भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पास बिहार में अपने शानदार प्रदर्शन के बाद खुश होने को बहुत कुछ है। हालांकि यह चुनावी जंग ब्रिटेन के एक मशहूर सैन्य जनरल के शब्दों में कहें तो शायद ही एक आसान जंग थी। लेकिन नरेंद्र मोदी की चुनाव जिताऊ क्षमताओं को एक बार फिर प्रदर्शित करने से इतर यह राज्य विकास के मार्ग पर आगे बढऩे की प्रधानमंत्री की चर्चित क्षमता का असली इम्तिहान भी बन सकता है। कंपनियां अरबों के निवेश से विनिर्माण इकाइयां लगाएं, हजारों की संख्या में बढिय़ा वेतन वाले रोजगार पैदा हों और संपन्नता का एक पनाहगाह बनकर उभरे, ताकि यह पिछड़ा राज्य आगे बढ़ सके।
आलोचकों ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी की उपलब्धियों पर जो सवाल उठाए उसका मुख्य आधार यही रहा है कि उन्होंने इस राज्य में दशकों से कायम संपन्नता एवं सक्षमता का फायदा उठाया। भारत के नेता के तौर पर मोदी आर्थिक एवं बदलावकारी प्रतिभा दर्शाने में बुरी तरह नाकाम रहे हैं और कोविड-19 महामारी के समय उनके कमजोर प्रदर्शन से पहले ही यह बात उजागर हो चुकी थी। मोदी के लिए बिहार अपनी विकासपरक क्षमताएं दर्शाने के लिए एकदम साफ स्लेट है।
दरअसल मोदी ने बिहारी मतदाताओं की आकांक्षाओं के बारे में अच्छी समझ दिखाई और इसके ‘बीमारू’ दर्जे का जिक्र करते हुए वहां के लोगों को गरीबी के दंश का अहसास दिलाने में सफल रहे। उन्होंने लालू प्रसाद और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के शासन को बिहार के ‘बीमारू’ दर्जे के लिए जिम्मेदार बताया।
उनके राजनीतिक सहयोगी एवं फिर मुख्यमंत्री चुने गए नीतीश कुमार का पिछला रिकॉर्ड भी इस समस्या की भयावहता की वजह हो सकता है। बिजली, सड़क, पानी देने और कानून व्यवस्था की हालत सुधारने से जुड़ी अपनी उपलब्धियों के लिए तीन बार से मुख्यमंत्री पद पर आसीन नीतीश को सुशासन का खिताब दिया जाता रहा है। अगर बिजली देने के मामले में ही उनकी उपलब्धियां देखें तो पता चल जाता है कि उनका काम किस कदर चुनौतीपूर्ण रहा है? नीतीश के दौर में बिहार में बिजली खपत 700 मेगावॉट से बढ़कर 6,000 मेगावॉट हो गई और ‘लालटेन युग’ का खात्मा हो गया। नीतीश अक्सर लालू की पार्टी राजद के चुनाव चिह्न लालटेन को उस शासन के प्रतीक के तौर पर पेश करते रहे हैं।
पहली बार बिहार जाने वाले बाहरी लोगों को यह बात थोड़ी खटक सकती है कि नीतीश की उपलब्धियों को लेकर होने वाली चर्चाओं में कितना दम है? लेकिन निश्चित रूप से बिहार के लोगों ने इस बदलाव को खुद महसूस किया है। फिर भी यह विडंबना ही है कि सुशासन के बावजूद बिहार अब भी बीमारू राज्यों में बना हुआ है और विकास के तमाम मानदंडों पर होने वाली रैंकिंग में अक्सर निचले पायदानों पर मौजूद रहता है।
