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भारत में आय जनसांख्यिकी का तेजी से बदल रहा स्वरूप

शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में आय में अंतर की खाई धीरे-धीरे कम होने से अब औसत आय वाले उपभोक्ताओं के लिए बड़े बाजार तेजी से सामने आ रहे हैं। बता रही हैं रमा बीजापुरकर

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रमा बिजापुरकर   
Last Updated- March 11, 2024 | 11:22 PM IST

अगर आप भारत में उपभोग के विभिन्न प्रारूप के बजाय किसी एक ढर्रे पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो उलझन की स्थिति पैदा हो जाती है। (क्या भारत में उपभोग के प्रारूप का आकलन करने का कोई और भी तरीका है?) उलझन तब और बढ़ जाती है जब आप देश के उपभोग के आधारभूत प्रारूप को आंतरिक तथ्यों के संदर्भ में नहीं देखते है।

उपभोग का आधारभूत प्रारूप सकल आधार पर भारी भरकम दिखता है मगर इसमें औसत आय अर्जित और व्यय करने वाले लोग शामिल होते हैं। या फिर आपका ध्यान इस बात पर नहीं जाता कि भारत की एक बड़ी आबादी का छोटा प्रतिशत दूसरे बाजारों की छोटी आबादी के बड़े प्रतिशत से कहीं अधिक है। यही कारण है कि भारत को ऊंची आय वाले लोगों की कम आबादी के बावजूद महंगे ब्रांड या महंगी कारों का दूसरा या तीसरा बाजार आसानी से माना जा सकता है।

इस समय कारोबारी जगत और मीडिया में हमारे उपभोग के प्रारूप को लेकर तीन समानांतर चर्चा चल रही हैं। पहली चर्चा लोगों के बीच लैंबॉर्गिनी खरीदने की बढ़ती चाहत और महंगी स्पोस्टर्स यूटिलिटी व्हीकल (एसयूवी) खरीदने के लिए लोगों की लंबी कतारों के इर्द-गिर्द घूमती है। यह दिखाता है कि लोगों के पास ‘बहुत अधिक पैसा’ है। दूसरी चर्चा तिमाही नतीजों के निराशाजनक प्रदर्शन के इर्द-गिर्द घूमती है।

ये नतीजे उपभोग में ‘के आकृति वाली असंतुलित वृद्धि’, बड़े बाजार एवं ग्रामीण बाजारों के गायब होने और सफलता की एक नई रणनीति के रूप में ‘महंगी वस्तुएं उतारने’ का संकेत देते हैं। तीसरी चर्चा हाउसहोल्ड कंजम्प्शन एक्सपेंडिचर सर्वे (एचसीईएस) के नए आंकड़ों पर आधारित है। कुछ लोगों का कहना है कि इन आंकड़ों में पिछले 10 वर्षों में सुधार के आंकड़े बढ़ा-चढ़ा कर पेश किए गए हैं। वहीं, कुछ दूसरे लोग इस बात से हैरत में हैं कि आंकड़े इतने कम क्यों हैं। मगर इसके बावजूद वे यह सोचकर उत्साहित हैं कि व्यय में खाद्य पदार्थों पर होने वाले खर्च की हिस्सेदारी में तेजी से कमी आई है।

अब एचसीईएस के आंकड़ों पर नजर डालते हैं। मगर इसके बाद भी औसत आय के प्रमाण मिलते हैं। सर्वाधिक खर्च करने वाले शहरी भारतीयों में 5 प्रतिशत लोग उन परिवारों से ताल्लुक रखते हैं जो सालाना 11,24,000 लाख रुपये खर्च करते हैं (इससे परिवार का आकार बढ़कर 4.5 हो जाता है, यह अलग बात है कि धनी शहरी परिवारों का आकार छोटा होता है।) अब कुछ लोगों के तर्क से परे इसे बढ़ाकर 2.2 गुना कर देते हैं। 2.2 सरकार द्वारा दिया गया प्रति व्यक्ति निजी अंतिम उपभोग व्यय (पीएफसीई) आंकड़ा है।

पिछले आय सर्वेक्षण की तरह ही शहरी एवं ग्रामीण भारत में समान आय आबादी की उपस्थिति का पता चला है। बाजार ने काफी पहले ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में घटते अंतर का अनुभव कर लिया था। मीडिया, वस्तु, सड़क और अघोषित शहरों आदि की मदद से दोनों क्षेत्र एक दूसरे से जुड़ने लगे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि अर्द्ध शहरी ‘ररबन उपभोक्ता’ सामने आ रहे हैं।

