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अर्थव्यवस्था: सामान्यीकरण की ओर कदम

भारत ने पिछले तीन वर्षों में तेजी से वृद्धि की है जिसमें औसत वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि लगभग 8 प्रतिशत रही है।

Last Updated- December 02, 2024 | 9:44 PM IST
Economy: Steps towards normalization अर्थव्यवस्था: सामान्यीकरण की ओर कदम

भारत ने पिछले तीन वर्षों में तेजी से वृद्धि की है जिसमें औसत वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि लगभग 8 प्रतिशत रही है। वित्तीय बाजारों ने वैश्विक स्तर की तुलना में इस शानदार प्रदर्शन पर बेहद उत्साह के साथ अपनी प्रतिक्रिया दी है। हाल में, वृद्धि की रफ्तार में कमी आई है जिसे हम सामान्यीकरण की प्रक्रिया के रूप में देखते हैं और यह वास्तव में विस्तार के स्थिर दर पर वापसी की तरह है। मजबूत वृद्धि के इस चरण के साथ कुछ क्षेत्रों में चिंताजनक अप्रत्यक्ष प्रभाव थे जिन्हें अब सावधानी पूर्वक व्यापक कदमों से नियंत्रित करने का लक्ष्य है।

हम यहां पर तीन पहलुओं पर गौर करेंगे। पहला, वृद्धि में चक्रीय मंदी लाने वाले कारक। दूसरा, उपभोक्ता के ऋण चक्र में ‘तेज बनाम स्थिरता का तर्क। तीसरा, सख्त मौद्रिक नीति की लंबी अवधि के चलते वृद्धि दर पर व्यापक प्रभाव।

पहला, कठिन वित्तीय स्थिति और कुछ अप्रत्याशित और असामान्य कारक (जैसे चुनाव, निर्माण कार्यों में मंदी, परियोजनाओं में देरी, और मौसम की विपरीत परिस्थितियों जैसे भीषण गर्मी और असमय बारिश) के देरी से पड़ने वाले प्रभाव, आर्थिक विकास की रफ्तार धीमी करने वाले बाधक के रूप में उभरे हैं। हमारे विशेष जीडीपी नाउकास्ट मॉडल के साथ-साथ मांग और आपूर्ति दोनों पक्षों के प्रमुख वृद्धि कारकों के उप-सूचकांकों ने अर्थव्यवस्था की दिशा के बारे में जानकारी दी है।

औद्योगिक गतिविधि और शुद्ध निर्यात (वस्तु एवं सेवाएं) होता रहा है लेकिन निवेश (मशीनरी और उपकरण) और खपत वित्त वर्ष के मध्य में पिछड़ गए। नियामकीय सख्ती वाले कदमों की वजह से असुरक्षित ऋण कम हो गए हैं। इसके साथ ही, महंगाई को कम करने के लिए सरकार की कोशिशों के कारण उपभोक्ताओं और उत्पादकों के बीच तनाव बढ़ा है और इसकी कुछ कीमत अर्थव्यवस्था चुका रही है। आखिर में, निजी क्षेत्र में पूंजीगत व्यय में वृद्धि के स्पष्ट संकेत अभी नहीं दिख रहे हैं।

हमारे पिछले शोध में यह बात साबित हुई थी कि भविष्य में वृद्धि की उम्मीदें और कंपनियों का मुनाफा ही आमतौर पर कंपनियों को पूंजीगत व्यय बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है। निर्यात में विविधता लाने यानी अधिक मात्रा में विनिर्माण उत्पादों और बेहतर सेवा व्यापार (विशेषकर पेशेवर सेवाएं) की तरफ बढ़ने से निर्यात के योगदान की अस्थिरता कम हो गई है।
सार्वजनिक निवेश में बढ़ोतरी हो रही है और राज्यों को केंद्र सरकार से रियायती कर्ज मिलने की उम्मीद है जिससे राज्य सरकारों के पास भी ज्यादा खर्च की गुंजाइश बनेगी। हाल में हुए राज्य चुनावों के नतीजे दर्शाते हैं कि राजनीतिक स्थिरता भी बुनियादी ढांचे पर खर्च जारी रखने के लिए जरूरी है।

केंद्र सरकार को अक्टूबर 2024 से मार्च 2025 के बीच अपने पूंजीगत खर्च को पिछले साल की तुलना में 52 प्रतिशत बढ़ाना होगा ताकि पिछले समय की कमी पूरी की जा सके जो बजटीय लक्ष्य को हासिल करने में एक बड़ी चुनौती है। उपभोग की रफ्तार धीमी रहने की संभावना है। दूसरी छमाही में महंगाई कम होने, नीतियों में सख्ती कम होने और सरकारी खर्च बढ़ने से मामूली तेजी आने की उम्मीद है जिसके कारण हमारी वृद्धि दर का अनुमान 6.7 प्रतिशत है।

