कर्नाटक में हाल में हुए विधानसभा चुनाव के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि मुख्यमंत्री पद के लिए सिद्धरमैया कांग्रेस के सबसे उपयुक्त और वास्तव में कहीं अधिक तर्कसंगत उम्मीदवार थे। आंकड़ों से अन्य तमाम बातों के अलावा दो महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष सामने आते हैं।
पहला, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के नीलांजन सरकार ने कहा है कि ग्रामीण क्षेत्रों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का स्ट्राइक रेट (जितनी सीटों पर चुनाव लड़ी उसके मुकाबले जीती गई सीटें) 2018 में 55 से घटकर 2023 में 25 रह गया। जबकि कांग्रेस के लिए समर्थन 35 से बढ़कर 63 हो गया। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो कर्नाटक के शहरी इलाकों में भाजपा की लोकप्रियता कम नहीं हुई है। मगर ग्रामीण क्षेत्रों में उसका समर्थन कम हुआ है।
दूसरा निष्कर्ष दक्षिण कर्नाटक से संबंधित है जो कर्नाटक में वोक्कालिगा-बहुल कपास और गन्ना पट्टी है। इस क्षेत्र में जनता दल (सेक्युलर) यानी जेडी (एस) की मजबूत उपस्थिति हुआ करती थी। सिद्धरमैया भी इसी क्षेत्र से आते हैं। यहां कांग्रेस का स्ट्राइक रेट 2018 में 29 से बढ़कर इस बार 62 हो गया। जबकि भाजपा 21 से फिसलकर 10 पर आ गई। मगर दोनों पार्टियां जेडी(एस) के वोट बैंक में सेंध लगाने में सफल रहीं। इस क्षेत्र में जेडी(एस) का स्ट्राइक रेट इस बार घटकर 25 रह गया जो 2018 में 46 था।
यह पूरी कहानी नहीं है। सिद्धरमैया ने शहरी कर्नाटक के लिए अपनी वाकपटुता एवं जबरदस्त उपेक्षा के कारण ग्रामीण कर्नाटक में भाजपा को मात देने की पटकथा तैयार कर दी थी। ऐसा उन्होंने अपने शुरुआती दिनों के मजबूत किसान लॉबियों के संरक्षण में किया। इसमें कर्नाटक राज्य रैयत संघ के एमडी नंजुंदास्वामी जैसे कद्दावर नेता थे।
कांग्रेस भले ही इसे स्वीकार न करे लेकिन उसे इसी का फायदा मिला है। लेकिन यदि सिद्धरमैया की शहरी विरोधी पूर्वग्रह पर ध्यान नहीं दिया गया तो यह कांग्रेस की नई सरकार के लिए सबसे बड़ी कमजोरी साबित हो सकता है।
अपने पूर्व नेता एचडी देवेगौड़ा के साथ सिद्धरमैया के संबंध और वोक्कालिगा समुदाय के बारे में उनकी तीखी आलोचना जगजाहिर है।
मुख्यमंत्री के तौर पर अपने अंतिम कार्यकाल (2013-2018) में प्रशासन के लिहाज से सिद्धरमैया का ट्रैक रिकॉर्ड काफी अच्छा रहा और उन्होंने सराहनीय राजकोषीय संयम दिखाया था। उन्होंने सामाजिक कल्याण की बड़ी परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित किया था। खाद्य सुरक्षा, पोषण और महिला केंद्रित उनकी योजनाएं काफी सफल रही थीं। मगर कर्नाटक में शहरी विकास पर आधारित निवेश आकर्षित के मोर्चे पर सिद्धरमैया का कोई दृष्टिकोण नहीं दिखा था।
उनकी नीतियां काफी हद तक उनके राजनीतिक इतिहास और धारणाओं से उपजी थीं। वह 2005 में जेडी(एस) छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए थे।
देवेगौड़ा को इस स्वाभिमानी राजनेता और शानदार वक्ता पर काफी गर्व था। मगर उन्होंने जेडी(एस) सरकार में मुख्यमंत्री पद के लिए अपने बेटे को तरजीह देते हुए सिद्धरमैया को उपमुख्यमंत्री बनाया। इस प्रकार उन्हें स्वाभाविक तौर पर मुख्यमंत्री बनने से रोक दिया गया था।
साल 2013 में भी सिद्धरमैया को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय काफी लंबा खिंच गया था और उसके लिए व्यापक विचार-विमर्श किया गया था। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एके एंटनी ने विधायकों से बात की और इस मुद्दे पर कांग्रेस अध्यक्ष की राय जानने के लिए अहमद पटेल को फोन किया था।
अधिकतर विधायक सिद्धरमैया को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे लेकिन एंटनी ने पटेल को बताया कि विधायकों का एक बड़ा तबका आशंकित भी हैं और उनका कहना है कि किसी एक समुदाय की कीमत पर दूसरे को संतुष्ट नहीं किया जाना चाहिए।
सिद्धरमैया कुरुबा समुदाय से आते हैं। लिंगायत और वोक्कालिगा जैसी ऊंची जातियों के प्रति उनका पूर्वग्रह किसी से छिपी नहीं है। यही कारण है कि चुनचनगिरि मठ (वोक्कालिगा) ने खुलकर कहा था कि यदि डीके शिवकुमार को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया तो वोक्कालिगा विद्रोह कर देंगे।
इसे मुख्यमंत्री पद पर शिवकुमार को बिठाने की मांग के बजाय इस लिहाज से देखा जाना चाहिए कि सिद्धरमैया कांग्रेस के लिए वोक्कालिगा के समर्थन का लाभ उठा सकते हैं। जबकि उन्होंने खुले तौर पर जाति का उपहास उड़ाया था।
अब शिवकुमार को उपमुख्यमंत्री बनाया गया है तो जातिगत एवं ग्रामीण-शहरी प्राथमिकताओं में भी कुछ संतुलन दिखेगा। सिद्धरमैया को अहिंदा गठबंधन (पिछड़े एवं दलित वर्गों का) का सूत्रधार माना जाता है जिससे कांग्रेस को सत्ता हासिल करने में मदद मिली थी। मगर, 2018 में अहिंदा गठजोड़ भंग हो गया। इस बार भी वही खतरा मंडरा रहा है।