अर्थव्यवस्था कोविड-19 महामारी की छाया से उबर रही है और नीति निर्माताओं तथा बाजार के लिए यह जरूरी हो गया है कि वे महामारी के कारण उत्पन्न आर्थिक क्षति का आकलन करें तथा अपनी राजकोषीय एवं मौद्रिक प्रतिक्रिया को नए सिरे से तय करें। महामारी के दौरान नीति निर्माताओं को यह अनुमान लगाना पड़ा कि लॉकडाउन के कारण मांग को कितनी क्षति पहुंची तथा आपूर्ति कितनी बाधित हुई। अब दोनों मोर्चों पर चीजें स्पष्ट होने लगी है और यह आकलन करने की आवश्यकता है कि उन्होंने बहुत ज्यादा आपूर्ति की या बहुत कम। विकसित बाजारों में आपूर्ति अधिक हुई प्रतीत होती है। बैंकों द्वारा केंद्रीय बैंकों में जमा फंड में इजाफा तथा अन्य संकेतक बताते हैं कि मौद्रिक प्रतिक्रिया अतिरंजित थी। यह बैंकिंग तंत्र का अधिशेष फंड है। राजकोषीय प्रोत्साहन भी काफी अधिक नजर आता है। खासकर अमेरिका में खुदरा बिक्री रुझान से ऊपर निकल गई और वैश्विक स्तर पर भी वस्तु खपत बढ़ी। अमेरिका में मौद्रिक प्रोत्साहन कम करना शुरू कर दिया गया है।
भारत में भी बैंकिंग तंत्र में फंड में इजाफा देखने को मिला। भारत ने महामारी पर बहुत अधिक धन नहीं खर्च किया और इसकी वजह हम समझ सकते हैं। डेट और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) अनुपात 2019-20 के 75 फीसदी से बढ़कर 2020-21 में 90 फीसदी तक पहुंचने की प्राथमिक वजह थी नॉमिनल जीडीपी में गिरावट। सामान्य वर्षों में नॉमिनल जीडीपी में दो अंकों की वृद्धि के कारण राजकोषीय घाटे को सीमित रखने में मदद मिलती थी लेकिन वित्त वर्ष 2021 में ऐसा नहीं हुआ। बहरहाल वित्त वर्ष 2022 में नॉमिनल जीडीपी में 18 फीसदी की मजबूत वापसी चालू वर्ष में उसे रुझान से केवल छह फीसदी कम करती है। सवाल यह है कि ऐसी स्थिति में जबकि वित्त वर्ष 2021 में 11 फीसदी वृद्धि का सरकारी अनुमान है तब डेट अनुपात 87 फीसदी क्यों है, जो कि वित्त वर्ष 2021 के 90 फीसदी से बहुत कम नहीं है।
इन आंकड़ों में कई प्रकार से समायोजन किए जाने की आवश्यकता है। मिसाल के तौर पर इस वित्त वर्ष के अंत में सरकार का नकदी संतुलन (राज्य और केंद्र) जीडीपी का तीन फीसदी रह सकता है। यह मौजूदा 2.5 फीसदी से अधिक है जबकि सरकार के अनुमान के विपरीत जनवरी से मार्च तक सालाना आधार पर कर संग्रह घटने के बजाय बढऩे का अनुमान है। वित्त वर्ष 2022 के संशोधित अनुमान में पूंजीगत व्यय बढऩे का अनुमान भी आशावादी है। जैसा कि मैंने गत माह अपने आलेख में कहा था राज्य सरकारों की व्यय योजना और उनके क्रियान्वयन के बीच अंतराल बढ़ रहा है। सामान्य दिनों में यह पर्याप्त रहता है लेकिन लॉकडाउन के कारण इसमें इजाफा हुआ है। ऐसे समय में जबकि कर-जीडीपी अनुपात बढ़ रहा है और इस वर्ष यह महामारी के पहले के स्तर से एक फीसदी अधिक रह सकता है। यानी नकदी एकत्रित होगी। वित्तीय विश्लेषक कंपनियों के सकल ऋण और शुद्ध ऋण के बीच अंतर करते हैं। शुद्ध ऋण को बैलेंस शीट की नकदी से समायोजित किया जाता है।
