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  लेख  अब इस अंदाज में आता है प्याले में तूफान…
लेख

अब इस अंदाज में आता है प्याले में तूफान…

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —April 12, 2008 12:15 AM IST0
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जब कोई जीत थाइल की तुलना जे.के. रॉलिंग से करता है, तो वह काफी असहज हो जाते हैं। वैसे यह भी मुमकिन नहीं है कि इस लेखक और कवि की तुलना उस मशहूर हस्ती से न की जाए।


इस बात का हल्का-फुल्का ही सही, पर आधार तो है। आधार यह है कि दोनों ने अपनी-अपनी पहली किताब एक कैफे में लिखी थी। जहां रोलिंग ने मशहूर हैरी पॉटर सीरिज की पहली किताब एडिनबर्ग के एक कैफे में लिखी थी, वहीं थाइल ने भी अपना पहला कविता संग्रह  ‘दिज एरर्स आर करेक्ट’ नई दिल्ली के खान मार्केट स्थित बरिस्ता कैफे में लिखी है। जी हां, वही खान मार्केट जहां छोटी-छोटी दुकानों के किराए भी आसमान छूते हैं।


जब थाइल ने अपनी किताब लिखी थी, उस वक्त वहां का बरिस्ता कैफे सचमुच काफी छोटी सी जगह हुआ करती थी। तब तो वायरलेस इंटरनेट सुविधा से लैस कैफे कॉफी तो उस समय बाजार में उतरी भी नहीं थी। दूसरे कैफे भी दूर-दूर तक नजर नहीं आते थे।


जो एक्का-दुक्का रेस्तरां हुआ भी करते थे, उनके लिए भी प्लग प्वाइंट्स और कॉनर सीट्स कोई अनोखी चीज हुआ थे। वैसे, आज तो माहौल पूरी तरीके से बदल चुका है। वहां अब वहां आपको कई ऑउटलेट्स में मिल जाएंगे, जहां आपको मिलेगी वायरलेस इंटरनेट की सुविधा। ‘मोबाइल दफ्तरों’ की इस नई दुनिया में आपका स्वागत है।


रोमांटिक सपना नहीं हैं कैफे


कैफे में लिखने के बारे में सोचने से ही दिल में रोमांटिक भावनाएं हिलोरें मारने लगती हैं। आखिर हम सभी के दिल में कहीं न कहीं तो यह ख्वाहिश जरूर जगह रखती होगी कि एक दिन जरा ऑफिस के आगे की दु्निया के बारे में भी सोचा जाए। एक दिन तो कॉफी की प्याली के आस-पास अपनी जिंदगी बिताई जाए। जरा सोचिए, क्या हो अगर आपसे कहा जा कि बस एक दिन आपको अपनी जिंदगी शहर के एक कैफे में कविताएं लिखते हुए बितानी है?


उस एक दिन तो आप बस ऐसी कविताओं और उन कविताओं की ऐसे लाइनों के बारे में सोचेंगे, जिनका मतलब दुनिया आने वाली सदियों में अलग-अलग तरह से निकालती रहेगी। कितना रोमांटिक है न यह? लेकिन हुजुर सपनों की दु्निया से बाहर निकल आइए।


हकीकत में तो जब आप नई दिल्ली के ‘मार्केट कैफे’ या मुंबई के ‘इंडिगो दिली’ या फिर बेंगलुरु के ‘कोशी’ में कदम रखेंगे तो आप ऐसे लोगों से टकराएंगे, जो लैपटॉप खोले पैसे कमाने में बिजी होंगे।


जी हां, जो जगह कल तक मौज-मस्ती और कॉफी का लुत्फ उठाने के वास्ते या ज्यादा से ज्यादा अपने क्लाइंट्स के साथ इनफॉर्मल मिटिंग के लिए हुआ करती थी, वहां अब युवाओं की एक बड़ी फौज का कब्जा है। यह फौज, जो अपने काम को करने के लिए ऑफिस नाम की चारदीवारी पर आश्रित नहीं है। एक ऐसी फौज, जो अपने ऑफिस की पूरी अवधारणा को ही नकार रही है। 


मन की हलचल


जब इस स्टोरी की खातिर मैं फोटोग्राफर के साथ मार्केट कैफे की तंग सीढ़ियां चढ़ रही थी, तो एक टीवी रिपोर्टर की तरह महसूस कर रही थी। वह भी उस रिपोर्टर की तरह जो मातम हो या नई फिल्म की रिलीज हर वक्त एक ही सवाल करती है, ‘आप कैसा महसूस कर रहे हैं?’


