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राष्ट्र की बात : राष्ट्रवाद के साथ इस्लाम का संघर्ष

जिस समय लगा कि पश्चिम एशिया गहरी नींद में सोने लगा है, उसी समय वहां लड़ाई भड़काकर हमास ने कई विरोधाभासों को रेखांकित कर दिया है और इस्लामिक दुनिया के कई प्रश्नों को उभार दिया है

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शेखर गुप्ता   
Last Updated- November 13, 2023 | 8:54 PM IST

इस सप्ताह इस स्तंभ में कही जाने वाली बातें शायद गाजा में इजरायली सेना द्वारा की जा रही हिंसा की कसौटी पर खरी न उतरें लेकिन फिर भी इस मुद्दे को जल्द से जल्द उठाया जाना आवश्यक है। यह अक्टूबर 2020 में इसी स्तंभ में कही गयी बातों को भी आगे बढ़ाएगा।

सबसे पहले गाजा की बात करते हैं क्योंकि वहां हो रही घटनाओं पर बहुत बहस नहीं हो रही है। वहां बदले और सामूहिक दंड की क्रूरतम कार्रवाई हो रही है। एक नाराज संप्रभु राष्ट्र जिसके पास मजबूत सेना है वह सामूहिक बदले की कार्रवाई में संलग्न है। हमास ने 7 अक्टूबर को जो किया वह इजरायल और यहूदियों के विरुद्ध व्यापक स्तर पर घृणा से भरी हुई गतिविधि थी।

परंतु आतंकी संगठन हमास के खिलाफ इजरायल बदले और दंड देने की कार्रवाई को जिस पैमाने पर अंजाम दे रहा है वह भी अपने आकार और प्रकृति में गाजा के फिलिस्तीनियों या कहें मुस्लिमों के प्रति के तरह की नफरत से भरी हुई हिंसा ही है। यह कार्रवाई इजरायल के मित्रों को शर्मिंदा कर रही है और आलोचकों को एकजुट कर रही है।

अमेरिका को छोड़कर इजरायल के सभी महत्त्वपूर्ण मित्रों ने आवाज बुलंद की है और लगभग ऐसा ही नजरिया पेश किया है। वे युद्ध​विराम की मांग करने वाले संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव से भी दूर रहे हैं। अब इजरायल का करीबी दोस्त बन चुका भारत भी उनमें शामिल है। बेंजामिन नेतन्याहू इन बातों से बेपरवाह हैं।

हमें यह सवाल पूछने की आवश्यकता है कि अगर इजरायल को इस्लामिक दुनिया की संयुक्त चुनौती का सामना करना पड़ता तब भी क्या वह इतना ही बेपरवाह रहता? अगर मुस्लिम दुनिया एक वास्तविक, राजनीतिक, वैश्विक ताकत होती तो इसमें दो अरब यानी दुनिया की आबादी का चौथाई हिस्सा शामिल होता। इसकी तुलना में यहूदियों की आबादी 1.6 करोड़ यानी 0.2 फीसदी है।

क्या मुस्लिम मोटे तौर पर गरीब और यहूदी अमीर हैं तो इससे उनकी अपेक्षित शक्ति में विसंगति पैदा होती? दुनिया की आबादी में मुस्लिमों की हिस्सेदारी 25 फीसदी और दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में उनका योगदान करीब 23 फीसदी है। यह कोई मामूली ताकत नहीं है। यहूदी दुनिया भर में फैले हुए हैं। यह भी सही है कि कई वित्तीय संस्थानों का नेतृत्व उनके पास है लेकिन वे खुद को एक राष्ट्र या एक शक्ति के रूप में नहीं देखते।

षड्यंत्र सिद्धांतकारों के विचार के मुताबिक दुनिया पर उनका कब्जा भी नहीं है। वे इजरायल के यहूदियों से जुड़ाव महसूस करते हैं लेकिन आज भी पश्चिमी दुनिया के बड़े शहरी केंद्रों और परिसरों में जहां दुनिया की अधिकांश संपत्ति रहती है या उसका लेनदेन किया जाता है, वहां बड़ी तादाद में यहूदियों ने इजरायल की कार्रवाई का विरोध किया है।

