इलस्ट्रेशन- अजय मोहंती
भारतीय बिजली क्षेत्र की बात की जाए तो नीति निर्माताओं की मंशा चाहे जो भी रही हो लेकिन देश में ताप बिजली क्षमता में ठहराव है। सीईए के आंकड़े दिखाते हैं कि ताप बिजली क्षमता 2005 के 100 गीगावॉट से बढ़कर 2018 में 300 गीगावॉट हो गई। उसके पश्चात इसमें ठहराव आ गया। सीएमआईई कैपेक्स का परियोजनाओं की पूर्णता संबंधी आंकड़ा भी 2019 के बाद ठहराव दर्शाता है।
मुंबई में बुनियादी ढांचे के लिए रकम जुटाने वाले जानते हैं कि ताप बिजली संयंत्र के लिए धन का इंतजाम करना आसान नहीं है। हम अब एक ऐसे वैश्विक वित्तीय तंत्र में काम कर रहे हैं जो विश्व स्तर पर एकीकृत है और ईएसजी क्रांति ने दुनिया भर में नई कार्बन के उपयोग वाली बिजली उत्पादन व्यवस्थाओं की फाइनैंशिंग की राह बंद कर दी है। अगर पूरी तरह सरकारी पैसे से निर्माण नहीं किया जाए तो अब देश में जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली उत्पादन संयंत्र की स्थापना नहीं होगी।
इस समय हम एक निर्णायक मोड़ पर हैं जहां अनिवार्य तौर पर विद्युत उत्पादन क्षमता में सारी वृद्धि नवीकरणीय ऊर्जा से आनी है। बहरहाल, बिजली क्षेत्र ताप बिजली के दबदबे वाले पुराने दौर के हिसाब से तैयार हुआ है। जब ताप बिजली में इजाफा शून्य हो जाएगा तो दिक्कत पैदा होगी।
सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा की क्षमता में इजाफा हो रहा है। सीएमआईई कैपेक्स का आंकड़ा बताता है कि 2015 से 2023 के बीच सौर ऊर्जा के क्षेत्र में पहचाने जाने योग्य परियोजना पूर्णता संबंधी आंकड़े चार गीगावॉट प्रति वर्ष और पवन ऊर्जा के क्षेत्र में दो गीगावॉट प्रति वर्ष हैं। यह आंकड़ा चिंतित करता है कि भला बिजली क्षेत्र आखिर मजबूत आर्थिक वृद्धि के साथ कितनी निरंतरता में है। यह नजरिया हमें यह समझने में मदद करता है कि गर्मियों में उच्च मांग के दौर में कुछ कठिनाइयों का सामना क्यों करना पड़ता है।
विभिन्न राज्यों में कई प्रकार के अंतर देखने को मिलते हैं। कुछ राज्य मसलन गुजरात और राजस्थन ने सौर ऊर्जा क्षमता जुटाने में बेहतर प्रदर्शन किया है। कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे अन्य अहम खपत वाले राज्यों ने ऐसा नहीं किया।
हर भारतीय राज्य में नीति निर्माताओं को यह सोचने की आवश्यकता है कि ‘क्या नवीकरणीय ऊर्जा की वृद्धि उच्च आर्थिक वृद्धि की संभावनाओं के साथ निरंतरता में है?’ ऐसा इसलिए क्योंकि हमारे पास कोई अहम ताप बिजली संबंधी संयंत्र नहीं होगा और तमाम नई तैयार होने वाली क्षमता केवल नवीकरणीय क्षेत्र से होगी। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि निर्यात से जुड़े उद्योगों की मांग यही होगी कि उनकी व्यापक आपूर्ति शृंखला को नवीकरणीय ऊर्जा में बदला जाए ताकि निर्यात केंद्रों पर कार्बन बॉर्डर टैक्स के मामले में उनका प्रदर्शन सुधरे।
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दिक्कत वाला एक बिंदु है ग्रिड का इंजीनियरिंग बदलाव जो अकार्बनीकरण के लिए आवश्यक है। नवीकरणीय ऊर्जा बिजली ग्रिंड और बाजार की पारंपरिक अवधारणा के लिए दिक्कत है। वे एक हद तक यह बात स्वीकार करने लगे हैं कि लेकिन कई स्थानों पर ग्रिड संचालक वास्तव में और अधिक नवीकरणीय ऊर्जा नहीं चाहते। हर भारतीय राज्य में आर्थिक नीति तैयार करने वालों को वितरण, पारेषण और बाजार ढांचे में सुधार करते हुए इस बाधा को पार करना होगा। मौजूदा ढांचा नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में कम निवेश के लिए जिम्मेदार है।