वह रिपोर्टर, जिसे इस सवाल की खातिर हर तरफ से गालियां खानी पड़ती हैं। जब भी हम बातचीत करने के लिए अपने पॉवरप्वाइंट प्रेंजटेंशन या चैटिंग या मार्केटिंग प्लान्स के साथ हॉट चॉकलेट का लुत्फ लोगों की तरफ जाते तो वो हमें अजीब तरीके से घूरते। हमारे दिमाग तो एक ही बात थी कि किसी भी पॉपुलर कैफे में जाएंगे और वहां बैठकर अपना काम कर रहे लोगों से बात करेंगे।


खासकर ऐसे लोगों से, जो इन कैफेज का इस्तेमाल अपने दफ्तर की तरह करते हैं और साथ में कॉफी का भी लुत्फ उठाते हैं। थाइल के शब्दों में तो कॉफी पीना तो व्हिस्की पीने से बेहतर ही है। थाइल तो अपनी किताब लिखते वक्त कई कप मुफ्त कॉफियों का भी लुत्फ उठा चुके हैं। तो लीजिए मैं यहां हूं और मेरे सामने हैं कई लोग, जिन्हें तंग करने वाली हूं अपने सवालों से।


सिर्फ ग्लैमर ही नहीं


किरात भट्टल और रिया पवार को देखकर तो कतई देखकर कतई नहीं लगता कि वह यहां काम कर रही होंगी। इन खूबसूरत और ग्लैमरस बालाओं को यहां देखकर लगता है कि शायद ये अपना लंच भूल गई होंगी और हल्के-फुल्के खाने के साथ कॉफी का आनंद उठाने के लिए यहां आई होंगी। साथ में, गॉसिप के लुत्फ ले रही होंगी। लेकिन हम तो हैरान रह गए, जब हमें पता चला कि वे दोनों यहां अक्सर आती रहती हैं और यहां काफी वक्त भी गुजारती हैं। पावर एक उद्यमी हैं।


अपने बारे में इस खूबसूरत बाला ने बताया कि,’मैं अपना खुद का एनजीओ शुरू करने जा रही हूं, जो बाहर से नीलामी के जरिये पैसे इकट्ठा करेगी और दूसरे गैर सरकारी संगठनों को दान में देगी। साथ में, मेरी एनजीओ चीजों को रिटेल सेल्स के जरिये भी बेचेगी। इसके अलावा, मैं एक कुकबुक (व्यंजनों की किताब) भी लिख रही हूं। इसमें अपने मुल्क के लोगों को दुनिया भर के पकवानों के बारे में बताऊंगी।’


किरात के बारे में जानकर तो आप हैरान रह जाएंगे। वह तेलूगु फिल्मों की अदाकारा हैं और इस कैफे या बेंगलुरु के कैफे या दूसरे कैफे का इस्तेमाल अपनी फोटो को भेजने के लिए करती हैं। साथ ही, वह यहीं से लोगों से भी संपर्क में रहती हैं। उनका कहना है कि, ‘अगर ये जगहें नहीं होती तो मुझे यह सारा काम तो अपने घर पर बैठे-बैठे करना पड़ता। लेकिन यह जगह काफी अच्छी लगती हैं।’


पवार का तो कहना है कि यहां केवल इंटरनेट और कॉफी ही नहीं, बल्कि और भी कई सारी अच्छी बातें हैं। उनके मुताबिक, ‘यहां सबसे अच्छी बात यह है कि यहां के स्टॉफ का रवैया काफी फ्रेंडली या दोस्ताना है। साथ ही, मैं यहां अक्सर आती रहती हूं , इसलिए यहां काफी कम्फर्टटेबल फील करती हूं।