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक कार्यालय के महानिदेशक पद से सेवानिवृत्त गोविंद भट्टाचार्य ने ‘इकनॉमिक सर्वे ऑफ बिहार’ का हवाला देते हुए कई विसंगतियों को रेखांकित किया है। उनका कहना है कि बिहार की प्रति व्यक्तिआय राष्ट्रीय औसत के एक-तिहाई से भी कम है, सकल राज्य घरेलू उत्पाद में विनिर्माण की हिस्सेदारी 2015-16 और 2018-19 के दौरान एक फीसदी अंक गिरी है और राज्य के 38 में से 13 जिले देश के सर्वाधिक पिछड़े 117 जिलों में शामिल हैं।
बिहार के निराशाजनक प्रदर्शन के इन संकेतकों को सामने रखने के साथ ही भट्टाचार्य यह भी कहते हैं कि इस स्थिति के लिए अकेले नीतीश को जिम्मेदार ठहराना अनुचित होगा। भारत में जनसेवा में लगा कोई भी व्यक्ति सुधारों की राह में खड़े संस्थागत अवरोधों से बखूबी परिचित होगा। जहां तक बिहार का सवाल है तो वह सामाजिक पिछड़ेपन एवं भ्रष्टाचार के अतीत में इस कदर फंसा हुआ है कि वहां पर बड़े सुधार ला पाना कोई छोटी चुनौती नहीं है।
राजनीति एवं शासन के मामले में अपनी चमक खो चुके नीतीश के सत्तारूढ़ गठबंधन में कनिष्ठ सहयोगी की नई हैसियत मिलने के बाद उनका रुतबा और कम ही होने के आसार हैं। ऐसे में यह मोदी के लिए एक अवसर भी है। उनके पास वे सारे साधन हैं जिनके दम पर वह भारत की तस्वीर बदलने का दावा करते हैं और उन सबको परखने के लिए बिहार एकदम माकूल जगह है।
मोदी इसकी शुरुआत औद्योगीकरण से कर सकते हैं। बिहार के पास प्रवासी श्रमिकों की भारी संख्या है, लिहाजा यहां लगने वाले कारखानों के लिए मजदूर तलाशना कोई समस्या नहीं होगी। हालांकि राज्य की 75 फीसदी से अधिक आबादी के खेती पर ही निर्भर होने से कारखानों के लिए बड़े पैमाने पर जमीन तलाशना थोड़ा मुश्किल हो सकता है।
बिहार उन राज्यों में से एक है जहां जमीन का अधिग्रहण करना लगभग असंभव है क्योंकि यहां पर भूमि स्वामित्व के रिकॉर्ड ही नहीं हैं। हाल में शुरू की गई स्वामित्व योजना बिहार में जमीन के मालिकाना हक संबंधी रिकॉर्ड की समस्या को काफी हद तक दूर कर सकती है जिससे भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया आसान हो सकती है।
मोदी अपने लोकप्रिय कार्यक्रम स्वच्छ भारत अभियान को बिहार में पुरजोर ढंग से लागू करते हुए इसे ‘खुले में शौच से मुक्त’ घोषित करने की दिशा में भी बढ़ सकते हैं। अभी तक 38 में से आधे जिलों को ही खुले में शौच से मुक्त किया जा सका है। मोदी अपनी सरकार के महत्त्वाकांक्षी ‘हर घर नल से जल’ कार्यक्रम के केंद्र में भी बिहार को रख सकते हैं ताकि ग्रामीण परिवारों तक निर्बाध जलापूर्ति की जा सके। वह बिहार के खस्ताहाल स्वास्थ्य देखभाल ढांचे को दुरुस्त करने के लिए केंद्रीय फंड देने के साथ ही केंद्र की स्वास्थ्य बीमा योजना का विस्तार भी कर सकते हैं। उनके सामने बेशुमार मौके हैं।
शायद बिहार के मतदाताओं ने कमल के चुनाव-चिह्न पर बटन दबाते समय इसी तरह के सपने देखे होंगे। अगले पांच वर्षों में नीतीश नहीं बल्कि मोदी पर विकास कार्यों का दबाव होगा ताकि बिहार आत्मनिर्भर बन सके।
