना है) सही नहीं है। यह एक कमजोर नींव पर इमारत बनाने जैसी बात है। इसके बजाय, शुरुआत से ही बड़ी तादाद में बाध्यकारी संस्थाएं होनी चाहिए, जिन्हें मजबूत निगरानी, रिपोर्टिंग और सत्यापन तंत्र के साथ-साथ सख्त नियमों के दायरे में रखा गया हो। जानकारी के मुताबिक, ईयू-ईटीएस में ऑफसेट प्रणाली पर पहले ही प्रतिबंध लगा दिया गया है। अब बात करते हैं मौजूदा पीएटी योजना और सीसीटीएस के महत्त्वपूर्ण जुड़ाव के मुद्दे पर।
सीसीटीएस काफी हद तक पीएटी योजना पर आधारित है, जिसे 2012 से ही ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई) एक बाजार तंत्र के रूप में नियमों के दायरे में आने वाली संस्थाओं में ऊर्जा दक्षता में सुधार के लिए संचालित कर रहा है। हालांकि इस तरीके के कुछ अपने निहितार्थ हैं।
सवाल यह भी है कि क्या सीसीटीएस में शामिल क्षेत्रों को कवर करने वाली पीएटी योजना समानांतर रूप से जारी रहेगी? पीएटी चक्र 8 को वर्ष 2025-26 के लिए पहले ही अधिसूचित कर दिया गया है, ऐसे में यह सह-अस्तित्व कैसे काम करेगा? बाजार को क्यों विभाजित किया जाए? इसके बजाय, सीधे उत्सर्जन तीव्रता को लक्षित करने वाली केवल सीसीटीएस ही क्यों न हो? पीएटी योजना की पहले भी आलोचना हुई है, जिसमें ढीले लक्ष्य तय करना, बाजार में ऊर्जा बचत प्रमाण पत्र (ईएससीईआरटी) की अत्यधिक आपूर्ति के कारण प्रमाण पत्र की कीमतों में कमी, असंतोषजनक क्रियान्वयन और खराब तरीके का अमल शामिल है।
ऐसा लगता है कि पीएटी 3 चक्र के बाद से, विभिन्न चरणों को बंद करने के लिए आवश्यक कदम अब भी लंबित हैं। याद रहे कि पीएटी 3 चक्र, वर्ष 2017-2020 की अवधि के लिए था और इसके बाद पीएटी 4 से पीएटी 8 तक के चक्रों को अधिसूचित किया गया है। क्या इन चरणों में शामिल बाध्यकारी संस्थाओं को सीसीटीएस के तहत तभी अनुमति मिलेगी जब ये चरण बंद हो जाएंगे? पीएटी के तहत बकाया ऊर्जा बचत प्रमाण पत्र को सीसीटीएस के तहत कार्बन क्रेडिट में बदलने की प्रणाली क्या होगी? पीएटी व्यवस्था के तहत प्रचलित खराब निगरानी, रिपोर्टिंग और सत्यापन प्रक्रियाओं को देखते हुए इनकी आखिर विश्वसनीयता क्या है? क्या इन्हें सामान्य कार्बन क्रेडिट माना जाएगा या उनके लिए एक अलग वर्गीकरण या एक्सचेंज पर एक अलग ट्रेडिंग सेगमेंट होगा? देश में एक मजबूत और विश्वसनीय कार्बन बाजार बनाने के लिए इन सभी मुद्दों पर ठीक से विमर्श और समाधान की आवश्यकता है।
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में विशिष्ट फेलो हैं और सेबी चेयरमैन रह चुके हैं)