एक निश्चित सीमा के बाद लेनदेन का समय घटने से जरूरी नहीं कि इक्विटी बाजार की गुणवत्ता में इजाफा हो। इसके विपरीत इससे भागीदारी और विविधता घट सकती है। बता रहे हैं केपी कृष्णन
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) शेयर बाजारों के निपटान समय में भारी कटौती की संभावना टटोल रहा है। सौदों के निपटान के समय में इस तरह की कटौती क्या हमेशा ही अच्छी होती है?
1990 के दशक के शुरू में बंबई स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) में हर पखवाड़े एक बार निपटान होता था। इसके अलावा बीएसई का तरीका उतना भरोसेमंद भी नहीं था।
जब आप शेयर बेचते थे तो एक पखवाड़े या उससे अधिक की देरी हो जाती थी। इस कारण उन शेयरों में पैसा फंस जाता था। अगर आपको पैसों की जरूरत होती थी तो आप तुरंत शेयर नहीं बेच सकते थे और न ही तुरंत पैसा हासिल कर सकते थे। हालांकि शेयर रियल एस्टेट की तरह इतने खराब भी नहीं होते थे लेकिन तब शेयर बेचना एक समयखाऊ और अविश्वसनीय प्रक्रिया थी।
1992 में सांविधिक संस्था के रूप में सेबी की स्थापना और नैशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) जैसे नए एक्सचेंज के गठन के बाद निपटान प्रक्रिया हर सप्ताह होने लगी। सबसे अहम बात यह कि इसके बारे में अनुमान लगाया जा सकता था।
इसका दोहरा लाभ हुआ। पहला तो यह कि निपटान समय एक पखवाड़े से घटकर एक सप्ताह रह गया और दूसरा यह कि संभावनाएं बढ़ गईं क्योंकि एनएसई की व्यवस्था ने घड़ी की मशीन की तरह काम किया।
जब शेयर बेचे गए तो पैसा विश्वसनीय तरीके से हफ्ते भर के भीतर आ गया। बड़ा बदलाव 2000 में तब आया जब रोलिंग सेटलमेंट शुरू किया गया। इस व्यवस्था में निपटान टी + 5 से होता था (सोमवार को शेयर बेचने पर पैसा अगले सोमवार को मिल जाता था) और फिर टी + 3 आया जिसमें सोमवार को शेयर बेचने पर रकम गुरुवार को मिलने लगी।
करीब दो दशक पहले शुरू किए गए इन उपायों की बदौलत शेयर काफी हद तक लिक्विड परिसंपत्ति ऐसेट हो गई और हैं भी। आप अपना पैसा शेयरों के रूप में रख सकते थे और पैसे की अचानक जरूरत पड़ने पर इन शेयरों को सोमवार को बेच सकते थे और गुरुवार को सौ फीसदी भरोसे के साथ पैसा मिल सकता था। निपटान की प्रक्रिया घटकर तीन दिन होने से बाजारों की अनिश्चितता खत्म हुई है। इसमें इक्विटी मार्केट में हुए सुधारों ने बड़ा काम किया है।
इसका मतलब क्या निपटान समय घटाकर दो या एक दिन करना वाकई बेहतर होगा? या फिर ऐसी व्यवस्था पर विचार करना चाहिए जहां किसी भी तरह की कोई देर ना हो। उदाहरण के लिए ऐसी व्यवस्था हो सकती है जिसमें अगर दिन में 2 बजे शेयर बेचे जाएं तो 1 मिनट बाद ही पैसा मिल जाए। आखिरकार हम डिजिटल दौर में हैं और कंप्यूटरों के साथ तो कुछ भी संभव है। लेकिन शायद इतनी तेजी भी नहीं!
