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अधिकता की समस्या

Last Updated- December 14, 2022 | 8:53 PM IST

कोविड-19 महामारी ने वृहद-आर्थिक प्रबंधन को खासा मुश्किल बना दिया है। कुछ हद तक बेहतर परिदृश्य होने के बावजूद चालू वित्त वर्ष का समापन उत्पादन में करीब दो अंकों की गिरावट के साथ हो सकता है। भले ही अगले वित्त वर्ष में हालात सुधरने की उम्मीद है लेकिन उच्च वृद्धि पथ पर फिर लौट पाना चुनौती ही रहेगा। भारत राजकोषीय स्तर पर दबाव में है और सार्वजनिक ऋण इस साल सकल घरेलू उत्पाद का करीब 90 फीसदी हो जाने की आशंका है। मुद्रास्फीति कई महीनों से भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के सहनशीलता स्तर से ऊपर बनी हुई है, जिसकी वजह से मौद्र्रिक नीति समिति ब्याज दरों में कटौती कर अर्थव्यवस्था को समर्थन नहीं दे पा रही है। अधिकतर अर्थशास्त्रियों ने कमजोर मांग की वजह से मुद्रास्फीति दर में गिरावट का अनुमान जताया था। इस मुश्किल दौर में वृहद-आर्थिक प्रबंधन में राहत देने वाला एक क्षेत्र बाह्य वित्तीय स्थिति है। हालांकि जल्द ही यह समस्या भी बन सकती है। भारत इस समय विदेशी मुद्रा के मोर्चे पर अधिकता की समस्या का सामना कर रहा है। आरबीआई के पास इस वित्त वर्ष की शुरुआत से ही करीब 100 अरब डॉलर मूल्य का समेकित भंडार है। इतना बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार हो जाने के कई कारण हैं। महामारी आने के बाद से ही मांग कमजोर रहने एवं कच्चे तेल की कम कीमतों के कारण आयात पर भारत के खर्च में खासी गिरावट आई है। लेकिन पूंजी की आवक मजबूत बनी रहने से भुगतान संतुलन में अधिशेष की स्थिति पैदा हो गई है।
मसलन विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने नवंबर में अब तक करीब 7 अरब डॉलर मूल्य की खरीदारी की है। बड़े केंद्रीय बैंकों के मौद्रिक नीति रुझानों को देखते हुए निकट भविष्य में भी पूंजी प्रवाह मजबूत बने रहने की संभावना है। मसलन अमेरिका के फेडरल रिजर्व ने औसत मुद्रास्फीति लक्ष्य-निर्धारण का रास्ता अपना लिया है जिसका मतलब है कि ब्याज दरें एक विस्तारित अवधि तक शून्य के करीब ही रहेंगी।
आरबीआई ने हाल के महीनों में विदेशी मुद्रा की भारी आवक को संभालने में काफी अच्छा काम किया है। विदेशी मुद्रा बाजार में दखल का नतीजा प्रणाली में रुपये की तरलता बढऩे के रूप में निकला है, जिससे बाजार की ब्याज दरें नीचे लाने में मदद मिली है। हालांकि आरबीआई ऐसा अनिश्चितकाल तक नहीं कर सकता है। मुद्रा बाजार में लगातार हस्तक्षेप और उसकी वजह से प्रणाली में रुपये की बढ़ी हुई तरलता आरबीआई के मुद्रास्फीति लक्ष्य-निर्धारण उद्देश्य को प्रभावित कर सकती है। केंद्रीय बैंक शायद नहीं चाहेगा कि आर्थिक प्रणाली से अधिशेष तरलता को निकाल दिया जाए क्योंकि ऐसा होने पर बॉन्ड प्रतिफल बढ़ सकता है और मुद्रा की लागत भी बढ़ जाएगी। इसके अलावा चालू खाते के इस साल अधिशेष में ही रहने पर रुपये का अधिमूल्यन रोकने के लिए लगातार दखल देने से उस पर मौद्रिक जोड़-तोड़ के आरोप भी लग सकते हैं। लेकिन बाजार में दखल नहीं देने का नतीजा रुपये की मूल्य-वृद्धि के रूप में निकलेगा जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की प्रतिस्पद्र्धात्मकता पर असर डालने के साथ ही अर्थव्यवस्था में दीर्घकालिक असंतुलन भी पैदा कर सकता है।
वास्तविक अर्थों में भारतीय रुपये का मूल्य चढ़ा हुआ है। समायोजन के बाद भी रुपये की कीमत वित्त वर्ष 2020-21 की शुरुआत से ही ऊपर है। इस तरह व्यापक स्तर पर आर्थिक परिदृश्य में बदलाव की संभावना न देखते हुए और विदेशी मुद्रा की आवक मजबूत रहने की उम्मीदों के बीच सरकार एवं आरबीआई दोनों को ही इस स्थिति से निपटने के लिए विवेकपूर्ण नीतिगत विकल्प अपनाने पड़ेंगे। एक संभावना विदेशी ऋण पूंजी पर लगाम लगाने की हो सकती है। बाह्य वाणिज्यिक उधारी 200 अरब डॉलर से भी अधिक है। विदेशी मुद्रा के बड़े भंडार एवं आयात की कम जरूरत से नीति-निर्माण में ढिलाई नहीं होनी चाहिए। भारत को वृद्धि एवं निर्यात पटरी पर लाने के लिए अपनी प्रतिस्पद्र्धात्मकता भी बढ़ाने की जरूरत है।

First Published - November 25, 2020 | 8:40 PM IST

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