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खाद्य शुल्क में कटौती: अमेरिकी बाजार तक पहुंच के लिए जोखिम भरा दांव

अमेरिका को बाजार पहुंच दिलाने की नीति आयोग की पहल भारत की खाद्य सुरक्षा को कैसे नुकसान पहुंचा सकती है।

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अजय श्रीवास्तव   
Last Updated- July 04, 2025 | 10:23 PM IST

नीति आयोग द्वारा हाल ही में पेश एक प्रपत्र में अमेरिका से होने वाले कृषि आयात में शुल्क कटौती की अनुशंसा की गई है। इन उत्पादों में चावल, डेरी, पोल्ट्री, मक्का, सेब, बादाम और जीन संवर्द्धित सोया तक शामिल हैं। यह कटौती भारत-अमेरिका मुक्त व्यापार समझौते के तहत करने करने का प्रस्ताव है।

ये प्रस्ताव ‘प्रमोटिंग इंडिया-यूएस एग्रीकल्चर ट्रेड अंडर द न्यू यूएस ट्रेड रिजीम’ (अमेरिका की नई व्यापार व्यवस्था के अधीन भारत-अमेरिका कृषि व्यापार को बढ़ावा) नामक प्रपत्र में दिए गए हैं जो मई में प्रकाशित हुआ था। हम इसकी अहम अनुशंसाओं पर विचार करेंगे और यह भी कि देश की खाद्य सुरक्षा के लिए इनका क्या अर्थ होगा? शुरुआत करते हैं चावल से जो देश का एक प्रमुख खाद्यान्न है। 

चावल: प्रपत्र अमेरिकी चावल पर आयात शुल्क समाप्त करने की बात कहता है। भारत पहले ही बहुत बड़ी मात्रा में चावल निर्यात करता है और इसलिए आयात से उसे कोई जोखिम नहीं। यह दलील तार्किक नजर आती है लेकिन यह अतीत की एक बड़ी गलती की अनदेखी कर देती है।

1960 और 1970 के दशक के आरंभ में भारत को खाद्यान्न की कमी का सामना करना पड़ा और अमेरिकी कानून पीएल-480 के तहत अमेरिका से खाद्यान्न आयात करना पड़ा। इस कानून के तहत अमेरिका का अतिरिक्त अन्न भारत जैसे देशों को बेचा या दान दिया जाता है। वैश्विक व्यापार वार्ताओं के अधीन भारत जो उस समय एक बड़ा खाद्यान्न आयातक था, अमेरिका के इस प्रस्ताव पर सहमत हो गया था कि वह चावल, गेहूं और दूध पाउडर पर शुल्क समाप्त कर देगा। यानी भारत ने भविष्य में इन वस्तुओं पर शुल्क बढ़ाने का अधिकार त्याग दिया।

बाद में हरित क्रांति ने देश के कृषि उत्पादन में उल्लेखनीय इजाफा किया और 1990 के आरंभ में देश चावल और गेहूं के मामले में आत्मनिर्भर हो गया। भारतीय किसानों को अब सस्ते सब्सिडी वाले आयात से शुल्क संरक्षण चाहिए था लेकिन पुरानी गैट प्रतिबद्धता के कारण भारत शुल्क बढ़ाने में सक्षम नहीं था। इकलौता कानूनी विकल्प था गैट के अनुच्छेद 28 के तहत दोबारा बातचीत करना, जो भारत ने 1990 के दशक में किया।

बहरहाल, दोबारा वार्ता महंगी पड़ी। भारत को अन्य वस्तुओं मसलन मक्खन, चीज़, सेब, खट्‌टे फलों और ऑलिव ऑयल पर शुल्क दर कम करनी पड़ी ताकि अमेरिका और यूरोपीय संघ सहित कारोबारी साझेदारों को राहत दिया जा सके। इसके बाद ऐसे उत्पादों से भारतीय बाजार पट गए और स्थानीय किसानों को इसका नुकसान हुआ।  सबक यह है कि एक बार अगर कोई देश कम या शून्य शुल्क को कानूनी रूप से मान लेता है तो दोबारा लचीलापन हासिल करना मुश्किल होता है। नीति आयोग का प्रपत्र इसी बात की अनदेखी करता है। 

वैश्विक अन्न कीमतों में उतार-चढ़ाव: नीति आयोग का प्रपत्र वैश्विक अन्न कीमतों में उतार-चढ़ाव के जोखिम की भी अनदेखी करता है। उदाहरण के लिए 2014 से 2016 के बीच वैश्विक अन्न कीमतों में भारी गिरावट आई। गेहूं 160 डॉलर प्रति टन से नीचे आ गया और बहुत से अफ्रीकी किसानों को इसके कारोबार से बाहर होना पड़ा। अगर भारत शुल्क समाप्त कर देता है तो सब्सिडी वाला सस्ता अमेरिकी अनाज बाजार में भर जाएगा और भारतीय उपज बिकेगी ही नहीं। इससे किसान अगली फसल बोने के पहले सौ बार सोचेंगे। इससे हम आयात पर निर्भर हो जाएंगे। 

अगर बाद में वैश्विक कीमतें बढ़ीं तो भारत को महंगा आयात करना होगा ठीक वैसे ही जैसे घाना और नाइजीरिया को 2005-08 और 2010-11 के दौरान करना पड़ा था जब गेहूं और मक्के की कीमत क्रमश: 130 फीसदी और 70 फीसदी बढ़ गई थी। ऐसे उतार-चढ़ाव ने कई अफ्रीकी देशों की खाद्य सुरक्षा नष्ट कर दी है। भारत को इससे बचना चाहिए। 10 करोड़ से अधिक छोटे किसानों के साथ हमें गेहूं और चावल की कीमतों पर शुल्क लागू रखना चाहिए ताकि किसान सुरक्षित रह सकें और खाद्य आपूर्ति स्थिर रहे।

