बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार | फाइल फोटो
आइए देखते हैं कि बिहार चुनाव नतीजों से कौन से 10 संदेश निकलते हैं। पहला संदेश तो यही है कि यह जीत चाहे जितनी बड़ी और एकतरफा नजर आ रही हो लेकिन वोट बैंक अभी भी बरकरार हैं। जैसे-जैसे मुकाबले सीधे होते जा रहे हैं, फिर चाहे वे दो दलों के बीच हों या गठबंधन के, हार और भारी जीत के बीच का अंतर कुछ प्रतिशत का हो सकता है। जनता दल यूनाइटेड (जदयू) को 2020 में 15.39 फीसदी वोट मिले थे और इस बार उसका मत प्रतिशत केवल 3 फीसदी बढ़कर 18.87 फीसदी हुआ है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वोट केवल एक फीसदी बढ़कर 20.68 फीसदी पहुंचे हैं। दोनों ने पिछले चुनाव से कुछ सीट कम लड़ीं लेकिन वे सीटें उनके गठबंधन साझेदारों को ही गईं। उदाहरण के लिए सबसे महत्वपूर्ण साझेदार पासवान परिवार की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) 2020 के चुनाव की 134 सीटों के बजाय इस बार केवल 29 सीटों पर चुनाव लड़ी। उसका मत प्रतिशत 5 फीसदी से थोड़ा अधिक रहा।
यह स्पष्ट है कि अन्य क्षेत्रों में भी उसका मामूली ही सही वोट, भाजपा या जदयू को गया होगा। अब सिक्के को उलट दीजिए। यादव परिवार की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के वोट 23 फीसदी के साथ पिछले चुनाव के स्तर पर ही रहे। कांग्रेस पार्टी भी 9 फीसदी मतों के साथ पहले जैसे स्तर पर रही। यह स्पष्ट है कि इन दोनों साझेदारों का मत प्रतिशत कम नहीं हुआ है। वास्तव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने पासवान की लोजपा और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के साथ बेहतर गठबंधन बनाया और 5 से 8 फीसदी मतों की बढ़त हासिल की।
दूसरा, लेन-देन आधारित अपील तभी काम करती है जब पर्याप्त मतदाता उन्हें विश्वसनीय मानें। चुनाव अभियान से ठीक पहले और उसके दौरान 1.4 करोड़ महिलाओं को दिए गए 10,000 रुपये और आगे दो लाख रुपये देने का वादा उस राज्य में बहुत मायने रखता है, जहां प्रति व्यक्ति आय 69,000 रुपये सालाना है। साथ ही मतदाताओं के पास इस बात के प्रमाण थे कि यह वास्तविक है। इस तरह की करीबी होड़ में जिसके पास सत्ता और चेकबुक होती है, उसे हमेशा बढ़त मिलती है।
तीसरा, एक साफ झूठ या असंभव वादा हर हाल में नाकाम रहता है। तेजस्वी यादव का प्रदेश के 2.76 करोड़ परिवारों में से प्रत्येक को सरकारी नौकरी देने का वादा ऐसा ही एक झूठ था। 20 लाख सरकारी कर्मचारियों वाले प्रदेश में इस वादे की हकीकत सबको पता थी। लोगों को लगने लगा कि क्या तेजस्वी गंभीर भी हैं या नहीं? क्या वे लोगों को मूर्ख समझते हैं?
