वित्त मंत्री ने किसानों के लिए 60 हजार करोड़ रुपये की कर्जमाफी का ऐलान किया है। इस मसले से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल यह है कि इसमें से कितना पैसा वैसे किसानों तक पहुंचेगा, जो सही मायने में कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं?
एक सवाल यह भी है कि क्या यह कर्जमाफी 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कृषि की विकास दर को 4 फीसदी तक पहुंचाने में रामबाण साबित होगी? एक और महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या हम अपनी कृषि और खाद्य नीति के जरिये सही समस्याओं के हल की ओर बढ़ रहे हैं?
पिछले एक दशक से ज्यादा वक्त से हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान 2.5 फीसदी के आसपास बना रहा है। पिछले 2 साल में इसकी रफ्तार थोड़ी तेज हुई है और इस अवधि में कृषि की विकास दर 4 फीसदी रही है। हालांकि बढ़ती आबादी के लिहाज से अनाज के उत्पादन में बढ़ोतरी नहीं हुई है, बल्कि अनाज की प्रति व्यक्ति खपत घटी है।
1990-91 में अनाज की प्रति व्यक्ति खपत 468 ग्राम और दाल की प्रति व्यक्ति खपत 42 ग्राम थी, जो 2005-06 में घटकर क्रमश: 412 ग्राम और 33 ग्राम पर आ गई है। लोगों के खाध्द व्यवहार में इस तरह की तब्दीली के लिए कुछ लोग बढ़ती आमदनी को जिम्मेदार मान सकते हैं। ऐसा कहा जाता है कि आमदनी बढ़ने के साथ-साथ लोगों के खान-पान का व्यवहार बदलता है और उनका ज्यादा जोर अनाज-दाल पर नहीं रह जाता है।
2005-06 में कराए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़े अपनी अलग ही कहानी कहते हैं। सर्वे के मुताबिक देश में कुपोषित लोगों की तादाद काफी ज्यादा है। सर्वे में कहा गया है कि देश में 5 साल से कम उम्र के बच्चे शारीरिक रूप से अविकसित हैं और इसी उम्र के 43 फीसदी बच्चों का वजन (उम्र के हिसाब से) कम है। इनमें से 24 फीसदी शारीरिक रूप से काफी ज्यादा अविकसित हैं और 16 फीसदी का वजन बहुत ही ज्यादा कम है।
अब वयस्कों की बात करते हैं। देश में 15 से 49 साल की उम्र के बीच की महिलाओं का बॉडी-मास इंडेक्स (बीएमआई) 18.5 से कम है, जो उनमें पोषण की गंभीर कमी की ओर इशारा करता है और इन महिलाओं में से 16 फीसदी तो बेहद ही पतली हैं। इसी तरह देश में 15 से 49 साल की उम्र के 34 फीसदी पुरुषों का बीएमआई भी 18.5 से कम है और इनमें से आधे से ज्यादा पुरुष बेहद कुपोषित हैं।
दरअसल, पोषण से संबंधित हमारी बुनियादी समस्या का समाधान अब तक नहीं किया जा सका है और हमें लोगों के खानपान का स्तर ठीक करने की दिशा में पहल किए जाने की जरूरत पर जोर देना होगा।
वर्ष 2006-07 से पहले 10 साल में देश में अनाज के उत्पादन में 8 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई, जो पैदावार में वृध्दि के कारण हुई। इस धीमे विकास के पीछे बाजार की स्थितियां जिम्मेदार रहीं। इस साल की आर्थिक समीक्षा के मुताबिक 1996-97 से 2003-04 की अवधि के दौरान कृषि के खिलाफ टर्म्स ऑफ ट्रेड सालाना 1.7 फीसदी रहा। लेकिन समीक्षा में यह भी कहा गया है कि 2006-07 से पहले एक दशक में कृषि का सालाना इनपुट ग्रोथ काफी धीमा था।
नेट फिक्स्ड कैपिटल स्टॉक के मामले में यह 1.2 फीसदी, सिंचाई क्षेत्र के मामले में 0.5 फीसदी, फर्टिलाइजर इस्तेमाल के मामले में यह 2.3 फीसदी रहा। समीक्षा में यह उम्मीद जाहिर की गई है कि हालात बेहतर होंगे और इस साल अनाज का उत्पादन बढ़कर 219-220 मिलियन टन हो जाएगा। अनाज का भंडार जुलाई 2005 के बाद से लगातार बफर स्टॉक संबंधी मानक से नीचे चल रहा है।