चावल पर से टैरिफ हटाने से उन समूहों को लाभ होगा जो देश की खाद्य नीतियों पर हमलावर हैं। अमेरिकी चावल फेडरेशन ने भारत को डब्ल्यूटीओ में बार-बार चुनौती दी है और आरोप लगाया है कि उसने सब्सिडी के नियम तोड़े और अपने न्यूनतम समर्थन मूल्य कार्यक्रम और सरकारी खरीद कार्यक्रम के तहत कारोबार को बाधित किया है। अमेरिका के साथ शुल्क कम करने से भारत की खाद्य सुरक्षा व्यवस्था प्रभावित होगी जो किसानों और उपभोक्ताओं दोनों का संरक्षण करती है। खाद्य सुरक्षा को भूराजनीति, जलवायु परिवर्तन और बाजार आकार दे रहे हैं, ऐसे में भारत को सावधान रहना चाहिए।

डेरी और पोल्ट्री: नीति आयोग का प्रपत्र कहता है कि भारत को अमेरिकी डेरी और पोल्ट्री उत्पादों पर शुल्क कम करना चाहिए और आयात को एसपीएस यानी सैनटरी ऐंड फाइटोसैनिटरी मानकों से विनियमित करना चाहिए। ये मानक खाद्य सुरक्षा और मानव, पशु और पादप स्वास्थ्य संरक्षण के लिहाज से डिजाइन किए गए हैं। अगर ऐसा किया गया तो एसपीएस के कमजोर उपायों से आयात को बल मिलेगा क्योंकि शुल्क की जगह एसपीएस को आसानी से चुनौती दी जा सकती है। अमेरिका लंबे समय से भारत के इस नियम का विरोध कर रहा है कि यहां आने वाला दूध ऐसे जानवरों का नहीं होना चाहिए जिन्हें मांस या रक्त आधारित भोजन दिया जाता है। इसके अलावा देश का एसपीएस प्रवर्तन मजबूत तकनीकी समर्थन पर आधारित नहीं है। ऐसे में डेरी और पोल्ट्री पर शुल्क समाप्त करना गलत होगा।

जीएम कॉर्न, सोया सीड: नीति आयोग का कहना है कि एथेनॉल मिश्रण के लिए अमेरिकी मक्के का आयात किया जाए। अभी भारत में यह प्रतिबंधित है। तर्क है कि ऐसा करने से देश की घरेलू खाद्य और चारा आपूर्ति में जीएम उत्पादों का प्रवेश रोका जा सकेगा। प्रपत्र में यह अनुशंसा भी की गई है कि जीएम सोयाबीन के बीजों को एक नियंत्रित मॉडल के अधीन आयात किया जाए जहां तटीय इलाकों में पिराई के बाद तेल को स्थानीय स्तर पर इस्तेमाल किया जाए और जीएम प्रभाव वाले सोयामील को निर्यात कर दिया जाए ताकि देश में फसलों या बीजों पर इसका कोई असर न हो। 

बहरहाल, देश की बिखरी हुई आपूर्ति श्रृंखला और कमजोर एसपीएस प्रवर्तन ऐसे नियंत्रण को हकीकत से परे बनाता है। एक बार जीएम उत्पादों के देश में आने के बाद उनके स्थानीय कृषि में शामिल होने की आशंका रहेगी। इससे खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है, पर्यावरण को क्षति पहुंच सकती है और देश का निर्यात प्रभावित हो सकता है क्योंकि कई देश जीएम दूषण से बचते हैं।

अनुशंसाएं: भारत को अमेरिका के साथ चल रही वार्ता में कृषि शुल्क कम करने के पहले सावधानी बरतनी चाहिए। एक बार शुल्क कम करने के बाद उन्हें दोबारा बढ़ाना मुश्किल होगा। भले ही वैश्विक कीमतें गिरें या भारतीय किसानों को नुकसान हो। इससे भारत जोखिम में पड़ जाएगा। खासकर इसलिए क्योंकि अमेरिका और यूरोपीय संघ अपने किसानों को भारी रियायत देते हैं।

शुल्क दरों को लचीला बनाए रखना पुराना संरक्षणवाद नहीं है। यह खाद्य सुरक्षा बचाए रखने, ग्रामीण आय में सुधार और बाजार झटकों से प्रबंधन के लिए जरूरी है। बढ़ती खाद्य असुरक्षा, जलवायु जोखिम और अनिश्चित व्यापारिक गतिविधियों के बीच भारत को अपने किसानों और उपभोक्ताओं के बचाव की व्यवस्था करनी चाहिए।

भारत को राज्य सरकारों, किसान संगठनों और विशेषज्ञों के साथ खुली और पारदर्शी चर्चा जारी रखनी चाहिए। उसके बाद ही मुक्त व्यापार  समझौते में ऐसे निर्णय पर पहुंचना चाहिए। देश की करीब 70 करोड़ आबादी आज भी खेती पर निर्भर है। यह केवल आजीविका नहीं है बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था और देश की खाद्य व्यवस्था की रीढ़ भी है।

 (लेखक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनीशिएटिव के संस्थापक हैं) 

First Published : July 4, 2025 | 10:13 PM IST