दूसरी बात यह है कि निजी लोगों की आंखों में विश्वास का क्या स्तर है। बेहतरीन समय में निवेश आस्था की छलांग होता है। एक उत्पादन परियोजना के लिए एक विश्वसनीय और भरोसेमंद माहौल की आवश्यकता होती है जो कम से कम 20 साल चले। देश में बिजली क्षेत्र का माहौल मोटे तौर पर सरकारी नाकामी से उपजा है। इसमें बिल भुगतान न होना, अनुबंधों से इनकार और निजी पेशेवर लेनदेन में हस्तक्षेप आदि शामिल हैं। भारतीय निजी क्षेत्र गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों में निजी नवीकरणीय क्षमता तैयार कर रहा है लेकिन अन्य राज्यों में ऐसा नहीं है।
कई भारतीय राज्यों में बिजली नीति ध्यान आकर्षित नहीं करती। कई अन्य बुनियादी दिक्कतें हैं जिनको हल करने की आवश्यकता है। कई राजनेताओं के लिए मिजाज मामले को टालने का रहा है यानी सब्सिडी के साथ यथास्थिति को बरकरार रखने का। इस सब्सिडी की भरपाई घाटे और ऋण के जरिये की जाती है। इस प्रकार देखें तो बिजली क्षेत्र की समस्या राजकोषीय भी है क्योंकि सार्वजनिक वित्त में उन्हीं संसाधनों बेहतर और उत्कृष्ट इस्तेमाल होता है।
बहरहाल मामले को टालने से अधिक गंभीर हालात पैदा होते हैं। जब वितरण क्षेत्र और बिजली बाजार की ढांचागत दिक्कतों को दूर नहीं किया जाता है तो ग्रिड भी अकार्बनीकरण के लिए तैयार नहीं होता। नीतिगत काम और और वित्तीय निवेश का बड़ा हिस्सा इस एकबारगी बदलाव में लगना चाहिए। नवीकरणीय निवेश की पुरानी दुनिया में जहां ग्रिउ परिचालक अनिच्छापूर्वक नवीकरणीय ऊर्जा शीर्ष प्राथमिकता देते थे वह भी तब जबकि यह आर्थिक दृष्टि से भी उनके लिए व्यवहार्य नहीं होती थी। अब वैसा नहीं है। अब अगर नवीकरणीय ऊर्जा को लेकर आगे बढ़ना है तो वितरण और बाजार ढांचे में गहरे बदलाव करने होंगे। इसके लिए वितरण में रचनात्मक उपाय लाने होंगे मिसाल के तौर पर हर शहरी क्षेत्र के लिए निजी वितरण कंपनियों की मदद लेना।
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उसके बाद बात आती है निजी क्षेत्र को नए सिरे से आश्वस्त करने की। बाजार प्रणाली को इस प्रकार तैयार करना होगा कि निजी-निजी अनुबंध तैयार हों। निजी बिजली उत्पादक यह देखना चाहते हैं कि कोई वाणिज्यिक या औद्योगिक खरीदार हो या फिर कोई निजी वितरण कंपनी खरीदार हो। दीर्घावधि के पीपीए अनुत्पादक साबित होते हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि ऐसी बाजार प्रणाली तैयार की जाए जहां कीमत ऐसी हो जो भंडारण और मांग की प्रतिक्रिया के लिए प्रोत्साहन तैयार करे।
वितरण कंपनियों का एकाधिकार है और एकाधिकार वाली कीमत कम करने के लिए नियमन की आवश्यकता है। इसके लिए नियामकीय क्षमता का विस्तार करना होगा। जब नियामकीय क्षमता कमजोर होती है तो निजी क्षेत्र बिजली वितरण कंपनी की स्थापना के लिए अधिक जोखिम प्रीमियम की मांग करेगा।
देश के कई राज्यों में बिजली नीति राज्य की तमाम आथिक नीतियों में प्रमुखता से उभर रही है। ऐसे में यथास्थिति बरकरार रहने पर बिजली क्षेत्र उच्च आर्थिक वृद्धि की राह में बाधा बन सकती है। हर राज्य को इस नई स्थिति पर नजर रखनी होगी और ऐसे बिजली सुधारों को अंजाम देना होगा जो स्थानीय जरूरत और स्थानीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था दोनों को संबोधित करें।