दूसरा, बाजार का मानना है कि वित्त वर्ष 2023 में 12 फीसदी की वृद्धि हासिल होगी जिससे नॉमिनल जीडीपी महामारी के पहले के स्तर से तीन फीसदी के दायरे में आ सकती है। इससे न केवल अनुपात में कमी आएगी बल्कि इसका अर्थ यह भी होगा कि करों में इजाफा हो एवं घाटे में कमी आए। तीसरा, वित्त वर्ष 2023 के राजकोषीय अनुमान भी रूढि़वादी हैं। कुल मिलाकर ऋण-जीडीपी अनुपात सरकारी अनुमान से छह फीसदी कम होकर 81 फीसदी रह सकता है।
इस अनुपात के वित्त वर्ष 2020 के 75 फीसदी से बढ़कर 81 फीसदी हो जाने के कारकों को देखना भी दिलचस्प है। करीब तीन फीसदी हिस्सा केंद्र सरकार द्वारा वित्त वर्ष 2021 से 2023 के बीच बढ़ाए गए पूंजीगत व्यय की वजह से है। दो फीसदी हिस्सा उर्वरक सब्सिडी और निर्यात प्रोत्साहन के बकाये के निपटान से तथा कई ऐसी चीजों को बजट के दायरे में लाने से हुआ जो पहले बजट से बाहर थीं। इसमें खाद्य सब्सिडी का बड़ा हिस्सा शामिल है जिसकी फंडिंग पहले भारतीय खाद्य निगम करता था। यह केवल अंकेक्षण में बदलाव है और ऐसा करके बैलेंस शीट से परे की देनदारियों को औपचारिक बनाया गया है। शेष व्यय महामारी से संबंधित (नि:शुल्क खाद्यान्न, टीकाकरण और मनरेगा की मांग में इजाफा) था और ब्याज की उच्च लागत के कारण था लेकिन इनमें से कुछ की भरपाई उच्च प्राप्तियों से हो गई।
ऋण अनुपात मौजूदा अनुमान से कम रहने तथा उत्पादक कारणों से कर्ज में इजाफा यह दर्शाता है कि राजकोषीय स्थिति जितनी नजर आ रही है उससे बेहतर है। सवाल यह है कि बजट के बाद बॉन्ड प्रतिफल में इतना तेज इजाफा क्यों हुआ और आरबीआई द्वारा तय रीपो दर तथा 10 वर्ष के सरकारी बॉन्ड के अंतर यानी टर्म प्रीमियम में रिकॉर्ड इजाफा हुआ?
इस वर्ष का शुद्ध बाजार उधारी लक्ष्य महामारी के पहले के स्तर से दोगुना है और बाजार स्पष्ट रूप से इस बात को लेकर चिंतित हैं कि बॉन्ड के पर्याप्त खरीदार नहीं हैं। खासतौर पर वैश्विक बॉन्ड सूचकांक के समावेशन की दिशा में प्रगति न होने के कारण क्योंकि उस स्थिति में नए खरीदार मिलते। हालांकि वित्तीय बचत को देखें तो यह कोई समस्या नहीं है। वित्तीय बचत इस समय अधिक है और वृद्धिकारी बैंक जमा के प्रतिशत के रूप में बैंक उधारी कोविड के पहले के स्तर से अधिक नहीं है।
सरकारी बॉन्ड के शेयरों की तुलना में सस्ता होने का संबंध बचत से नहीं है। शेयर सरकारी बॉन्ड की तुलना में अधिक जोखिम वाले होते हैं और ऐसे में उन पर प्रतिफल अधिक होगा तभी लोग शेयर रखेंगे। इसे इक्विटी रिस्क प्रीमियम कहते हैं। फिलहाल यह नकारात्मक है। भारतीय शेयरों के उच्च विदेशी स्वामित्व की एक वजह यह है कि अमेरिकी बॉन्ड प्रतिफल कम है।
सरकार उच्च ब्याज लागत को स्वीकार करने को तैयार है। भारत सरकार के बॉन्ड की कम विदेशी धारिता से अस्थिरता का जोखिम कम होता है। सरकार द्वारा चुकाई जाने वाली उच्च दर घरेलू बचतकर्ताओं के लिए आय है। बहरहाल, वह न केवल कॉर्पोरेट बॉन्ड बल्कि कई बैंक ऋण तथा के लिए भी मानक है और समय पूर्व मौद्रिक कड़ाई सुधार की प्रक्रिया को धीमा कर सकती है। यह संभव है कि एक बार सरकारों को नकदी एकत्रित होती दिख जाए तो वे उधारी लक्ष्य कम कर देंगी लेकिन जोखिम यह है कि शायद वे लंबी प्रतीक्षा करें, यानी जब तक दूसरी तिमाही की उधारी मजबूत न हो जाए।
(लेखक एपैक स्ट्रैटजी के सह-प्रमुख एवं क्रेडिट स्विस के इंडिया स्ट्रैटजिस्ट हैं)