हमें मुस्लिम समूहों से ऐसी कोई प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली। यहां तक कि मुस्लिम बहुल देशों की सरकारों के बीच से भी अगर निंदा की गई तो ऐसा करने वालों को अंगुलियों पर गिना जा सकता है। उनमें से एक मिस्र के राष्ट्र प्रमुख सिसी हैं जिनके बयान को पश्चिमी मीडिया में खूब उद्धृत किया गया। संयुक्त अरब अमीरात सहित एक-दो और ऐसे देश होंगे।

इस बारे में विचार कीजिए। दुनिया की एक चौथाई आबादी का प्रति​निधित्व करती एक शक्ति जिसके पास दुनिया का अधिकांश ऊर्जा भंडार हो, महत्त्वपूर्ण सैन्य शक्ति और यहां तक कि परमाणु हथियार (पाकिस्तान) हों और जो आबादी में यहूदियों का 150 गुना हो, वह इजरायल को रोक पाने में नाकाम रही। इजरायल ने उसके साथ मनमाना व्यवहार किया है और यह बात मैं बहुत सावधानी से लिख रहा हूं।

ऐसे में सवाल यह है कि इस्लामिक देशों की शक्ति क्या है? जिसे उम्मा कहा जाता है और जिसका अर्थ है कि ‘समूचा मुस्लिम समुदाय धर्म के बंधन में एक साथ बंधा है’ वह ताकत क्या है। इसके मुताबिक दुनिया भर के मुस्लिम एक आस्था से बंधे हुए हैं। यहां कुछ और सवाल पैदा होते हैं। क्या इस्लामिक दुनिया जैसी कोई चीज है? क्या कोई आस्था, राष्ट्रीय सीमाओं अ​थवा राष्ट्रवादी भावनाओं का उल्लंघन कर सकती है?

जब यह माना जाने लगा था कि अब्राहम समझौते के बाद पश्चिम एशिया में शांति का दौर आ रहा है, हमास ने उसके कई विरोधाभासों को रेखांकित कर ​दिया और इस्लामिक दुनिया से जुड़े कई सवाल दोबारा खड़े कर दिए। इस्लाम इस लिहाज से विशिष्ट है कि दुनिया का कोई अन्य धर्म अपने अनुयायियों की निष्ठा, प्रेरणा और प्रतिबद्धता के मामले में स्वयं को राष्ट्रीयता से परे नहीं मानता।

उम्मा के समकक्ष कोई ईसाई संस्था देखने को नहीं मिलेगी। तीसरा सबसे बड़ा धर्म हिंदू है और उसके भीतर भी आंतरिक आपसी तर्क-वितर्क हो सकते हैं लेकिन केवल इस बात पर कि भारत हिंदू राष्ट्र है या नहीं। राजनीतिक इस्लाम के भीतर सबसे बड़ा विरोधाभास इस मान्यता से आता है कि धार्मिक वफादारी राष्ट्रवाद से आगे है। उम्मा की कल्पना इसी विचार का परिणाम है।

दुनिया के मुस्लिमों ने पहचान आधारित कई अखिल राष्ट्रीय संगठन बनाए हैं। उनमें सबसे प्रमुख है ओआईसी यानी इस्लामिक सहयोग संगठन। इसमें 57 सदस्य और पांच पर्यवेक्षक देश शामिल हैं। ये वैश्विक जीडीपी के 23 फीसदी का प्रतिनिधित्व करते हैं। परंतु किसी साझा इस्लामिक काम के लिए इनकी उपलब्धि कुछ भी नहीं। इसके अलावा अरब लीग तथा अफ्रीका और एशिया में कुछ अन्य संगठन रहे हैं परंतु किसी ने भी अखिल इस्लामिक विषय पर कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया।

मुस्लिमों का इकलौता प्रभावशाली अखिल राष्ट्रीय संगठन है खाड़ी सहयोग परिषद अर्थात जीसीसी। यह इस्लामिक देशों में पश्चिम के साथ सबसे अधिक मित्रवत रिश्ते रखने वाला संगठन है। इसके दो सदस्यों ने अब्राहम समझौते में शिरकत की और हमास के हमला करते समय तीसरा भी ऐसा करने ही वाला था।

