आर्थिक सुधारों को झटके से अंजाम देने के बजाय उन्हें निरंतर और चरणबद्ध तरीके से अपनाया जाना चाहिए। यह काम एक साथ विभिन्न क्षेत्रों में होना चाहिए। विस्तार से जानकारी दे रहे हैं गुरबचन सिंह
यदि आर्थिक सुधार कुल मिलाकर बहुत अच्छे हों तो भी वे कुछ लोगों के लिए अवश्य परेशानी का सबब बनते हैं। यह संभव है कि ऐसी परिस्थितियों को टाला नहीं जा सके लेकिन इससे एक राह यह निकलती है कि एकबारगी बड़े सुधारों के बजाय चरणबद्ध तरीके से सुधार अपनाए जाते हैं। हमारे देश में सीमित सुधार किए जाते हैं और इन्हें भी यदाकदा ही किया जाता है। देश में कई क्षेत्र और इलाके हैं और लगभग हर जगह सुधारों की आवश्यकता है। ऐसे में यदि कई क्षेत्रों और इलाकों में सुधार किया जाता है तो सुधार की प्रक्रिया तेज हो सकती है, भले ही हर स्थान पर व्यक्तिगत सुधारों को चरणबद्ध तरीके से ही अंजाम दिया जाए।
भारी भरकम सुधारों को अक्सर जोसेफ स्कंप्टर के रचनात्मक विध्वंस के विचार के सहारे उचित ठहराया जाता है। अर्थशास्त्र में यकीनन यह एक बड़ा विचार है लेकिन रचनात्मक विध्वंस अचानक नहीं होना चाहिए। खासकर तब ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए जब बदलाव सरकारी अधिकारियों द्वारा लाया जा रहा हो, न कि निजी निगमों द्वारा। यह चरणबद्ध हो सकता है। ऐसे में विचारधारा, राजनीति या भावनाओं के कारण भड़कने वाले गुस्से की आशंका को न्यूनतम किया जा सकता है। चरणबद्ध तरीके को कभी भी ढीला ढाला रवैया नहीं समझना चाहिए। हकीकत में एक सुविचारित और चरणबद्ध कार्यक्रम के लिए अहम अतिरिक्त तैयारी की आवश्यकता होती है। यह बात भारत सरकार पर भी लागू होती है। यह उन सभी लोगों पर लागू होती है जो किसी खास सुधार के प्रभारी हैं। भारतीय रिजर्व बैंक, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय और भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड जैसे संस्थान भी इसमें शामिल हैं।
सरकार से जुड़े एक उदाहरण पर बात करते हैं। एक वक्त पर उसने कई महीनों तक डीजल पर सब्सिडी को 50 पैसे प्रति लीटर प्रति माह तक घटाया। यदि सारी सब्सिडी को एक साथ हटाने का प्रयास किया जाता तो यह बहुत कठिन साबित होता। लेकिन चरणबद्ध तरीके से कमी करना कारगर साबित हुआ। क्या यह तरीका हमेशा कारगर साबित होता है? यह सही है कि नोटबंदी जैसी नीति तभी कारगर साबित हो सकती है जब उसे अचानक उठाया जाए। परंतु यह भी ध्यान रखना होगा कि नोटबंदी के कई अलग-अलग आर्थिक लक्ष्य हो सकते हैं। इनमें से प्रत्येक लक्ष्य को वैकल्पिक तरीकों से अलग-अलग हासिल किया जा सकता है और यह काम चरणबद्ध तरीके से किया जा सकता है। ऐसा तरीका अपनाने की जरूरत नहीं है जिससे उथलपुथल हो और पूरा देश प्रभावित हो।