हम उम्मीद करते हैं कि मध्यम अवधि में वृद्धि दर 6.5-6.6 प्रतिशत पर स्थिर होगी, जो वित्त वर्ष 2019-20 की रफ्तार से अधिक मजबूत है लेकिन महामारी के बाद के वर्षों की तुलना में कम है। नॉमिनल जीडीपी वृद्धि 9-9.5 प्रतिशत और विदेशी मुद्रा भंडार की धारणाओं के साथ जोड़कर हम यह देखते हैं कि भारत की नॉमिनल जीडीपी (अमेरिकी डॉलर के संदर्भ में) इस दशक के भीतर दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी बन सकती है।

दूसरा, ग्राहकों के कर्ज लेने की रफ्तार में भी तेजी बनाए रखने या सावधानी बरतने की बहस चल रही है। बैंकों ने वित्त वर्ष 2023-24 में खुदरा ऋण में दोहरे अंकों की उच्च वृद्धि दर्ज की जिससे अधिकारियों ने बिना कुछ गिरवी रखे दिए गए असुरक्षित कर्जों को लेकर सख्ती बरतनी शुरू कर दी।

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने कई चिंताजनक क्षेत्रों की पहचान की है, जिसमें क्रेडिट कार्ड पोर्टफोलियो में कर्ज न चुकाने की दर शामिल है, जो मार्च 2024 तक अन्य सभी उपभोक्ता ऋण उप-श्रेणियों की तुलना में अधिक थी। आरबीआई ने इस खंड में गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों-वित्तीय प्रौद्योगिकी (फिनटेक) ऋणदाताओं और लघु वित्त बैंकों के जोखिम स्तर को भी जाहिर किया। उपभोक्ताओं को कर्ज मिलने में आसानी होने के साथ ही समान वक्त पर खर्च कम हो रहा है। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि असली चिंता कर्ज के स्तर को लेकर है।

पिछली आठ तिमाहियों में, कुल मिलाकर जीडीपी के प्रतिशत के रूप में घरेलू कर्ज बढ़ रहा है। संपत्ति के मूल्य बढ़ने से घरों की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है, लेकिन उच्च आय वाले वर्ग ज्यादा मजबूत हैं। जीवनयापन की लागत में लगातार वृद्धि से खरीदने की क्षमता पर दबाव बढ़ रहा है। महामारी के बाद से, जीडीपी डिफ्लेटर 25 प्रतिशत बढ़ गया है (2019 सूचकांक)। कर्ज कम करने की इच्छा से निकट भविष्य में ऋण खपत में कमी आ सकती है। जीवनयापन की लागत को स्थिर रखना और रोजगार की सुरक्षा सुनिश्चित करना सरकार के लिए निकट और मध्यम अवधि में जरूरी काम होंगे।

तीसरा, मौद्रिक नीति समिति ने सतर्कता का रुख बनाए रखा है क्योंकि महंगाई अभी ज्यादा है और ब्याज दर कम करने की गुंजाइश बहुत कम है। हाल के महीनों में खाद्य कीमतों, खासकर सब्जियों की कीमतें बढ़ने से महंगाई बढ़ी है। अब सवाल है कि क्या सरकार को सिर्फ खाने-पीने की चीजों की कीमतों को छोड़कर बाकी चीजों की बढ़ती कीमतों और महंगाई पर ध्यान देना चाहिए। इसमें कुछ तर्क हैं। खरीफ फसलों के आने से कीमतों में कमी आने की उम्मीद है साथ ही इस समय केवल एक-तिहाई चीजें ही 4 प्रतिशत से अधिक महंगी हुई हैं। हमारे हिसाब से भी औसतन महंगाई भी बहुत ज्यादा नहीं है।

दूसरी बार महंगाई बढ़ने की चिंता अभी तक स्पष्ट नहीं हुई है क्योंकि भविष्य में महंगाई, ग्रामीण/शहरी मजदूरी वृद्धि और कारोबारी लागत से जुड़ी उम्मीदें नियंत्रण में हैं। लंबी अवधि तक सख्त मौद्रिक नीति अपनाने से वृद्धि के मोर्चे पर अधिक नुकसान हो सकता है। इस तर्क में एकमात्र जोखिम, मुद्रा से जुड़ी हुई है जो डॉलर की बोली और पोर्टफोलियो बिक्री के दबाव में है।

विदेशी मुद्रा भंडार में रिकॉर्ड स्तर की साप्ताहिक गिरावट से अंदाजा मिलता है कि मुद्रा को नए क्रमिक निचले स्तर पर जाने से रोकने के लिए बड़े हस्तक्षेप की आवश्यकता थी। फिर भी, यह तर्क दिया जा सकता है कि विदेशी मुद्रा भंडार में मजबूत वृद्धि ऐसे ही ‘मुश्किल दिनों’ के लिए थी। प्रगतिशील नीतिगत पूर्वाग्रह 2025 की शुरुआत में दरों को कम करने की गुंजाइश पैदा कर सकता है।

(लेखिका डीबीएस बैंक की वरिष्ठ अर्थशास्त्री और कार्यकारी निदेशक हैं)

First Published - December 1, 2024 | 9:43 PM IST

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