वैसे, यही हाल मुंबई के इंडिगो दिली का है। वहां भी मैं अक्सर आती-जाती रहती हूं। वहां के स्टॉफ तो मुझे अच्छी तरह से पहचानता है। जैसे ही मैं उस कैफे में कदम रखती हूं, वे लोग मेरे लिए बेरी केक ले आते हैं। वह हमेशा मेरे लिए थोड़ा-बहुत केक बचाकर रखते हैं।’


फिर भी है ‘सस्ता’


इन खूबसूरत बालाओं के बगल वाली टेबल पर बैठे हैं रिलायंस, रेलिगेअर और सहारा जैसी कंपनियों के कंसल्टेंट अनजुम जैदी। यह साहब इस कैफे में पिछले एक साल से लगातार आ रहे हैं। वैसे, इससे पहले वह फाइव स्टार होटलों की लॉबिज या कॉफी शॉप्स में बैठा करते थे। आज वह इस कैफे में कम से कम दो-तीन घंटों के लिए तो वह इस कैफे में आते ही हैं।


उनका लैपटॉप कैफे के प्लग प्वाइंट में जुड़ा हुआ है और वो बैठे हैं अपने दोस्तों के साथ ‘अपनी’ कॉनर सीट पर। इन भाई साहब को इस कैफे की सबसे अच्छी चीज लगती है, यहां के लेबनानी पकवान। लेकिन किसी आदमी की यहां आनी की यही तो एकलौती वजह नहीं हो सकती न? मैंने बस थोड़ा सा कुरेदा, और वजह सामने थी।


उन्होंने स्वीकारा कि, ‘अगर मैं कोई दफ्तर बनाऊं तो मुझे कम से कम हर महीने 50 हजार रुपये खर्च करने पड़ेंगे। साथ में, चाय, कॉफी और स्टॉफ का खर्च अलग से होगा। लेकिन यहां मुझे कुछ नहीं करना पड़ता। मुझे यहां चाय और कॉफी पर पर रोज 700-800 रुपये खर्च करने पड़ते हैं, लेकिन फिर भी मुझे यह जगह काफी पसंद हैं।


यहां लोग-बाग आपको डिस्टर्ब नहीं करते। साथ ही, यहां प्राइवेसी भी है। ऑफिस में तो कोई भी कभी भी धमक सकता है, लेकिन यहां मैं जिससे चाहूं उसी से बात कर सकता हूं।’


वाई-फाई की दीवानगी


मार्केट कैफे में कुल मिलाकर आठ इलेक्ट्रिक सॉकेट्स हैं। स्टॉफ बताते हैं कि कभी-कभी तो इतने सॉकेट्स भी कम पड़ जाते हैं और इनके लिए भी लाइन लगी रहती है। वैसे आज यहां केवल तीन ही सॉकेट इस्तेमाल में हैं। तीसरे सॉकेट से अपने लैपटॉप को जोड़े हुए हैं ब्रेटॉन बॉनी।


अमेरिका के वॉशिंगटन स्टेट की रहने वाली ब्रेटॉन भारत में पिछले कुछ महीनों से ग्लोबलाइजेशन और भारतीय फैशन पर रिसर्च कर रही हैं। उन्होंने तो हाल ही में दिल्ली में खत्म हुए फैशन वीक में भी शिरकत की थी।


उन्होंने उस समारोह में फैसन डिजाइनरों और रिटेलरों से जी भर कर बातें की थी। अब उनकी टेबल पर ग्लौसी पेपर बिखरा हुआ है। उनका कहना है कि, ‘इस कैफे में आने की सबसे बड़ी वजह है यहां वाई-फाई का होना।


पहले मैं हौजखास के एक ऑउटलेट में जाया करती थी, लेकिन इसी वजह से जाना छोड़ा दिया क्योंकि वहां वाई-फाई नहीं था। इंटरनेट के साथ यहां का माहौल भी काफी अच्छा है। इंटरनेट के लिए तो मैं साइबर कैफे में भी जा सकती हूं, जो काफी सस्ता भी पड़ेगा। लेकिन यहां का माहौल काफी जबरदस्त है।’


क्यों आते हैं यहां लोग?


