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शेयरधारकों के हितों को वरीयता देने की जरूरत

प्रवर्तकों की हिस्सेदारी उच्चतम स्तरों से जरूर नीचे आई है मगर यह अब भी संस्थागत निवेशकों एवं अन्य सभी शेयरधारकों की संयुक्त हिस्सेदारी से अधिक है।

Last Updated- May 25, 2025 | 10:03 PM IST
Shareholders

भारतीय कंपनियों में स्वामित्व ढांचा देश में कंपनी संचालन की दशा-दिशा पर व्यापक प्रभाव डालता रहा है। बीएसई 100 सूचकांक में लगभग 65 फीसदी कंपनियां परिवार नियंत्रित या परिवार संचालित हैं। प्रमुख सूचकांकों से इतर दूसरे सूचकांकों में ऐसी कंपनियों की तादाद और अधिक है जहां परिवार का नियंत्रण अधिक होता है। निफ्टी 500 सूचकांक के आंकड़े भी इसको पुख्ता करते हैं। इस सूचकांक में शामिल कंपनियों में दिसंबर 2015 तक प्रवर्तकों की हिस्सेदारी 54.5 फीसदी थी, जो जून 2020 तक बढ़कर 58.9 फीसदी हो गई। फिलहाल उनकी हिस्सेदारी 51 फीसदी है। प्रवर्तकों की हिस्सेदारी उच्चतम स्तरों से जरूर नीचे आई है मगर यह अब भी संस्थागत निवेशकों एवं अन्य सभी शेयरधारकों की संयुक्त हिस्सेदारी से अधिक है।

स्वामित्व एवं नियंत्रण एक जगह केंद्रित रहने के वर्तमान माहौल में बाहरी निवेशक तभी निवेश करने के लिए तैयार होंगे जब उनका कंपनी के संचालन एवं नेतृत्व पर पूरा भरोसा होगा। किसी कंपनी का संचालन मूल रूप से नियामकों, निदेशकमंडल (बोर्ड), प्रबंधन, शेयरधारक और वृहद अंशधारकों के बीच आपसी संवाद एवं संबंधों का नतीजा होता है, इसलिए इन संबंधों में संतुलन एवं जवाबदेही सुनिश्चित करने में नियम-कायदे की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। भारत के संदर्भ में कई बातें साफ तौर पर दिखाई देती हैं।

उनमें एक है निदेशकमंडल को सीमित अधिकार। बोर्ड में प्रायः अधिक हिस्सेदारी रखने वाले शेयरधारकों की मौजूदगी रहती है इसलिए नियामकों की सोच यह रही है कि प्रमुख निर्णय लेने का अधिकार शेयरधारकों के पास होना चाहिए न कि बोर्ड के पास। इसका नतीजा है कि शेयरधारकों को विभिन्न प्रकार के मामलों- रकम जुटाने, कारोबार पुनर्गठन और चार्टर डॉक्यूमेंट में संशोधन से लेकर न्यूनतम वित्तीय असर डालने वाले मामलों जैसे सचिवीय लेखा परीक्षक या दस्तावेज भेजने पर डाक खर्च माफ करने आदि- पर मत डालने के लिए कहा जाता है। मोटे तौर पर बोर्ड द्वारा आगे की प्रक्रिया शुरू करने से पहले 30 से अधिक ऐसे मामले हैं जिन पर शेयरधारकों की सहमति जरूरी होती है।

यह स्थिति अमेरिका जैसे देशों से उलट है जहां शेयरधारक बोर्ड को महत्त्वपूर्ण अधिकार देते हैं जिनका इस्तेमाल कर बोर्ड अपने हिसाब से निर्णय लेता है।
नियामकों ने एक दूसरा सुरक्षात्मक प्रावधान यह दे रखा है कि प्रवर्तक समेत सभी शेयरधारकों को मतदान में हिस्सा लेना जरूरी है मगर कोई प्रस्ताव पारित होने के लिए निश्चित मतों की जरूरत होती है। कुछ मामले साधारण प्रस्ताव से भी पारित हो जाते हैं। ऐसे मामलों में पक्ष में विपक्ष की तुलना में अधिक मतों की आवश्यकता होती है।

इनके बाद विशेष प्रस्ताव आते हैं जिनके पारित होने के लिए किसी प्रस्ताव के पक्ष में पड़े मतों की संख्या इसके खिलाफ मतों की संख्या के तीन गुना से अधिक होनी चाहिए। एक दशक पहले एक नई श्रेणी के प्रस्ताव आए जिन्हें ‘अल्पांश शेयरधारकों का बहुमत’ (मेजॉरिटी ऑफ मायनॉरिटी) प्रस्ताव का नाम दिया गया। ऐसे प्रस्तावों के पारित होने के लिए पक्ष में अल्पांश अंशधारकों के कुल मतों का 50 फीसदी हिस्सा होना जरूरी है। इनमें प्रवर्तक या संबंधित पक्ष के पास मत डालने का अधिकार नहीं होता है।