2007-08 के दिसंबर महीने तक थोक मूल्य सूचकांक में महज 3 फीसदी का इजाफा दर्ज किया गया है। पर उपभोक्ता कीमतों के मामले में उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय की प्राइस मॉनिटरिंग सेल द्वारा जुटाए गए आंकड़े अलग तरह की जबान बोल रहे हैं। ये आंकड़े दिल्ली में 8 फरवरी 2008 को सामान की रिटेल कीमतों से संबंधित हैं। इनके मुताबिक, पिछले साल भर में चावल की कीमतों में 13 फीसदी, गेहूं की कीमतों में 8 फीसदी और खाद्य तेल की कीमतों में 20 फीसदी से ज्यादा का इजाफा दर्ज किया गया है।
ग्रामीण परिपेक्ष्य में देखें तो हालात और भी बुरे हैं। इस साल यदि मॉनसून ने साथ नहीं दिया तो अनाज के भंडारण में जबर्दस्त कमी आएगी और जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत अनाज के वितरण का काम काफी काफी मुश्किल भरा साबित हो सकता है।
लिहाजा इन सब बातों पर गौर करना होगा। यह सच है कि आगामी आम चुनावों के मद्देनजर सरकार की अपनी मजबूरियां भी हैं, पर कम से कम खाद्य के अर्थशास्त्र पर तो चिंता की ही जानी चाहिए। पर बाजार के अर्थशास्त्री खुली हुई अर्थव्यवस्था के एक आम सिध्दांत की दुहाई देने से बाज नहीं आते।
इस सिध्दांत के मुताबिक, जिस सामान का उत्पादन नहीं किया जा सकता, उसका आयात कर लिए जाने में कोई गुरेज नहीं है। यदि इसे मान भी लिया जाए, तो इस सचाई को नहीं नकारा जा सकता कि पूरी दूनिया में फिलहाल खाद्य पदार्थों के संकट का दौर चल रहा है। 70 के दशक की शुरुआत में पैदा हुए खाद्य संकट के बाद ऐसा पहली दफा हुआ है जब दुनिया भर में अनाज का भंडारण महज उतना ही बचा है, जिससे महज 60 दिनों तक ही लोगों का भोजन चलाया जा सकता है।
ग्लोबल लेवल पर खाद्य पदार्थों की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं और फरवरी 2008 तक चावल व गेहूं की कीमतें करीब 450 डॉलर प्रति टन पहुंच चुकी हैं। जबकि भारत में इन दोनों अनाजों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य महज 10 हजार रुपये प्रति टन तय किया गया है। ऐसे में यदि सरकार इन दोनों अनाजों के आयात की इजाजत देती भी है, तो यहां आयातित अनाज की कीमत काफी ज्यादा होगी।
ग्लोबल लेवल पर खाद्य पदार्थों की मौजूदा हालत के अगले 3 से 5 साल तक बरकरार रहने के आसार हैं। ऐसे में भारत के पास मध्यमार्गी होने के अलावा कोई और चारा नहीं है। अनाज के उत्पादन में किसानों की दिलचस्पी एक दफा फिर से जगानी होगी। कृषि अर्थशास्त्र में नव्यशीलन को अपनाना होगा। सिंचाई तंत्र को दुरुस्त करना होगा और प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ाए जाने पर जोर देना होगा।
उत्तर पश्चिम भारत में आजमायी गई हरित क्रांति को आगे बढ़ाना होगा और पूर्वी भारत में हरित क्रांति की शुरुआत करनी होगी। इस मामले में जानेमाने कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर एम. एस. स्वामीनाथन द्वारा पेश किए गए 5 सूत्री कार्यक्रम को आजमाया जा सकता है।
ये हैं : (1) खेती की जमीन का संरक्षण हो और मिट्टी के उचित रखरखाव पर ध्यान दिया जाए (2) जल संरक्षण, जल प्रबंधन और जल के बेहतर इस्तेमाल के हर तरह के इंतजाम हों (3) कृषि क्षेत्र में क्रेडिट और इंश्योरेंस संबंधी सुधारों को लागू किया जाए (4) ग्रीन तकनीक का इस्तेमाल हो (5) उपज की सुनिश्चित और दाम के लिहाज से अच्छी मार्केटिंग पर जोर दिया जाए।