इसके साथ-साथ कई प्रोफेशनल्स और स्टूडेंट्स भी यहां अपने प्रोजेक्ट्स और इनफॉर्मल मीटिंग्स पर वक्त गुजाना काफी अच्छा लगता है। साथ ही, कई तो यहीं से अपना रिक्रूटमेंट इंटरव्यू भी देते हैं। यह सब तो छोटी-मोटी बातें हैं। लेकिन केवल कैफेज से ही काम करना काफी नया ट्रेंड है। यहां तक कि अमेरिका में भी यह ट्रेंड हाल फिलहाल में शुरू हुआ है। इस बारे में द न्यूयॉर्क टाइम्स ने हाल ही एक रिपोर्ट छापी थी। वैसे, भारत में इस थीम के सफल होने की कई वजहें हैं।


पहली बात तो यह है कि यहां रीयल एस्टेट की कीमतें आसमान छू रही हैं। साथ ही, यहां अच्छी टेक्नोलॉजी काफी सस्ते दामों पर उपलब्ध हो जाती है। इसके अलावा, कंसल्टेंट्स का बढ़ता बाजार भी इसमें भूमिका अदा कर रही है। वैसे, इन कैफेज में खान-पान की चीजों का सस्ता होना भी इनकी सफलता एक बड़ी वजह है। साथ ही, हमारा बदलता रवैया भी इसमें सहायक होता है।


लेकिन इस ट्रेंड के विस्तार की असल वजह तो नए तरह की सोच वाले लोग हैं, जो इन कैफेज का इस्तेमाल टेम्पोररी ऑफिस के तौर पर करते हैं।  एक अन्य कैफे के मैनेजर ने हमें बताया कि उनके पास वैसे ग्राहक भी आते हैं, जो 6 माह भारत में रहते हैं और बाकी 6 महीने विदेशों में।


इसके अलावा, फिओना कॉलफील्ड जैसे लोग भी हैं, जो में 2004 से लगातार भारत में हैं। उन्होंने कई ट्रैवल गाइड लिखा है। उन्होंने विभिन्न शहरों में कैफे से बाहर भी खूब वक्त बिताया है। उन्होंने बताया, ‘लिखने के लिए मुझे ऐसे शांत जगह की जरूरत थी, जहां मैं रात में अकेले अपना काम कर सकूं। मैं रात में ही लिखने का काम करती हूं।’


हालांकि इस बाबत मुलाकात और रिसर्च का काम नई दिल्ली स्थित इटैलियन कल्चर सेंटर कैफे, मुंबई के इंडिगो और बेंगलुरु के कोशीज कैफे में किया गया। इसकी वजह यह थी कि इन कैफे के जरिये उन्हें भारत के बारे में काफी कुछ अनुभव प्राप्त हो सका।


शांति और सुकून की तलाश


इसके अलावा कई ऐसे घुमक्कड़ भी हैं, जिनके लिए महानगरों की आपाधापी भरी जिंदगी में कैफे शांत और सुकून वाले आशियाने का काम करते हैं। युवा पीआर एग्जिक्यूटिव कुणाल किशोर कहते हैं कि पिछले 2 महीने में वह अपने ऑफिस में बमुश्किल से एकाध बार गए होंगे।


अपने ऑफिस के बजाय उन्हें रोजाना गुड़गांव स्थित केन इंडिया बिल्डिंग में मौजूद यूनिकॉर्न कैफे में देखा जा सकता है। वह अपने दफ्तर का सारा काम यहीं से निपटाना पंसद करते हैं। किशोर ने बताया कि यहां वह हमेशा अपना प्लग पॉइंट और डेटा कार्ड अपने साथ रखते हैं और इसी कैफे से अपना सारा प्रेजेंटेशन करते हैं। उनके मुताबिक, एक बार उन्होंने यहां से प्रेजेंटेशन दिया और वह काफी अच्छा रहा। इसके बाद वह इस जगह के बारे में उनकी अवधारणा काफी सकारात्मक हो गई।


