पिछले शुक्रवार को 10 साल के बॉन्ड की ब्याज दर 3 आधार अंक (बीपीएस) कम होकर 6.99 फीसदी पर आ गई। यह 7 अप्रैल, 2022 के बाद से पहली बार 7 फीसदी से नीचे रही। मई के पहले सप्ताह में भी 10 साल के बॉन्ड की ब्याज दर 7 फीसदी से नीचे 6.98 फीसदी के स्तर पर आई और यह मुनाफा दर्ज करने से पहले ऐसा हुआ। उसी दिन 10 साल के बॉन्ड की नीलामी की अंतिम ब्याज दर 7.038 फीसदी तय की गई थी जो इसके एक साल का निचला स्तर है। बॉन्ड ब्याज दर में गिरावट के पीछे कई कारण थे, जिनमें अमेरिकी दर में गिरावट और कच्चे तेल की कीमतों में नरमी शामिल थी।
आइए कुछ उन प्रमुख मापदंडों पर नजर डालते हैं जो कोविड महामारी की शुरुआत के बाद से बॉन्ड बाजार को प्रभावित कर रहे हैं। वित्त वर्ष 2020 के आखिरी दिन, 10 साल के बॉन्ड की ब्याज दर 6.14 फीसदी रही। पिछले तीन वर्षों में, इसने 7.62 प्रतिशत (16 जून, 2022 को) के शीर्ष स्तर और 5.78 प्रतिशत (10 जुलाई, 2020) के निचले स्तर को देखा है।
ब्याज दर के वक्र के छोटे हिस्से पर गौर करें तब यह दृश्य कैसा नजर आता है? 91 दिनों के ट्रेजरी बिल (टी-बिल) की ब्याज दर, मार्च 2020 के अंत तक 4.24 प्रतिशत थी जो 8 मार्च, 2023 को 6.97 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई।
इसका सबसे निचला स्तर 25 नवंबर, 2020 को देखा गया था तब यह 2.92 फीसदी थी। फिलहाल यह 6.95 फीसदी के आसपास है। वित्त वर्ष 2022 के आखिरी दिन 364 दिन के टी-बिल का ब्याज दर 4.5 फीसदी रहा। 8 मार्च 2023 को यह बढ़कर 7.48 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गया। पिछले तीन साल में इसका निचला स्तर 8 जुलाई 2020 को 3.39 प्रतिशत रहा था। अभी यह 7 फीसदी के आसपास है।
31 मार्च, 2020 को 10 साल के अमेरिकी बॉन्ड की ब्याज दर 1 फीसदी से कम यानी 0.70 फीसदी के स्तर पर थी। यह 21 अक्टूबर, 2022 को बढ़कर 4.335 प्रतिशत हो गई। तीन साल की अवधि के दौरान इसका निम्नतम स्तर, वित्त वर्ष 2020 के अंत की तुलना में भी कम -0.50 प्रतिशत (4 अगस्त, 2020 को) था। फिलहाल यह करीब 3.46 फीसदी के स्तर पर है। इस अवधि के दौरान नीतिगत दर कैसे बढ़ी?
फरवरी 2020 तक 5.15 प्रतिशत के स्तर पर रहने के बाद मई 2020 में भारत की नीतिगत दर 4 प्रतिशत के अपने ऐतिहासिक निचले स्तर पर आ गई। एक बेहद लचीली मौद्रिक नीति के तहत सबसे कम ब्याज दर और नकदी के अधिक स्तर को बनाने की रणनीति ने तंत्र को महामारी के प्रभाव से लड़ने में मदद की।
यह मई 2022 के पहले सप्ताह तक उस स्तर पर रहा, जब निर्धारित बैठक से इतर अचानक बुलाई गई एक बैठक में, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अपनी नीतिगत दर को 40 बीपीएस बढ़ाकर 4.4 प्रतिशत कर दिया। यह मौद्रिक नीति समिति की निर्धारित बैठक से एक महीने पहले किया गया था और अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा अपनी नीतिगत दर में 50 बीपीएस की वृद्धि किए जाने से ठीक 12 घंटे पहले ऐसा करने का फैसला किया गया था, जो 22 वर्षों में सबसे अधिक था।
वहीं अमेरिका ने चार दशकों में सबसे खराब मुद्रास्फीति की दर से निपटने के लिए यह कदम उठाया था। अमेरिका में ब्याज दर बढ़ाने का फैसला मार्च में 25 आधार अंक की वृद्धि के बाद लिया गया जो 2018 के अंत के बाद पहली बार की गई वृद्धि थी। भारत में पिछली बार अगस्त 2018 में दरों में वृद्धि की गई थी जब नीतिगत दर को 6.25 प्रतिशत से बढ़ाकर 6.5 प्रतिशत कर दी गई थी।
मई 2022 में पहली बार ब्याज दरों में 4 प्रतिशत से 4.40 प्रतिशत की वृद्धि के बाद से अप्रैल 2023 तक दरों में कई बार बढ़ोतरी किए जाने की वजह से भारत में नीतिगत दर बढ़कर 6.5 प्रतिशत हो गई है। ऐसा इस वजह से हुआ क्योंकि आरबीआई के दर निर्धारण निकाय ने सर्वसम्मति से ब्याज दर को अपरिवर्तित रखने के पक्ष में फैसला किया था। अप्रैल में मुद्रास्फीति घटकर 4.7 प्रतिशत पर आ गई, जो इसके 18 महीने का निचला स्तर है।
इस दौरान अमेरिका में नीतिगत दर कैसे बढ़ी? दरअसल यह 0-0.25 प्रतिशत से बढ़कर 5-5.25 प्रतिशत हो गई। संक्षेप में, अमेरिका अपनी नीतिगत दर की वृद्धि को लेकर अधिक आक्रामक रहा है क्योंकि फेडरल रिजर्व को मुद्रास्फीति के अधिक मजबूत और उच्च स्तर के साथ मुकाबला करना पड़ रहा है। अमेरिका के बॉन्ड ब्याज दर में उतार-चढ़ाव भी भारत की तुलना में तेज है। सवाल यह है कि भारतीय बॉन्ड बाजार में सापेक्ष स्थिरता से किसे सबसे अधिक लाभ मिला है?
