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सचेत होना आवश्यक

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 8:57 PM IST

रूस और यूक्रेन के बीच जंग में फंसे हजारों युवा भारतीयों ने उस महत्त्वपूर्ण बहस को नए सिरे से चर्चा में ला दिया है कि आखिर विदेशों में होने वाली चिकित्सा शिक्षा भारत में इतनी लोकप्रिय क्यों है और भारत छात्रों के इस बहिर्गमन को रोकने के लिए क्या कर सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में कॉर्पोरेट जगत से कहा भी है कि वह अधिक सक्रियता दिखाए ताकि भारतीय छात्रों को चिकित्साशास्त्र के अध्ययन के लिए विदेश जाने की आवश्यकता न महसूस हो, खासतौर पर छोटे देशों में।
प्रधानमंत्री का सुझाव तभी उपयोगी हो सकता है जब निजी कारोबारी देश में सस्ती चिकित्सा सेवा मुहैया करा पाएंगे। इसके अलावा देश में चिकित्सा शिक्षा में सीटों में भी अहम इजाफा करना होगा ताकि मौजूदा रुझान को पलटा जा सके।
फिलहाल भारत में सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों की कुल सीटें 90,000 में करीब आधी-आधी हैं। जबकि 2021 में 16 लाख लोगों ने राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (नीट) का आवेदन दिया था ताकि वे चिकित्सा में स्नातक की शिक्षा हासिल करने की पात्रता हासिल कर सकें। मांग तथा आपूर्ति के अंतर के अलावा निजी और सरकारी पाठ्यक्रमों में शुल्क का अंतर भी एक बड़ी बाधा है।
सरकारी चिकित्सा महाविद्यालयों में इस पढ़ाई की शुरुआत 67,000 रुपये से होती है और यह तीन लाख रुपये तक जाती है जबकि निजी महाविद्यालय में चिकित्सा शिक्षा का शुल्क 80 लाख रुपये से एक करोड़ रुपये के बीच है। चीन, रूस, यूक्रेन और बेलारूस में यही पाठ्यक्रम मात्र 20 से 45 लाख रुपये में किए जा सकते हैं। पढ़ाई में होने वाले खर्च में इसी अंतर और पर्याप्त सीटों की अनुपलब्धता के कारण हर वर्ष करीब 25,000 भारतीय बच्चे चिकित्सा की पढ़ाई करने विदेश चले जाते हैं। बाहर जाने वालों में करीब 60 फीसदी बच्चे चीन, रूस और यूक्रेन जाते हैं। स्थानीय भाषा सीखने की आवश्यकता और भारत में चिकित्सक के रूप में काम करने के पहले एक कड़ी परीक्षा पास करने की बाध्यता के बावजूद ये देश  चिकित्सा शिक्षा लेने की इच्छा रखने वालों के बीच लोकप्रिय हैं।
इस परिदृश्य में भारत को गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा शिक्षा का केंद्र बनाने के लिए सरकार को एमबीबीएस की सीटें बढ़ाने तथा निजी शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई की लागत कम करने की दिशा में सक्रिय भूमिका निभानी होगी। चिकित्सा शिक्षा पढ़ाने वाले कुछ विदेशी कॉलेजों को सरकारी सब्सिडी मिलती है। केंद्र को राज्यों तथा उद्योग जगत के साथ गंभीरता से यह चर्चा करनी चाहिए कि वे ऐसे कदम उठाएं ताकि देश में पढ़ाई कराने वाले निजी संस्थानों की लागत कम की जा सके। चिकित्सा महाविद्यालयों के लिए भूमि अधिग्रहण को आसान बनाना चाहिए। अधिकारियों को चिकित्सा महाविद्यालयों द्वारा एक खासा संख्या में बिस्तरों वाले अस्पताल चलाने तथा सीटों को इस तादाद से जोडऩे की अनिवार्यता की भी समीक्षा करनी चाहिए। यदि नियामकीय बोझ कम हो और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर जोर दिया जाए तो शायद ज्यादा प्रतिष्ठित और विश्वसनीय निजी कारोबारी इस क्षेत्र में आगे आएं। परंतु सीटें बढ़ाने तथा सब्सिडी या अन्य माध्यमों से लागत लाभ पर विचार करते हुए चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। नैशनल मेडिकल जर्नल ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित एक कार्य-पत्र के मुताबिक विदेशों में पढऩे वाले केवल 18 से 20 फीसदी बच्चे ही वापस आकर विदेशी चिकित्सा स्नातक परीक्षा पास कर पाते हैं। विदेशों में डिग्री लेने के बाद भारत में बतौर चिकित्सक काम करने के लिए यह परीक्षा पास करना जरूरी है।
भारत में निजी क्षेत्र को इस दिशा में व्यापक रूप से शामिल करने के प्रयास से यह सुनिश्चित होना चाहिए कि भविष्य के चिकित्सक अंतरराष्ट्रीय गुणवत्ता वाले हों और उनके पास भारतीय डिग्री हो। चिकित्सा शिक्षा के साथ ही सरकार के शिक्षा पर होने वाले बजट व्यय में भी इजाफा किया जाना चाहिए।

First Published : March 2, 2022 | 11:19 PM IST