अब वह अपने दफ्तर से जुड़े सारे काम यहीं से करने की कोशिश करते हैं। किशोर का औपचारिक दफ्तर तो दिल्ली में है, लेकिन शहर के आसपास मौजूद क्लाइंटों से लगातार संपर्क में रहने की जरूरत के मद्देनजर उन्हें घूमते-फिरते भी रहना पड़ता है। उन्होंने बताया कि हमारा घूमना-फिरना उस वक्त और बढ़ जाता है, जब अनुबंधों के पुनर्नवीनीकरण और नए अनुबंध को हासिल करने का मौसम होता है।


किशोर बताते हैं कि दफ्तर जाने के बजाय कैफे में बैठे-बैठे काम करने से उनकी गाड़ी के तेल का खर्च भी बचता है। किशोर के मुताबिक, कैफे में उनके सैंडविच और अन्य चीजों का खर्च कभी भी 200 रुपये से ज्यादा नहीं बैठता। अगर वह दिल्ली स्थित अपने दफ्तर जाएंगे और फिर वहां से लौटेंगे तो इस बाबत आने वाला खर्च 300 से 400 रुपये के बीच बैठेगा। ऊपर से महानगर की भीड़भाड़ वाले ट्रैफिक की थकान अलग से झेलनी पड़ेगी।


तकनीक का जादू


जाहिर है तकनीक की उपलब्धता ने ऐसे मोबाइल ऑफिस को मुमकिन बना दिया है। साथ ही तकनीक के जरिये लोगों को ऐसी सुविधाएं मिल रही हैं, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की होगी। मुंबई स्थित कैफे चेन मोचा के मालिक रियाज अमलानी (जो तकनीकी उपकरणों के बहुत बड़े शौकीन हैं) इस ट्रेंड पर एक दिलचस्प नजरिया पेश करते हैं।


वह कहते हैं कि टेक्नोलोजी की वजह से लोग आजकल खुद को काफी अलग-थलग महसूस करते हैं। टेक्नोलोजी के बढ़ते प्रभाव की वजह से लोग घर से भी अपना काम कर सकते हैं, लेकिन वे कैफे इसलिए आते हैं, क्योंकि यहां उन्हें एकाकीपन महसूस नहीं होता।


एक तरफ जहां कुछ कैफे मालिक एक कप कॉफी लेकर यहां बैठने वाले लोगों की शिकायत करते हैं और उन्हें बेवजह कैफ में भीड़ बढ़ाने वाले की सूची में शुमार करते हैं, वहीं दूसरी ओर अमलानी जैसे कैफे मालिक ऐसे ग्राहकों का तहेदिल से स्वागत करते हैं।


अमलानी के मुताबिक, ऐसे ग्राहकों से आखिकार कैफे मालिकों को ही फायदा पहुंचेगा। उनकी दलील है कि अगर ग्राहक यहां ज्यादा से ज्यादा वक्त बिताते हैं, तो जाहिर है कि वे किसी न किसी रूप में अपनी जेब ढीली करेंगे ही। यह बिल्कुल भी जरूरी नहीं है कि महज कुछ ज्यादा कप कॉफी बेचकर ही कैफे मालिक लाभ कमा सकते हैं।


थाइल फिलहाल ज्यूरिख में अपनी दो किताबों पर काम कर रहे हैं। इनमें एक उपन्यास और दूसरा लिबरेटो (नाटय कविता) है। अपने इस प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए उन्होंने एक ऐसी कॉफी शॉप का चयन किया है, जहां से एक पुराने चर्च का विहंगम दृश्य नजर आता है। कॉफी शॉप में काम करना उन्हें बेहद पसंद है।


उन्होंने बताया कि खासकर उन्हें यहां मध्यम आवाज में चलने वाला संगीत भी काफी भाता है। वह कहते हैं कि खासकर जब आप किसी से बात कर रहे होते हैं तो यह संगीत इस बातचीत का मजा दोगुना कर देता है। दिलचस्प बात यह है कि अगर इस नए ‘दफ्तर’ में संगीत और चर्च नहीं भी हो, तो भी यहां बैठकर काम करने का अपना ही मजा है। यह रिपोर्ट भी शायद ऐसी जगह पर लिखी जा सकती है। तो कब आ रहे हैं आप कॉफी शॉप का लुत्फ उठाने? 

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