यह दलील दी जा सकती है कि अगर कुछ बड़े और अचानक किए जाने वाले सुधार केवल दो या तीन राज्यों में हों तो शायद उतनी अधिक उथलपुथल की स्थिति न बने। बहरहाल, हमारे देश के राज्यों का आकार यूरोप के देशों के समान है। ऐसे में इन मामलों में भी चरणबद्ध तरीका अपनाने की आवश्यकता है। एक प्रश्न यह भी है कि क्या हमें मार्गरेट थैचर की तरह बड़ा नहीं सोचना चाहिए? आमतौर पर इसका अर्थ होता है किसी इलाके में बड़ा बदलाव। हालांकि इसका एक और अर्थ भी हो सकता है। हम ढेर सारे इलाकों में छोटे-छोटे बदलावों पर विचार कर सकते हैं। वह भी बड़ी सोच है! यकीनन इसके लिए कई अलग-अलग टीमों की आवश्यकता है जिनमें से प्रत्येक एक खास क्षेत्र में काम करती है। कई छोटे-छोटे बदलावों को एक बड़े, सुसंगत, गैरविभाजनकारी, पारदर्शी और स्थायी सुधार की प्रक्रिया में तब्दील किया जा सकता है। यह प्रक्रिया निरंतरता में हो तो यह बहुत ताकतवर और प्रभावी साबित हो सकता है।
छोटे-छोटे बदलावों को कई मोर्चों पर एक साथ अपनाते हुए सुधार हासिल करने की कोशिश करके हम ऐसी स्थिति से भी बच सकते हैं जहां एक क्षेत्र में तो बहुत कुछ हो जाता है लेकिन अन्य इलाके बिल्कुल अछूते छूट जाते हैं। इससे यह आशंका भी निराधार साबित होती है कि कुछ लोग निहित स्वार्थ के चलते एक खास इलाके में सुधार पर बल दे रहे हैं ताकि उन्हें लाभ हासिल हो सके। यदि जनता के दिमाग में आशंकाएं नहीं होंगी तो सुधारों को सहजता से अंजाम देने में मदद मिलेगी। संकट के समय हमेशा अवसर होता है। यह बात सही है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि यह अवसर बड़े नीतिगत सुधारों से संंबंधित हो। उसे अवसरवाद माना जा सकता है। मूल कहावत का यह अर्थ कतई नहीं है।
कई बार संकट के समय का इस्तेमाल ऐसे सुधार को पूरा करने के लिए किया जाता है जो बहुत लंबे समय से लंबित हो। क्या अब हम ऐसा कह रहे हैं कि हमें ऐसे मामलों में भी धीमे-धीमे आगे बढऩा चाहिए? अक्सर नीति निर्माताओं के नजरिये से ऐसे मामलों में देरी होना माना जाता है। अंशधारक शायद इस देरी को लेकर सचेत न हों। उनके लिए यह अप्रत्याशित हो सकता है। ऐसे में क्रियान्वयन करना कठिन हो जाता है। यही वजह है कि ठोस लेकिन चरणबद्ध तरीके से आगे बढऩा अहम हो जाता है।
यह दलील भी दी जा सकती है कि चरणबद्ध सुधारों में एक दिक्कत आ सकती है। ऐसा हो सकता है कि धीमी गति या निष्क्रियता के कारण प्रभावों का आकलन करने में देरी हो। दरअसल दलील यह है कि धीमी गति से सुधार होने पर लोग अपना व्यवहार नहीं बदलते। बहरहाल वैज्ञानिक प्रयोगों ने इस पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। अब यह माना जाने लगा है कि सुधार की प्रक्रिया को चरणबद्ध तरीके से अपनाया जाना चाहिए जहां किसी किस्म की सनसनी न हो। एक दिलचस्प बात यह भी है कि जो देश खुशी से संबंधित सूचकांक में ऊंचे स्थान पर रहते हैं वे अक्सर अंतरराष्ट्रीय खबरों में नहीं रहते। ऐसा क्यों? इसकी एक वजह यह हो सकती है कि वे बड़े सुधार नहीं अपनाते लेकिन इसके बावजूद वे अपनी अर्थव्यवस्था में बदलाव तो करते हैं। बेहतर यही है कि एक झटके में सुधार अपनाने के बजाय निरंतर चरणबद्ध सुधारों को अपनाया जाए। यह काम भी अलग-अलग क्षेत्रों और इलाकों में किया जाना चाहिए।
(लेखक भारतीय सांख्यिकी संस्थान, दिल्ली केंद्र के अतिथि प्राध्यापक हैं)