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छोटी कंपनियां और भविष्य की राह

तेजी से बदलते माहौल में ऐसी परिस्थितियां निर्मित करने की जरूरत है जहां मौजूदा कंपनियां न केवल अपने लिए संघर्ष कर सकें बल्कि अपना अस्तित्व भी बचाए रख सकें। बता रहे हैं अजय शाह

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अजय शाह   
Last Updated- October 04, 2023 | 8:53 PM IST

सन 1989 में जब तत्कालीन सोवियत संघ ने पहली बार अंतरराष्ट्रीय व्यापार को अपनाया तो यह सोवियत कंपनियों के लिए संकट की स्थिति थी। इन कंपनियों पर सरकार का नियंत्रण था और वे बाजार के द्वारा नहीं बल्कि अफसरशाही प्रक्रिया द्वारा निर्मित थीं। ऐसे में हजारों कंपनियां और फैक्टरियां बंद हो गईं।

एक बड़ी अर्थव्यवस्था के लिए इसके क्या परिणाम हो सकते हैं इस बात को एक काल्पनिक बमबारी अभियान के उदाहरण से समझा जा सकता है। कल्पना कीजिए कि शत्रु विमान सेवा ने सोवियत संघ पर हवाई हमला करके उसकी फैक्टरियों को नष्ट कर दिया है। यह सोवियत संघ के पूंजी भंडार के लिए एक बड़ा झटका होती। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का निर्माण श्रम (एल) और पूंजी (के) से होता है।

अगर किसी बमबारी की वजह से अर्थव्यवस्था का पूंजी भंडार कम होता है तो जीडीपी में गिरावट आएगी। सोवियत संघ में भी ऐसा ही हुआ। एक और जहां पुरानी कंपनियां व्यापार संबंधी बाधाएं समाप्त होने से अस्त व्यस्त हो गईं, वहीं देश की उत्पादक क्षमता का बड़ा हिस्सा नष्ट हो गया। इसका असर सोवियत संघ के जीडीपी पर भी पड़ा। इस समस्या के एक हल्के संस्करण ने हाल के दशकों में भारत को प्रभावित किया है।

बहुत बड़ी तादाद में भारतीय कंपनियां अनुत्पादक हैं। अधिकांश भारतीय कंपनियों की गुणवत्ता सही नहीं है। देश में ऐसी कंपनियों की भरमार है जिनका प्रबंधन कमजोर है, तकनीक कमजोर है, जिनकी वित्तीय स्थिति सही नहीं और उत्पादकता भी ठीक नहीं है। निर्यात, आयात, विदेशी ऋण, विदेशी शेयर पूंजी, विदेशी कर्मचारियों आदि वाली अंतरराष्ट्रीय कंपनियां अधिक उत्पादक हैं लेकिन इनमें भारतीय कंपनियां बहुत कम हैं।

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छोटी और कमजोर भारतीय कंपनियों की जीडीपी और रोजगार में बड़ी हिस्सेदारी है। आर्थिक नीति की पहेली है ऐसे हालात तैयार करना जहां पुरानी कंपनियों को उत्पादकता बढ़ाने की प्रेरणा मिल सके। किसी कंपनी के लिए ऐसा करना आसान नहीं है। देश का हर कारोबारी परिदृश्य पर नजर बनाए हुए है और इस संबंध में निर्णय ले रहा है।

अगर कई कंपनियां बंद होती हैं तो जीडीपी को नुकसान पहुंचेगा। कई कारोबारी परिवार निवेश से दूरी बनाते हैं, अगर वे अपने बच्चों और अपनी पूंजी को विदेश भेजते हैं तो इससे जीडीपी वृद्धि में धीमापन आएगा।

एक चरणबद्ध प्रक्रिया के तहत देश में उच्च गुणवत्ता वाली कंपनियां उभरीं, कई क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा बढ़ी और कंपनियों की स्थिति बेहतर हुई। सर्वाधिक उल्लेखनीय अवधि 1991 से 1999 के बीच रही। 1991 में जहां सीमा शुल्क 300 फीसदी के साथ उच्चतम स्तर पर था, वहीं 1999 में यशवंत सिन्हा ने कहा कि इन दरों में सालाना 5 फीसदी की दर से कमी की जाएगी।

भारत की कंपनियों ने भी इस घटनाक्रम को लेकर प्रतिक्रिया दी और सन 1991 से 2011 की अवधि में देश में निवेश में जबरदस्त तेजी आई। सन 2011 से अनुपालन के माहौल में भी बदलाव आया। कई अथवा अधिकांश भारतीय कं​पनियों ने इस हकीकत के साथ कारोबार किया कि कुछ कानूनों का एक हद तक उल्लंघन होगा। भारत में उच्च कर दरें, अधिक केंद्रीय नियोजन और नियमन आदि कंपनियों को खत्म कर रहे हैं या इनके चलते कारोबारियों को जेल में डाला जा रहा है।