ईरान के रूप में एक इस्लामिक देश इसका विरोधी भी है। कतर इसका सदस्य है लेकिन वह भौगोलिक और राजनीतिक दृष्टि से किनारे पर स्थित है तथा ईरान, अमेरिका तथा मुस्लिम ब्रदरहुड और हमास के साथ रिश्तों के प्रबंधन में संलिप्त है।

अगर हम पीछे हटकर तथाकथित इस्लामिक विश्व के संघर्षों के इतिहास को देखें तो पाएंगे कि बीते 50 वर्षों में ऐसे सभी संघर्ष आंतरिक स्तर पर हुए हैं। हम 1973 को आकलन वर्ष मानते हैं क्योंकि वह आखिरी मौका था जब मुस्लिम देशों ने एक साझा गैर मुस्लिम देश के खिलाफ एकजुटता दिखाई थी। वह अवसर था मिस्र और सीरिया का इजरायल के खिलाफ योम किप्पूर युद्ध में शामिल होना।

कहा जा सकता है कि सोवियत प्रभाव में और समाजवादी तानाशाहों के नेतृत्व वाले ये देश पूरी तरह इस्लामिक शक्ति नहीं थे। तेल उत्पादक देश भी इस युद्ध में साथ आए और तेल की कीमतें बढ़ा दी गईं। हालांकि इजरायल या उसके अमेरिकी साझेदारों को नुकसान पहुंचाने के बजाय यह वाणिज्यिक दृष्टि से अधिक लाभप्रद साबित हुआ।

दूसरी ओर अगर इस दुनिया के भीतर हुए सशस्त्र संघर्ष को देखें तो गाजा में मारे गए हजारों महिलाओं और बच्चों से भी अधिक मौते हुई हैं। अमेरिका समर्थित सऊदी सेना और यमन के हौदियों के बीच हुई जंग को देखिए। यूनाइटेड किंगडम का कैंपेन अगेंस्ट आर्म्स ट्रेड बताता है कि 3,77,000 मारे गए लोगों में से कम से कम 1.50 लाख लोग सीधे लड़ाई की बदौलत मारे गए।

सूडान के अंतहीन गृहयुद्ध में बीते एक दशक में करीब तीन लाख लोग मारे गए। इससे पहले वहां दारफुर प्रांत में करीब दो लाख लोग मारे गए थे। सीरिया के गृहयुद्ध में करीब चार लाख मुस्लिम मारे गए। ये सारी मौतें पिछले दशक की हैं और इन मामलों में मारने वाले भी मुस्लिम थे। इनमें से पांच-सात हजार मौतों के लिए ही अमेरिकी और रूसी जिम्मेदार थे।

हमें आठ साल चले ईरान-इराक युद्ध तथा अफगानिस्तान-पाकिस्तान का इतिहास पता है। मुस्लिम दुनिया के संकटों के लिए पश्चिमी देशों को जिम्मेदार ठहरा देना जहां चलन में वहीं सद्दाम हुसैन के इराक ने कुवैत पर कब्जा किया था और इस्लामिक देशों ने ही अमेरिका से गुजारिश की थी कि वह आकर उसे आजाद कराए।
दो अरब की आबादी वाला यह शक्तिशाली समुदाय अपनी क्षमता से कमजोर से हमला करता है तो इसकी एक वजह है उसके अपने विरोधाभास और आपसी संघर्ष।

इनमें सबसे आत्मघाती है यह स्वीकार करने में नाकामी कि राष्ट्रवाद और अक्सर विचारधारा भी धर्म की सीमा पार वफादारी की तुलना में अधिक मजबूत भावनाएं हैं। आस्था आधारित एकता की यह कल्पना उस समय उजागर हो गई जब मुस्लिम देश गाजा में इजरायल की कार्रवाइयों पर नकेल कसने में नाकाम रहे। नेतन्याहू हों या कोई और इजरायली नेता, इस सुरक्षित पूर्वानुमान के आधार पर वह हमेशा कार्रवाई कर सकता है।

First Published : November 13, 2023 | 8:54 PM IST