आइए, हम पूरी लेनदेन प्रक्रिया पर विचार करते हैं। एक व्यक्ति के पास कुछ शेयर हैं और वह इनको बेचने के लिए ब्रोकर के पास ऑर्डर देता है। तुरंत ही सौदा हो जाता है। अब इसके बाद आगे की प्रक्रिया होनी होती है। वह है, निवेशक से ब्रोकर शेयर लेता है और फिर क्लीयरिंग हाउस तक ये शेयर पहुंचते हैं। बेशक, ये सब डिजिटल रिकॉर्ड हैं लेकिन इस प्रक्रिया को पूरा करने में समय भी लगता है और मेहनत भी।
इसके विपरीत कोई व्यक्ति शेयर खरीदने के लिए ऑर्डर देता है। सौदा तुरंत हो जाता है। लेकिन इसके बाद जरूरी कदम होते हैं। इनमें निवेशक का ब्रोकर को रकम देना और ब्रोकर का क्लीयरिंग हाउस को यह राशि सौंपना शामिल है। यह सही है कि पैसा तुरंत दिया जा सकता है लेकिन इस प्रक्रिया को पूरा करने में भी समय और श्रम लगता है।
भारत में कुछ लोग हैं जो पूरी तरह से डिजिटल दुनिया से जुड़े हुए हैं। वे अपने फोन पर यूपीआई और बैंक ऐप्लीकेशंस का इस्तेमाल करते हैं। वे अपने मोबाइल फोन पर कुछ इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल ब्रोकर ऐप का भी प्रयोग करते हैं। वे हर समय अपने मोबाइल फोन से जुड़े रहते हैं। अपने मोबाइल फोन का इस्तेमाल करके बड़े वित्तीय लेनदेन करने में वे सहज और आश्वस्त रहते हैं। हम देखते हैं कि ऐसे लोगों के लिए खरीद ऑर्डर देना वाकई व्यावहारिक होता है और कुछ ही सेकंड में वह सौदा हो भी जाता है। उसके बाद वह अपना फोन खोलते हैं और पैसा दे देते हैं।
समस्या यह है कि भारत में ज्यादातर लोग या बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो अभी भी डिजिटल दुनिया के अभ्यस्त नहीं हैं। भारत सरकार के एक पूर्व मंत्री ने एक बार कहा भी था कि भारत में कई सदियों के लोग साथ-साथ रहते हैं। शायद 5 फीसदी भारतीय डिजिटल दुनिया के हैं लेकिन 95 फीसदी नहीं हैं। वास्तविक प्रतिशत पर सवाल उठाया जा सकता है लेकिन भारत का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो अभी इससे दूर है।
भारत में ऐसे लोगों की संख्या काफी है जिनको अपने पारिवारिक ब्रोकर को फोन करना और ऑर्डर देना ज्यादा सुविधाजनक लगता है। उसके बाद उनके पास यह बताने के लिए फोन आ जाता है कि सौदा हो गया है और फिर उनको जिस राशि का भुगतान करना है, उसका भी ई-मेल मिल जाता है।
वे आवश्यक राशि का चेक देने और इसे ब्रोकर के दफ्तर भेजने को प्राथमिकता देते हैं। ब्रोकर के खाते में पैसा पहुंचने में कुछ समय लगता है। आज की डिजिटल पीढ़ी के लोग भले ही इस तरह की देरी की आलोचना करें, लेकिन भारत की बड़ी आबादी की आज भी यही मानसिकता है। कुछ लोग हैं जो चाय का भुगतान भले ही यूपीआई से करते होंगे लेकिन बड़ी राशि भेजने के लिए वे यूपीआई का इस्तेमाल नहीं करेंगे।
और निश्चित ही विदेशी निवेशकों की भी समस्या है जो विभिन्न समय क्षेत्र में काम करते हैं और जिनको विदेशी मुद्रा को भारतीय रुपए में बदलने में देरी का सामना करना पड़ता है। इस लेनदेन की प्रक्रिया पूरी करने के लिए उनको भी अधिक समय की जरूरत है।
अगर निपटान में देरी को नियामकीय आदेश से सख्त बना दिया जाए तो क्या होगा? कागज पर ऐसा लग सकता है कि वैश्विक मानकों के लिहाज से भारतीय शेयर बाजार बहुत ही शानदार हैं और तेजी से निपटान कर रहे हैं। लेकिन कई पुराने लोग चुपचाप से इस बाजार से दूर हो सकते हैं। हो सकता है कि वे कुछ ना कहें, किसी जुलूस-प्रदर्शन में भी न दिखाई दें लेकिन वह इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि अब यह बाजार उनके लिए नहीं है। खीझ में उनके पोर्टफोलियो में रियल एस्टेट और सोना बढ़ सकता है।
अगर सभी तरह के लोग शेयर बाजार में सीधे भागीदारी करें तो यह भारत के लिए अच्छा है। इक्विटी बाजारों के लिए भी यह बढ़िया बात है जब अलग-अलग तरह के कई नजरिये बाजार में आते हैं। इससे सूचनाओं और आकलनों का दायरा बढ़ता है जिससे कीमतों पर असर आता है।
भागीदारी को व्यापक करने से पिछले 15 वर्षों के दौरान इक्विटी मार्केट की लिक्विडिटी में आई लंबी गिरावट को दूर करने में मदद मिलेगी और बाजार दक्षता बढ़ेगी। वित्तीय बाजारों में नीतिगत सोच का उद्देश्य बाजार की क्वालिटी पर होना चाहिए, न कि चमकदार तकनीकी फीचरों पर।
(लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में मानद प्रोफेसर और पूर्व अफसरशाह हैं)