ग्लासगो में हाल ही में संपन्न जलवायु शिखर बैठक में पर्यावरण के अनुकूल स्थायी कृषि से संबद्ध ऐक्शन एजेंडा तैयार करने में सक्रिय भागीदारी के बाद भारत ने इसे मंजूर नहीं करने का निर्णय लिया। यह निर्णय अजीब लग रहा है, खासतौर पर इसलिए कि भारत उन देशों में शुमार है जिन्हें इस एजेंडे की सबसे अधिक आवश्यकता है। भारत की इस दलील में ज्यादा दम नहीं है कि देश में पहले ही व्यापक जलवायु परिवर्तन संबंधी राष्ट्रीय कार्य योजना के अधीन स्थायी कृषि संबंधी राष्ट्रीय मिशन मौजूद है। मिशन का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा है। कृषि क्षेत्र से देश का ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम होने के बजाय बढ़ रहा है। कृषि से होने वाले कार्बन उत्सर्जन के क्षेत्र में हम 2011 में ही चीन को पीछे छोड़ कर दुनिया के सबसे बड़े प्रदूषक बन चुके हैं। हमारे कृषि क्षेत्र का ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन अब चीन के उत्सर्जन से सात फीसदी और ब्राजील से 30 फीसदी अधिक है। इससे भी बुरी बात यह है कि भारत के इस उत्सर्जन में सालाना वृद्धि 2016 के 0.5 फीसदी से बढ़कर 2017 में 0.83 फीसदी और और 2018 में 1.3 फीसदी हो गई। बाद के वर्षों के लिए ये आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन अनुमान लगाया जा सकता है कि इसमें और अधिक इजाफा हुआ होगा क्योंकि धान की खेती और पशुपालन जैसी मीथेन उत्सर्जन वाली दो गतिविधियों में लगातार इजाफा हुआ है। ऐसी खराब स्थिति यह दर्शाती है कि कृषि क्षेत्र किफायती नहीं है। यह सिलसिला जारी नहीं रहने दिया जा सकता। यह पर्यावरण के लिए तो बुरा है ही, जमीन और पानी जैसे अहम प्राकृतिक संसाधनों को भी क्षति पहुंचाता है।
सतत कृषि के लिए यह आवश्यक है कि तकनीक और कृषि विज्ञान व्यवहार किफायती और पर्यावरण के लिए कम नुकसानदेह तथा किसानों के लिए लाभदायक हों। जैविक खेती अथवा शून्य बजट खेती जैसे विचार सैद्धांतिक तौर पर सतत कृषि के लिए अनुकूल हो सकते हैं लेकिन व्यापक तौर पर उन्हें अपनाना शायद सही विकल्प न हो। इनकी मदद से कृषि उपज की व्यापक और तेजी से बढ़ती मांग को पूरा नहीं किया जा सकता। ऐसे में जरूरत यह है कि कृषि गतिविधियों की कुल उत्पादकता बढ़ाने का प्रयास किया जाए। ऐसा करने का एक तरीका यह है कि आधुनिक उत्पादकता बढ़ाने वाली तकनीक, पर्यावरण की दृष्टि से मजबूत फसलों की किस्मों तथा पशुओं की नस्ल के साथ-साथ पारंपरिक ज्ञान और प्राकृतिक जीवन जीने के मानक अपनाए जाएं।
कृषि को स्थायित्व प्रदान करने और मजबूत बनाने का बुनियादी तरीका अपनाना कोई मुश्किल काम नहीं है। व्यापक रूप से अपनाई जाने वाली एकफसली खेती और अपरिवर्तित फसल चक्र की जगह विविधतापूर्ण खेती अपनानी होगी जिसमें खेती, बागवानी, पशुपालन, मछलीपालन और कृषि वानिकी का मिश्रण हो। जमीन की गुणवत्ता बहाल करने और ऐसी फसलों को अपनाने की जरूरत होगी जो उसकी उर्वरता में सुधार करें। जल्द तैयार होने वाली फसलों को अपना कर भी मिट्टी की भौतिक, रासायनिक और जीवविज्ञान संबंधी गुणवत्ता सुधारी जा सकती है। यह बात समग्र उर्वरता को प्रभावित करती है। शून्य या न्यूनतम जुताई या सीधे फसल बुआई जैसे आधुनिक तौर तरीके अपनाकर भी मिट्टी को बचाया जा सकता है।
रासायनिक उर्वरकों के साथ-साथ खेत में बनी खाद का इस्तेमाल बढ़ाने की जरूरत है। इसके साथ ही एकीकृत बीमारी और कीट प्रबंधन करते हुए ऐसी फसल बोनी होगी जो बीमारियों को लेकर प्रतिरोधक क्षमता रखती हो। कीटों से निपटने के लिए प्राकृतिक परभक्षी जीवों का इस्तेमाल करना होगा। वर्षा जल संरक्षण और पानी के किफायती इस्तेमाल मसलन बूंद-बूंद और फव्वारा सिंचाई को भी बढ़ावा देना होगा। उर्वरकों को पौधों की जड़ों में उचित गहराई पर डालना होगा और कीटनाशकों का समुचित मात्रा में इस्तेमाल भी कृषि को स्थायित्व देने में मदद कर सकता है। फसल अवशेष जलाने जैसी गतिविधियों पर पूरी तरह रोक लगानी होगी। इन कदमों के अभाव में कृषि में स्थायित्व हासिल करना मुश्किल होगा।