इससे कंपनियों में बदलाव के लिए मुश्किल हालात बनते हैं। कॉर्पोरेट आय कर पर विचार करें तो मान लेते हैं कि एक कंपनी पारंपरिक रूप से संचालित होती है और वह कॉर्पोरेशन कर का उल्लंघन करती है। उसके सामने अत्यंत कठिन माहौल है जहां उक्त रुख अपनाना व्यवहार्य नहीं है। मान लेते हैं कि कॉर्पोरेशन कर दर 40 फीसदी है।

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इस मामले में कंपनी को मुश्किल बदलाव का सामना करना पड़ता है क्योंकि उसका अनुभव तो शून्य प्रतिशत कर का है जबकि संगठित क्षेत्र में यह दर 40 फीसदी है। यानी कंपनी से इतनी अधिक दर से कर चुकाने की उम्मीद की जाती है। उत्पादकता के कम स्तर पर कई कंपनियों के लिए ऐसा करना मुश्किल हो सकता है। असंगठित क्षेत्र की कई कंपनियों को तब बाहर का रास्ता चुनना पड़ सकता है या फिर वे कारोबार में निवेश करना बंद कर सकती हैं।

दूसरी ओर अगर कॉर्पोरेशन कर 20 फीसदी हो तो बदलाव अधिक सहज हो सकता है। तब कंपनियों के लिए उत्पादकता सुधार को अपनाना और उस स्थिति में पहुंचना आसान होगा जहां वे 20 फीसदी कर चुका सकें। क्योंकि तब इसके बावजूद उन्हें अच्छा प्रतिफल हासिल होता रहेगा।

इस उदाहरण में हमने राज्य के केवल एक कदम पर विचार किया है यानी कॉर्पोरेशन कर पर। वास्तविक दुनिया में राज्य कई तरह के कदम उठा सकता है जो कंप​नी की विचार प्रक्रिया को प्रभावित कर सकते हैं। हर प्रकार के कराधान, केंद्रीय नियोजन और नियमन मायने रखते हैं और साथ ही दंड को लेकर रुख भी मायने रखता है।

अगर किसी कंपनी से कहा जाता है कि वह ढेर सारे नियमन के अनुपालन की दिशा में तेजी से आगे बढ़े, उदाहरण के लिए श्रम और भवनों से संबंधित नियमन तो उसे केद्रीय योजनाकारों की धुन पर नाचना पड़ेगा, ऊंची ब्याज दर चुकानी होगी और एजेंसियों या नियामकों से बचाव के लिए अधिवक्ताओं, लेखाकारों आदि की टीम तैयार करनी होगी। अधिकांश कंपनियों के लिए यह मुश्किल होगा।

सबसे बड़ी कंपनियों ने यह बदलाव कर लिया। उन्होंने भारतीय नीतिगत माहौल में कारोबार के लिए टीम और क्षमताएं विकसित कर ली हैं। परंतु ऐसी फर्म बहुत कम हैं और देश की अर्थव्यवस्था में इनकी हिस्सेदारी बहुत कम है। भारतीय अर्थव्यवस्था की धड़कन हजारों अन्य कंपनियां और खासतौर पर दूरदराज इलाकों में व्याप्त छोटी कंपनियां हैं जो इस माहौल से निपटने के लिए अभ्यस्त नहीं हैं।

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पूरी तरह बाजार अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों के आधार पर संचालन करना भी संभव है: जो कंपनियां इस नीतिगत माहौल को नहीं संभाल पाती हैं उन्हें बंद ही हो जाना चाहिए। इसके लिए दिवालिया प्रक्रिया है जो तेजी से निर्गम में मदद करती है। इसके लिए आवश्यक है कि मजबूत कंपनियां कमजोर कंपनियों या उनकी परिसंपत्तियों को खरीद लें।

इसके लिए श्रमिकों को कमजोर कंपनियों से मजबूत कंपनियों में स्थानांतरित करने की आवश्यकता होती है। यह तब होगा जब उत्पादन को कम उत्पादकता वाली जगहों से उच्च उत्पादकता वाले स्थानों पर ले जाया जाएगा। अच्छी परिस्थितियों में यह काम एक पीढ़ी में हो सकता है।

बहरहाल, भारतीय संस्थागत माहौल इसके लिए बहुत अधिक उपयुक्त नहीं है। उदाहरण के लिए दिवालिया सुधारों की दिशा में अच्छी शुरुआत हुई थी लेकिन यह कठिनाइयों में उलझ गई और फिलहाल यह अच्छी स्थिति में नहीं है। ऐसे में बीच का समझदारी भरा रास्ता यही है कि राज्य का दबाव कम किया जाए ताकि मझोली कंपनियां हौसला न खो दें।

इसमें कम कर दर, कम केंद्रीय नियोजन, कम नियमन, एजेंसियों और नियामकों के लिए कम स्टाफ और बजट, सजा का कम स्तर, आर्थिक अपराधियों के लिए कैद की सजा का अंत और बेहतर संचालन वाली अदालतें आदि शामिल हैं।

(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published : October 4, 2023 | 8:53 PM IST