एचसीईएस दर्शाता है कि ग्रामीण क्षेत्र में निचले सिरे से 10 प्रतिशत और शहरी क्षेत्र में शीर्ष के 5 प्रतिशत थोड़े अलग हैं मगर बाकी बचे लोगों की आय लगभग मिलती-जुलती है। अब अंततः औसत आय अर्जित करने वाले उपभोक्ताओं के साथ एक बड़ी आबादी के लिए बाजार तैयार होने लगा है। सारणी में मध्यम वर्ग को परिभाषित करने वाले उत्साही लोग जहां भी उपयुक्त लगे वहां ‘मध्यम वर्ग’ की पहचान करने के लिए स्वतंत्र हैं। जो चीज नहीं बदल रही है वह है दूसरे बाजारों की तुलना में औसत व्यय का स्तर।

हम फिलहाल मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय (एमपीसीई) श्रेणी से पहचान किए जाने वाले परिवारों पर आंकड़ों का इंतजार कर रहे हैं। कैंटार के आंकड़ों के अनुसार 40 लाख शहरी और 4 लाख ग्रामीण परिवार, जिनके पास कारें, वातानुकूलित मशीन (एयर कंडीशन) और लैपटॉप/पीसी हैं, वे एल5 में आते हैं।

शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में विभाजित 11.4 करोड़ परिवार जिनके पास रेफ्रिजरेटर, दोपहिया और कलर टीवी हैं, वे ज्यादातर एल2 से ताल्लुक रखते हैं। यह बात भी दिलचस्प है कि एल4 में तुलनात्मक रूप से संपन्न लोगों के समूह दायरे में शहरी उपभोक्ताओं की तुलना में ग्रामीण उपभोक्ताओं की संख्या लगभग दोगुना है।

10 करोड़ शहरी लोगों के ब्रिज क्लास एल3 पर कई बाजार विशेषज्ञ नजर रखते हैं और इनके लिए ‘मामूली महंगा’ (माइल्ड प्रीमियम) खंड तैयार करते हैं। (और अनुपयुक्त तरीके से इस पर बड़ा दांव अब एक बार फिर लैंबॉर्गिनी से जुड़ी चर्चा पर गौर करते हैं। भारत में एक वर्ष में 100 से अधिक लैंबॉर्गिनी बिकी हैं। इतनी ही अवधि में 2 लाख से अधिक मारुति स्विफ्ट बिकती हैं और सभी कारों की बिक्री का आंकड़ा जोड़ दें तो है 41 लाख तक पहुंच जाता है।

लैंबॉर्गिनी ने दुनिया में 10,112 कारें बेची हैं और इस लिहाज से भारत में मौजूदा 100 का आंकड़ा निश्चित रूप से बड़ा है। मगर इस आंकड़े के इर्द-गिर्द उपभोग का सिद्धांत तैयार करना कहां तक उचित है? दूसरी अहम बात यह है कि भारत में बेची जाने वाली 41 लाख कारें भी 10 प्रतिशत धनी परिवार ही खरीदते हैं और उसके बाद आने वाले दस प्रतिशत परिवारों में यह खरीदी जाती है।

अंत में, अब मौजूदा चर्चा पर बहस करते हैं कि बड़े बाजारों में उपभोग का प्रदर्शन क्यों इतना बदतर रहा है। अगर भारत में पेशे से जुड़ी वास्तविकताओं (हुनर, शिक्षा, अनुमानित रोजगार बनाम अकेले या एक या अधिक लोगों के साथ मिलकर काम करने वाले लोग) और कुछ पेशों पर कोविड महामारी के असर पर ईमानदारी से विचार किया जाए तो उत्तर स्पष्ट है।

हम अक्सर सुनते हैं कि आय का स्तर गिरने के बाद भी स्कूल फीस और किराये आदि पर होने वाले खर्च कम नहीं होते हैं। प्रत्यक्ष लाभ अंतरण, निःशुल्क खाद्य वितरण और भविष्य को लेकर आशावादी रुख से लोगों की हालत जरूर सुधरी है मगर व्यय के विकल्प सख्ती के साथ तैयार हो रहे हैं। एल3, एल4 और एल5 में लगभग 20 करोड़ ठीकठाक उपभोक्ता (भारत का वास्तविक मध्यम वर्ग) हैं मगर ग्रामीण भारत में ऐसे उपभोक्ताओं की संख्या मात्र 46 प्रतिशत है। एल2 में मास मार्केट मार्केटीयर सबसे अधिक दबाव का सामना करते हैं क्योंकि उपभोक्ता अपने बजट का पुनर्संतुलन कर रहे हैं और विभिन्न श्रेणियों में अपनी पसंद तय कर रहे हैं।

कंपनियां कह रही हैं कि महंगे उत्पाद तैयार करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। ये ऐसी कंपनियां हैं जो भविष्य में बदलने वाली परिस्थितियों के अनुरूप रणनीति तैयार नहीं कर रही हैं। जब बड़े बाजार का दोबारा विकास होना शुरू होगा तब क्या उनकी बाजार हिस्सेदारी लगातार मजबूत होने वाले छोटे स्थानीय कारोबारियों के पास चली जाएगी?
(लेखिका ग्राहक आधारित कारोबारी रणनीति क्षेत्र में कारोबारी सलाहकार हैं।)

First Published : March 11, 2024 | 11:22 PM IST