निफ्टी 500 कंपनियों के मामले में शेयरधारकों एवं मतदान के नतीजों से जुड़े आंकड़ों के अध्ययन दिलचस्प प्रवृत्ति दिखाते हैं। नियामकों द्वारा नियंत्रण एवं संतुलन के उपाय करने के बावजूद किसी प्रस्ताव के पक्ष में 64.4 फीसदी मत और विपक्ष में महज 1.2 फीसदी मत हैं, जबकि 34.4 फीसदी शेयरधारक मतदान से अनुपस्थिति रहे। इस तरह, अनुपस्थित रहने वाले मतदाताओं को छोड़ दें तो प्रस्तावों के लिए समर्थन बढ़कर 98.15 फीसदी तक पहुंच जाता है और असहमति जताने वाले मत केवल 1.85 फीसदी रह जाते हैं।

इस तरह, 99.5 फीसदी प्रस्ताव बिना किसी बाधा के पारित हो जाते हैं। ऐसे कई प्रस्ताव भी सामने आए हैं जिनमें 100 फीसदी संस्थागत निवेशक असहमति या विरोध जताते हैं या सभी निवेशकों में 40 फीसदी असहमत होते हैं मगर प्रवर्तक अपनी बहुलांश हिस्सेदारी और मत के बल पर प्रस्ताव पारित करा ले जाते हैं। इसे कैसे वाजिब ठहराया जा सकता है?

‘अल्पांश अंशधारकों का बहुमत’ मतदान (जिसमें प्रवर्तक या दिलचस्पी रखने वाले पक्ष मतदान से बाहर रखे जाते हैं) का मौजूदा इस्तेमाल कुछ परिस्थितियों तक ही सीमित रखा गया है। इसे सभी प्रस्तावों के मामलों में लागू करने पर शेयरधारक लोकतंत्र का आधारभूत सिद्धांत कमजोर हो जाएगा क्योंकि इससे अल्पांश समूह को एजेंडा तय करने की अनुमति मिल जाएगी और बहुलांश अंशधारक मताधिकार से वंचित रह जाएंगे।

एक विकल्प के रूप में भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) संवैधानिक सिद्धांत से प्रेरित एक व्यवस्था शुरू (आवश्यक बदलाव के बाद) कर सकता है। जिस तरह भारत के राष्ट्रपति कोई विधेयक पुनर्विचार के लिए संसद को लौटा सकते हैं उसी तरह एक शेयरधारक असहमति समीक्षा व्यवस्था शुरू की जानी चाहिए।

इस व्यवस्था के अंतर्गत अगर किसी प्रस्ताव का अधिक विरोध होता है तो (उदाहरण के लिए प्रस्ताव के विरोध में मतदान का 10 फीसदी से अधिक) तो निदेशकमंडल को अल्पांश शेयरधारकों से बातचीत करनी और उनकी चिंता समझनी चाहिए। इसके बाद एक निश्चित समय सीमा (उदाहरण के लिए चार महीने) के भीतर बोर्ड को उनकी चिंता दूर करने के लिए उठाए गए कदमों का खुलासा करना होगा जिनमें जरूरत पड़ने पर वास्तविक प्रस्ताव में संशोधन भी शामिल हो सकता है।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि संवैधानिक प्रावधान की तरह ही बोर्ड अंततः अपने मूल निर्णय के साथ आगे बढ़ने का विकल्प चुन सकता है। दूसरी तरफ, यदि निवेशक कंपनी की सोच से सहमत नहीं हैं और यह बात दृढ़ता से महसूस करते हैं, तो वे अपने स्टॉक बेचने के लिए स्वतंत्र हैं।

जिन प्रस्तावों पर 10 फीसदी से अधिक शेयरधारकों ने विरोध जताया है उन पर चर्चा का मतलब यह निकलता है कि 10 प्रस्तावों में 1 से भी कम पर पुनर्विचार करने की जरूरत होगी। यह बड़ी संख्या तो नहीं है मगर यह परामर्श की संस्कृति को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। शेयरधारक असहमति समीक्षा व्यवस्था लाकर नियामक बोर्ड के लिए बड़े स्तर पर होने वाले विरोध पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देना अनिवार्य बना सकता है। इससे कंपनियों एवं निवेशकों के बीच सकारात्मक बातचीत को बढ़ावा मिलेगा और इस तरह शेयरधारक लोकतंत्र की व्यवस्था मजबूत होगी।

(लेखक सेबी पंजीकृत प्रॉक्सी एडवाइजरी कंपनी इंस्टीट्यूशनल इन्वेस्टर एडवाइजरी सर्विसेस इंडिया के साथ जुड़े हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

First Published - May 25, 2025 | 10:03 PM IST

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