चौथी बात, मुस्लिम वोट का हाशिये पर जाना चौंकाने वाला है। औरों के बरअक्स असदुद्दीन ओवैसी की सफलता वास्तव में यह दिखाती है कि मुसलमान भी ‘धर्मनिरपेक्ष’ ताकतों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता पर पछतावा महसूस करने लगे हैं। वे भी सोचने लगे हैं कि यदि वे हमारे बीच से कोई नेता जीतने या बनाने नहीं जा रहे हैं, तो फिर अपनी ही पार्टी को वोट क्यों न दें? धर्मनिरपेक्ष पार्टियों, विशेषकर कांग्रेस, के सामने यह दुविधा रही है: ‘मैं चाहता हूं कि मुसलमान मुझे वोट दें क्योंकि वे भाजपा से डरते हैं। लेकिन क्या मैं मुसलमानों के करीब दिखने का जोखिम उठा सकता हूं, अपनी पार्टी नेतृत्व में कुछ प्रमुख मुसलमानों को ला सकता हूं? ओवैसी की पार्टी या असम में बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के साथ गठबंधन कर सकता हूं? क्या इससे हिंदू नाराज नहीं होंगे?’ इस पाखंड का समय अब समाप्त हो चुका है। मुस्लिम-बहुल सीमांचल के नतीजे बताते हैं कि मुसलमान अब इससे थक चुके हैं।
पांचवां और एक तरह से सबसे अहम बात, लोगों की स्मृति कई पीढ़ी तब बनी रहती है। मध्य प्रदेश में लोग अभी भी अपने माता-पिता के समय की दिग्विजय सिंह की विकास विरोधी राजनीति के विरुद्ध मतदान कर रहे हैं। ओडिशा में जे.बी. पटनायक के नैतिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार और अहंकार के विरुद्ध तथा बिहार में लालू के ‘जंगलराज’ के विरुद्ध मतदान हो रहा है। यह इस गहन विश्वास को भी दर्शाता है कि यादव और मुस्लिम मिलकर अन्य जातियों यानी सर्वणों और दलितों का दमन करते हैं। कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा नुकसान है दलित वोटों का दूर होना।
छठे स्थान पर हम नीतीश कुमार और उनके लंबे दौर को रखते हैं, भले ही उनकी सेहत की स्थिति बिहार में किसी से छिपी नहीं है। लेकिन लोग आभारी हैं, न केवल इसलिए कि वे हाल ही में उनके शासन में बढ़ते अपराध को भी ‘जंगलराज’ नहीं मानते, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने 2011 से 13 प्रतिशत सालाना चक्रवृद्धि दर दी है। बिहार अब भी बहुत गरीब हैं, लेकिन नीतीश कुमार के पहले के दौर से कहीं बेहतर स्थिति में है। लालू के समय लोगों ने स्थानीय सशक्तीकरण देखा था, जिसका आभार उनके लगभग 40 प्रतिशत वोट बनाए रखने में झलकता है, लेकिन उनके बेटे के नेतृत्व में बेहतर विकास की कोई उम्मीद किसी ने नहीं देखी। नीतीश और मोदी ने मिलकर कल्याण और आशावाद का एक जबरदस्त प्रस्ताव पेश किया। तेजस्वी और राहुल उसकी बराबरी नहीं कर पाए। यही बात तीन से पांच फीसदी निर्णायक मतदाताओं को राजग की ओर ले गई।
हम इस बिंदु को ऊपर भी रख सकते थे लेकिन सातवें नंबर पर एक और दिलचस्प तथ्य है। शुरुआत में घुसपैठियों के जिक्र के अलावा इस चुनाव में सांप्रदायिक प्रचार नदारद रहा। आप चाहें तो इसका श्रेय नीतीश कुमार के नैतिक प्रभुत्व को दे सकते हैं। अच्छी बात यह है कि यह दिखाता है कि आप एक बड़े हिंदी प्रदेश में बिना हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के आसान जीत हासिल कर सकते हैं। यह 2014 के लोक सभा और 2015 के विधानसभा चुनावों से अलग है।
आठवां बिंदु, कल्पना के बिना जीत असंभव है। जातिगत न्याय, अल्पसंख्यक कल्याण या वोट चोरी, अंबानी-अदाणी से रिश्तों के आरोप वही पुराने ढर्रे पर हैं। इनमें कोई नयापन नहीं है। नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी तो इन अभियानों में शामिल तक नहीं हुए। राजद और कांग्रेस के बीच बेमेल का यह एक बड़ा उदाहरण है।
प्रशांत किशोर के साथ जो घटित हुआ उसे कैसे समझाया जा सकता है? उनके पास तो नए विचार भी थे। हमारा नवां बिंदु यही है कि अगर आपके पास नए विचार हैं तो भी समय लगता है, खासकर जब आप पीढ़ीगत रूप से बंधे वोट बैंक से मुकाबिल हों। यहां तक कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी को भी नए विचारों और अलोकप्रिय कांग्रेस सरकार के मुकाबले में होने के बाद भी पहले चुनाव में बहुमत नहीं मिला था। प्रशांत किशोर जब ‘अर्श पर या फर्श पर’ की बात कर रहे थे तब वह इस बात को समझ चुके थे। राजनीति धैर्य मांगती है।
आखिर में 10वां और आखिरी बिंदु। बिहार के भविष्य को देखिए। यह चुनाव एक राजनीतिक शक्ति के रूप में लालू के अंत का उदाहरण है। नीतीश कुमार के लिए भी मामला चला-चली का है। शायद एक या दो साल और। अब बिहार में नेतृत्व का विकल्प खुला है। इस पर भाजपा की पैनी नजर है।