देश का कॉरपोरेट जगत भी कॉरपोरेट बॉन्ड ब्याज दर के तौर पर सरकारी बॉन्ड से जुड़ा हुआ है। सरकारी बॉन्ड तथा कॉरपोरेट बॉन्ड के बीच का दायरा कम हो गया है, जिससे उच्च रेटिंग वाली कंपनियों के लिए लागत कम हो गई है। वित्त वर्ष 2020 में सरकार की सकल उधारी 7.1 लाख करोड़ रुपये थी। वित्त वर्ष 2021 में यह लगभग दोगुनी होकर 13.7 लाख करोड़ रुपये हो गई। अगले साल यह घटकर 11.3 लाख करोड़ रुपये रह गया लेकिन वित्त वर्ष 2023 में यह बढ़कर 14.2 लाख करोड़ रुपये हो गई।
चालू वित्त वर्ष के लिए अनुमानित सकल उधारी योजना इससे भी अधिक करीब 15.4 लाख करोड़ रुपये है। इसमें से अब तक 2.08 लाख करोड़ रुपये जुटाए जा चुके हैं। यदि हम चालू वर्ष की अनुमानित उधारियों को इसमें शामिल करते हैं तो वित्त वर्ष 2021 के बाद से, कुल सरकारी उधारी 54.6 लाख करोड़ रुपये तक आंकी गई है जो पिछले दशक के अंत में सरकार के कुल बकाया उधार से अधिक है।
हालांकि शुद्ध उधार की राशि कम है लेकिन इसके अलावा राज्य विकास ऋण भी हैं। वित्त वर्ष 2020 में यह 6.08 लाख करोड़ रुपये थी जो वित्त वर्ष 2021 में बढ़कर 7.78 लाख करोड़ रुपये हो गई। वित्त वर्ष 2022 और वित्त वर्ष 2023 के आंकड़े क्रमशः 6.71 लाख करोड़ रुपये और 7.17 लाख करोड़ रुपये हैं।
सरकार के व्यावसायिक बैंकर के रूप में, आरबीआई ने महामारी के दौरान बड़े पैमाने पर ऋण देने की योजना अच्छी तरह आगे बढ़ाई। उसने सितंबर 2021 के बाद से खुले बाजार के माध्यम से कोई सरकारी बॉन्ड नहीं खरीदा है, ताकि उनकी अपनी बैलेंसशीट पर बोझ पड़े।
आरबीआई ने बैंकिंग प्रणाली की सेहत पर सख्त नजर रखी है। अमेरिकी बॉन्ड के ब्याज दर में बढ़ोतरी से अमेरिका का 16वां सबसे बड़ा बैंक, सिलिकन वैली बैंक (एसवीबी) धराशायी हो गया। बैंक ने बॉन्ड में भारी निवेश किया था और बॉन्ड ब्याज दर बढ़ने और कीमतें गिरने पर उसे खमियाजा भुगतना पड़ा था। भारतीय बैंकों को ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा है।
आरबीआई ने बैंक की सरकारी बॉन्ड रखने और उसकी परिपक्वता की श्रेणी की सीमा 19.5 फीसदी से बढ़ाकर 23 फीसदी कर दी है। बैंकों को इस श्रेणी में रखे गए बॉन्ड के मूल्य का आकलन बाजार के हिसाब से (मार्क टू मार्केट) करने की जरूरत नहीं है।
एसवीबी की विफलता का भारत में प्रभाव दिखने की कोई संभावना नहीं है लेकिन आरबीआई ने सक्रियता दिखाते हुए इसके बाद सभी बैंकों से हर डेटा को रोजाना दो बार एकत्र करना शुरू कर दिया, कुछ ऐसा ही इसने 2020 में येस बैंक लिमिटेड के पतन के बाद किया था।
आखिरकार हमने मुद्रा के मोर्चे पर भी अच्छा प्रदर्शन किया है। मार्च 2020 में एक डॉलर की कीमत 75.54 रुपये थी। प्रति डॉलर के हिसाब से रुपये का मूल्य 20 अक्टूबर, 2022 को फिसलकर 83.29 के स्तर पर पहुंच गया लेकिन तब से यह बढ़कर 82.18 (पिछले शुक्रवार को) हो गया है। आरबीआई अस्थिरता को कम करने के लिए मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप करते हुए डॉलर खरीद और बेच रहा है।
5 मई को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड महामारी के चलते लागू किए गए वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल को समाप्त करने की घोषणा की। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत के बैंकिंग नियामक ने पिछले तीन वर्षों में अर्थव्यवस्था का समर्थन करने और बैंकिंग प्रणाली की सेहत को दुरुस्त करने की दिशा में काफी अच्छा काम किया है जिससे दुनिया को भी राह मिल रही है।